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नुक्कड़ नाटकों में महिलाओं का खास रहा योगदान

रजनी गुप्ता |  जुलाई 20, 2024

पूरी दुनिया में जनवादी आंदोलनों के साथ राजनितिक जरूरतों को पूरा करने के लिए ही नुक्कड़ नाटकों की शुरुआत हुई थी, लेकिन महिलाओं ने इसके जरिए अपनी समस्याओं को उजागर करते हुए इसे एक नया आयाम दिया। तो आइए जानते हैं नुक्कड़ नाटकों में महिलाओं के विस्तृत योगदान के बारे में।   

नुक्कड़ नाटक का शुरुआती दौर मनोरंजक था

मूलत: कलाकारों ने अपना सामाजिक दायित्व निभाने के लिए नुक्कड़ नाटकों को चुना था, किंतु भारत में इसका शुरुआती दौर मनोरंजक ही रहा। फिर चाहे राजाओं का मजाक उड़ाते हुए उनके प्रति अपनी नाराजगी व्यक्त करना हो या अंग्रेजी शासन की पोल खोलना हो। यही वजह है कि विद्वानों ने इसे तब नाट्य विधा का दर्जा नहीं दिया था, लेकिन आजादी के बाद महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार के साथ अलगाववाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद जैसी समस्याओं ने जब विकराल रूप लिया, तब जुझारू जनता ने नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से अपनी आवाज बुलंद की। विशेष रूप से ग्रामीण महिलाओं ने सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए सामाजिक मुद्दों को जिस तरह प्रचारित-प्रसारित किया, वो उल्लेखनीय हैं। पंजाब में गिद्धा, गुजरात में गरबा, महाराष्ट्र में लावणी और पावड़ा, उत्तर प्रदेश और बिहार में नौटंकी, गुजरात में भवाई और बंगाल में जात्रा इसके उदाहरण हैं।   

बलिदानी स्त्री का स्वरूप 

पहले नाटककार स्त्रियों के प्रति होनेवाली समस्याओं को समुदाय और राष्ट्र के प्रति हो रही हिंसा के साथ जोड़कर देखते थे और उन्हें बलिदानी स्त्री के रूप में चित्रित करते थे, जो अपनों के लिए मर मिटने को तैयार रहती हैं। दरअसल, इस तरह राष्ट्रवादी पुरुष, संभ्रांत महिलाओं से सिर्फ आदर्श पत्नी और मां होने की अपेक्षा करता था। राष्ट्रवाद की पितृसत्तात्मक मनोवृत्ति, रंगमंच पर भी हावी थी। यही वजह है कि जो महिलाएं रंगमंच में आ रही थी, उन्हें वेश्या की दृष्टि से देखा जाता था। महिला कलाकारों के प्रति ये रवैया 1947 तक कायम रहा। हालांकि 19वीं सदी में बंगाल में विनोदिनी दासी, तृप्ति मित्रा और शोभा सेन जैसी नायिकाएं थी, जिन्होंने अपना पूरा जीवन थियेटर को समर्पित कर दिया था। 1947 के बाद स्त्री सशक्तिकरण तथा सामाजिक परिवर्तन के लिए महिला नुक्कड़ नाटकों की शुरुआत हो चुकी थी, किंतु सार्वजनिक एवं घरेलू जिंदगी में वे सामाजिक अन्याय का शिकार हो ही रही थीं। 

नुक्कड़ नाटकों के जरिए महिलाओं ने संभाली कमान 

ये रवैया 1970 के दशक में कम हुआ, जब विभिन्न नारीवादी समूह महिला मुद्दों के प्रति चेतना जागृत करते हुए उनके और अपने संघर्षों को नुक्कड़ नाटकों के जरिए सड़क पर ले आयी। इनमें जागो री, स्त्री मुक्ति संगठन, गरीब, जोगरी संस्थान, थियेटर यूनियन और सहेली का नाम उल्लेखनीय है। 1970 के दशक में सामाजिक हिंसा और महिलाओं के प्रति हो रहे शोषण, जब  दहेज हत्याओं के रूप में सामने आए, तब यह मुद्दा सारे देश के महिला आंदोलनों का केंद्र  बन गया। दहेज के विरुद्ध प्रारंभिक विरोध हैदराबाद में वर्ष 1975 में प्रगतिशील महिला मुक्ति संगठन द्वारा दर्ज करवाया गया था। इस तरह के प्रदर्शनों में महिलाओं की संख्या सौ तक पहुंच चुकी थी, फिर भी इसे आंदोलन का स्वरूप नहीं मिला था। हालांकि दहेज हत्या के खिलाफ पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात, मध्य-प्रदेश और पश्चिम बंगाल सहित देश के अलग-अलग हिस्सों में विरोध अभियान जारी हो चुका था, मगर विस्तृत आंदोलन दिल्ली में हुआ, क्योंकि यहां दहेज के कारण होनेवाली हत्याओं की संख्या सबसे अधिक थी।  

दहेज विरोध से शुरू हुआ नुक्कड़ नाटकों का सफर 

आमतौर पर आग लगने से होनेवाली मौतों को, हत्या की बजाय आत्महत्या के रूप में लिया जाता था, जिसमें दहेज उत्पीड़न का कारण बहुत कम माना जाता था। विशेष रूप से पुलिस भी इन मामलों को पारिवारिक और निजी कहकर नजरअंदाज कर देती थी। कई बार मृत्युशैय्या पर पड़ी महिलाएं, सास-ससुर के खिलाफ बयान देने में कामयाब भी हो जाती थी, लेकिन पुलिस की सुस्ती के कारण हत्यारे साक्ष्य मिटाने में कामयाब हो जाते थे और हत्या का मामला, आत्महत्या कहकर रफा-दफा कर दिया जाता था। कई नारीवादी समूहों ने इन मुद्दों को अपने आंदोलन का आधार बनाया और हत्यारों का सामाजिक बहिष्कार करने के लिए विरोध प्रदर्शन किए। इन आंदोलनों का परिणाम ये हुआ कि इस जुलूस में महिलाओं के साथ सफाई कर्मचारी, घरेलू नौकर और रास्तों पर चल रहे आस-पास के लोग भी शामिल होने लगे। इस सफलता को देखते हुए इन स्त्री संघर्ष संगठन ने दहेज मुद्दे को उठाने और लोगों से सीधा संपर्क स्थापित करने के लिए नुक्कड़ नाटकों का सहारा लिया। रति बार्थोलोम्यू, अनुराधा कपूर और माया राव के अथक प्रयासों से स्त्री संघर्ष नामक संस्था ने थियेटर यूनियन नामक इकाई का गठन किया, जिनका मुख्य उद्देश्य महिला अधिकारों के प्रति जनता में जागरूकता पैदा करना था। 1980 में यूनियन थियेटर द्वारा खेला गया पहला नुक्कड़ नाटक ‘ओम स्वाहा’ दहेज हत्या पर आधारित था। यह नाटक इतना लोकप्रिय हुआ कि सभी क्षेत्रों से संगठन के पास इस नाटक को करने के अनुरोध आने लगे। 

महिला अधिकारों के प्रति जनता में जागरूकता 

नुक्कड़ नाटकों की सफलता को देखते हुए इस थियेटर ग्रुप ने दहेज हत्या के साथ सती प्रथा और पुलिस हिरासत में होनेवाले बलात्कारों को भी अपना विषय बनाया। दफा 108, पुलिस हिरासत में होनेवाले बलात्कार के मुद्दे पर आधारित पहला नुक्कड़ नाटक था। ग्रुप ने इस नाटक को कॉलेज, पार्कों के साथ उन झुग्गी बस्तियों में भी दिखाया, जहां की औरतों को पुलिस अक्सर देह व्यापार के संदेह में पकड़कर ले जाती और जेल के अंदर कई दिनों तक उनका शारीरिक शोषण करती। इस थियेटर ग्रुप की देखा-देखी देश के अन्य शहरों और गांवों में भी थियेटर कार्यशालाएं बन गयीं। इनमें माला हाशमी की जन नाट्य मंच, शमशुल इस्लाम की निशांत और आह्वान प्रमुख है। हबीब तनवीर और बादल सरकार, शमशुल इस्लाम की निशांत के कार्यकर्ता थे। इन थियेटर ग्रुप्स ने न सिर्फ अपने नाटक खुद लिखे, बल्कि झुग्गी-बस्तियों, सड़कों, पब्लिक-पार्कों, फुटपाथों और विश्वविद्यालय परिसरों में इसे करते हुए आवश्यकतानुसार इसमें परिवर्तन और संशोधन भी किये।  

नुक्कड़ नाटकों का प्रचार-प्रसार 

1991 में हेमा रैंकर के निर्देशन में 15 किसान महिला और दो पुरुष के साथ किये नाटक अबला स्त्री के आधार पर एक और नाटक सामाजिक बंधन किया। स्त्री मुक्ति संगठन ने ज्योति म्हापसंकर के निर्देशन में ‘मुलगी झाली आहे’ नामक नाटक को महाराष्ट्र के 2000 लोगों के बीच प्रदर्शित किया। इसके अतिरिक्त शिला रानी द्वारा गठित एक समूह ने तमिलनाड़ु में कन्या भ्रूण हत्या के विरुद्ध जागरूकता पैदा करने के लिए 2 महीने तक नुक्कड़ नाटक किये। कम संसाधनों के साथ कम खर्चीले और छोटे बजट में किए जा रहे इन नुक्कड़ नाटकों से स्त्री संघर्ष को मजबूती मिल रही थी। इसकी वजह यह भी थी कि लोगों को थियेटर तक लाने की बजाय ये खुद लोगों तक पहुंच रही थी। साथ ही ये नाटक, पीड़ित महिलाओं को अपना अनुभव साझा करने के लिए एक प्रभावशाली मंच भी दे रही थी। इस क्रम में वे अपने दर्शकों से एक रिश्ता कायम कर लेती थी। इन नुक्कड़  नाटकों में भाग लेने के कारण कम पढ़ी-लिखी महिलाओं को भी एक नई स्वतंत्र सामजिक पहचान बनाने का मौका मिला, जो दूसरों को प्रेरित करे हुए सामाजिक सम्मान का अनुभव कर रही थीं। 

कम पढ़ी-लिखी महिलाओं के साथ अकादमिक जगत की महिलाओं का योगदान

अनुराधा कपूर, रति बार्थोलोम्यू, माया कृष्ण राव, उषा गांगुली, त्रिपुरारी शर्मा और कीर्ति जैन जैसी महिलाओं ने नुक्कड़ नाटकों को एक माध्यम के रूप में स्त्री समस्याओं को उजागर करने के लिए एक अभिव्यक्ति प्रदान की। इनमें विशेष रूप से बी जयश्री की ‘मंथरा’, उषा गांगुली की ‘रुदाली’, अनुराधा कपूर की ‘एंटीगनी प्रोजेक्ट’, माया कृष्ण राव की ‘अ डीप फ्राइड जैम’, त्रिपुरारी शर्मा की ‘महाभारत’ से, कीर्ति जैन की और ‘कितने टुकड़े’, अमाल अल्लाना की ‘सोनाटा’, जे शैलजा की ‘थात्री’, मीता वशिष्ठ की ‘नीति मानकीकरण’, वीणा पानी चावला की ‘बृहन्नला’, नीलम मानसिंह चौधरी की ‘किचन कथा’ और मलयश्री हाशमी की ‘वो बोल उठी’ महत्वपूर्ण नाटक है। गौरतलब है कि नुक्कड़ नाटक के जरिए ये महिला समस्याओं के संप्रेषण की भाषा तो बनी हैं, लेकिन अभी इन्हें लंबा सफर तय करना है।

 

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