हमें शायद ही विस्तार से उन महिलाओं के बारे में जानकारी होती है, जिन्होंने कई योगदान दिए हैं देश की स्वतंत्रता में भी और देश को बेहतर बनाने में भी। ऐसी ही शख्सियत हैं कल्पना दत्त। आइए जानें इनके बारे में विस्तार से।
मिली वीर महिला की उपाधि

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वीर महिला के रूप में जानी जाती हैं कल्पना दत्त। दरअसल, उन्हें यह उपाधि उनके योगदान के सम्मान में दी गई थी, वर्ष 1979 में। उनकी जीवन गाथा और योगदान उन लोगों को प्रेरित करते हैं, जो स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय की लड़ाई में विश्वास करते हैं। उन्होंने अपनी जान की बाजी लगा कर देश को स्वतंत्र होने में मदद की। दरअसल, कल्पना दत्ता का जन्म ब्रिटिश भारत के बंगाल प्रांत के चटगांव जिले के एक गांव श्रीपुर में हुआ था। उनके पिता बिनोद बिहारी दत्तगुप्ता एक सरकारी कर्मचारी थे। सन 1929 में चटगांव से मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद, वे कोलकाता (तब कलकत्ता) चली गयी थी, फिर उन्होंने विज्ञान की पढ़ाई के लिए बेथ्यून कॉलेज में दाखिला लिया था। वही उन्होंने राजनीति और आंदोलन में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी और वह छत्री संघ (महिला छात्र संघ) में शामिल हो गयीं, जो कि एक अर्ध-क्रांतिकारी संगठन था, जहां उन्हें बीना दास और प्रीतिलता वद्देदार जैसी सक्रिय सदस्यों का साथ मिला। गौरतलब है कि कल्पना दत्ता ने 1940 में कोलकाता (तब कलकत्ता) विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गयीं। उन्होंने 1943 के बंगाल अकाल और बंगाल विभाजन के दौरान एक राहत कार्यकर्ता के रूप में कार्य किया। बाद में, वह भारतीय सांख्यिकी संस्थान में शामिल हो गई थीं और जहां उन्होंने अपनी सेवानिवृत्ति तक काम किया।
क्रांतिकारी रहीं
कल्पना दत्ता की उपलब्धियों की अगर फेहरिस्त तय की जाए, तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने एक क्रांतिकारी के रूप में अपनी भूमिका निभायी। साथ ही चटगांव में हमले में उन्होंने अपने देश को बचाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। वह सूर्य सेन के क्रांतिकारी समूह, इंडियन रिपब्लिकन आर्मी की एक प्रमुख सदस्य थीं और उन्होंने ब्रिटिश प्रतिष्ठानों के खिलाफ हमलों में सक्रिय रूप से भाग लिया। गिरफ्तारी और कारावास के बावजूद, स्वतंत्रता संग्राम के प्रति उनके साहस और समर्पण ने उन्हें भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में मान्यता दिलायी।
चटगांव शस्त्रागार छापा
कल्पना दत्ता ने 1930 में चटगांव शस्त्रागार छापा में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, जिसका उद्देश्य उस क्षेत्र में ब्रिटिश शासन को ध्वस्त करना था। उन्होंने इस छापा और उसके बाद ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ाई में सक्रिय रूप से भाग लिया। वहीं कल्पना क्रांतिकारी गतिविधियों में भी गंभीरता से शामिल थीं। वह अपने कामों को एक कूरियर वाली कर्मचारी के रूप में अंजाम दिया। वह गोला-बारूद और रसद अन्य क्रांतिकारियों तक पहुंचायी। कई बार अपने कामों को करने के लिए उन्होंने पुरुषों का भी वेश धारण किया।
साहसी महिला
कल्पना को हमेशा साहसी महिला माना जाता रहा। उन्हें कठोर सजा सुनाये जाने के बावजूद कदम नहीं डगमगाए। उन्हें शस्त्रागार छापा में शामिल होने के लिए उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई, लेकिन उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष जारी रखा। गौरतलब है कि भारत की स्वतंत्रता के बाद, कल्पना दत्त भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गईं और खुद को सामाजिक कार्यों के लिए समर्पित कर दिया, खासकर बंगाल के अकाल के दौरान उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया।
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