बारिश के मौसम में भुट्टे को सबसे अधिक पसंद किया जाता है। बारिश की ठंडक का स्वाद भुने हुए भुट्टे की गर्माहट से आता है। भुट्टा जिसे मक्का भी कहा जाता है और भारत में ऐसा ही एक मक्का गांव मौजूद है। उत्तराखंड का सैंजी गांव मक्का गांव के नाम से पहचाना जाता है। उत्तराखंड का सैंजी गांव इसलिए भारत का मक्का गांव कहा जाता है, क्योंकि यह पूरी तरह से मक्के की खेती पर केंद्रित रहा है। आइए जानते हैं विस्तार से।
सैंजी गांव की परंपरा

सैंजी गांव की यह सबसे खास परंपरा रही है, जहां पर घरों के बाहर सूखे मक्के को सजाना एक सदियों पुरानी परंपरा है। आप अगर वहां जायेंगे, तो देखेंगे कि पूरा गांव मक्के के भुट्टों से सजा रहता है, जो कि उनकी मुख्य फसल और पहचान का एक प्रतीक है। यह गाँव उत्तराखंड के मसूरी के पास स्थित है। गांव में मकई के फसलों को सूखने के लिए घर की दीवारों, मुंडेरों, खिड़कियों, दरवाजों आदि पर भुट्टे को टांगने की रिवायत है।
क्या है मकई की खेती का महत्व?

इस गांव की अर्थव्यवस्था को बनाए रखने में मकई की खेती का बहुत बड़ा हाथ है। आप यह भी समझ सकती हैं कि यह एक आकर्षण और सांस्कृतिक पहचान का भी हिस्सा वहां के लोगों के लिए बन गई है। यह पर्यटन के लिए खास आकर्षण की भी वजह बन गई है। भुट्टे की इस परंपरा के कारण गांव के मौसम, खेती की रीति रिवाज और जीवनशैली में मकई एक खास स्थान ले पाया है। आप यह भी कह सकती हैं कि स्थानीय लोगों की भागीदारी और ग्रामीण संस्कृति के संरक्षण से इस गांव की पहचान बन गई है।
मक्के का सांस्कृतिक महत्व

इस गांव में मक्का केवल एक फसल नहीं है, बल्कि यह गांव की संस्कृति का एक अभिन्न अंग भी बना हुआ है। ग्रामीण मक्के से बने पारंपरिक व्यंजन सिरकिया का आनंद भी लेते हैं। साथ ही मक्के और फसलों से जुड़े सारे त्योहार और उत्सव भी मनाते हैं। यहां तक कि यहां पर मक्के की जैविक खेती होती है। इस खेती को देखना भी इस गांव की सबसे बड़ी यूएसपी मानी जाती है। मक्के की इस अनूठी परंपरा ने सैंजी को एक कृषि और सांस्कृतिक पर्यटन स्थल के तौर पर लोकप्रिय कर दिया है।
मक्के की खेती
इस क्षेत्र में मकई की फसल अगस्त‑सितम्बर में कटती है और मकई की भुट्टियाँ (corn cobs) घरों के बाहर टांगे जाते हैं ताकि सर्दियों के दौरान अच्छी तरह सूख जाएँ। ये भुट्टियाँ अगले सीज़न के बीज के रूप में प्रयोग की जाती हैं। खेतों में रोटेशन (फसल चक्र) अपनाया जाता है, और रासायनिक की जगह प्राकृतिक खाद / गोबर आदि का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा मक्के के गुच्छों को पारंपरिक तरीके से घरों की बालकनियों, खिड़कियों, दरवाजों के चारों तरफ टांगा जाता है। सैंजी और आसपास के गांव पहाड़ी क्षेत्र में हैं जहाँ मौसम ऐसा है कि मकई को प्राकृतिक हवा और धूप में सुखाने का अनुकूल वातावरण मिलता है। यह परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है और जैविक खेती, बीज संरक्षण की स्थानीय जरूरतों और परंपरागत ज्ञान से जुड़ी है।
भारत में ऐसी जगहें जहां है मक्के की परंपरा

सैंजी के अलावा उत्तराखंड के जौनसेर क्षेत्र में भी मक्के की खेती की परंपरा है। जहां पर मकई की फसले काटने के बाद घरों के बाद उसे टांगा जाता है। मध्य प्रदेश के कटनी जिले में भी मकई की खेती व्यापक स्तर पर होती है। महाराष्ट्र के सांगली जिले में अंगूरों को सूखाकर किशमिश बनाई जाती है। तमिलनाडु में केला और अन्य फल सूखाने की परंपरा है।