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दुर्गा पूजा का महत्व और उसकी विशेषताएं

टीम Her Circle |  अक्टूबर 09, 2024

भव्य वास्तुकलाओं के साथ समृद्ध परंपरा, सुंदर संगीत और कला के अनूठे शहर कलकत्ता के साथ पूरा पश्चिम बंगाल ही नहीं, बल्कि पूरा भारत ‘दुग्गा-दुग्गा’ की आवाजों से गूंज उठा है। आइए जानते हैं पूरे भारत में दुर्गा पूजा के साथ उसकी विशेषताएं।

बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है दुर्गा पूजा

आम तौर पर नवरात्रि के दौरान पूरे भारत में मां दुर्गा के स्वागत के तौर पर मनाया जानेवाला यह उत्सव दुर्गा पूजा के नाम से पश्चिम बंगाल सहित असम, बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, मणिपुर और त्रिपुरा में बड़े ही व्यापक रूप से मनाया जाता है। बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के तौर पर जहां एक तरफ मां दुर्गा द्वारा, महिषासुर की मृत्यु को उत्सव के रूप में मनाया जाता है, वहीं राम द्वारा रावण के खात्मे को विजयादशमी के रुप में मनाने की परंपरा है। दुर्गा पूजा की शुरुआत होती है श्राद्ध पक्ष के आखिरी दिन अर्थात सर्वपितृ अमावस्या से, जिसे महालया भी कहते हैं। माना जाता है कि इस दिन देवी दुर्गा अपने बच्चों के साथ अपनी मां के घर जाने के लिए निकलती हैं और दसवें दिन अर्थात विजयादशमी के दिन अपने पति शिव से मिलती हैं। दुर्गा पूजा की बात करें तो पश्चिमी भारत के अलावा अब दुर्गा पूजा उत्सव दिल्ली, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, कश्मीर, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल ही नहीं बल्कि नेपाल, बांग्लादेश और भूटान जैसे पड़ोसी देशों में भी इसे बड़े ही धूमधाम से मनाया जाने लगा है। गौरतलब है कि प्रवासी आसामी और बंगालियों द्वारा अब इसे अमेरिका, कनाडा, यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैंड और सिंगापुर के साथ कुवैत जैसे देशों में भी मनाया जाता है। यही वजह है कि वर्ष 2021 में कोलकाता के दुर्गा पूजा को यूनेस्को की सांस्कृतिक धरोहर की लिस्ट में शामिल किया गया है।

पूरे भारत की पहचान है दुर्गा पूजा 

अगर यह कहें तो गलत नहीं होगा कि स्वतंत्रता की लड़ाई में दुर्गा पूजा ने पूरे भारत को जोड़ते हुए स्वतंत्रता आंदोलनों के प्रतीक की भूमिका निभाई थी। इस तरह पूरे भारत में अपनी छाप छोड़ चुके दुर्गा पूजा को गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, केरल और उत्तर प्रदेश के कुछ प्रांतों में नवरात्रि के रूप में पहचान मिली है, तो  हिमाचल प्रदेश के कुल्लू घाटी में कुल्लू दशहरा, कर्नाटक के मैसूर में मैसूर दशहरा, तमिलनाडु में बोमाई गोलू और आंध्र प्रदेश में बोमाला कोलुवू के रूप में मनाया जाता है। नौ दिनों के नवरात्रि उत्सव में दुर्गा पूजा का उत्सव मूल रूप से 5 दिनों का होता है, जिसके लिए पूरे पश्चिमी भारत में पांच दिनों की छुट्टियां होती हैं। इस दौरान जगह- जगह बने दुर्गा पूजा के पंडाल आम तौर पर धुनुची की सुगंध, ढाक से आनेवाली तीव्र ताल की आवाजों के साथ बंगाली व्यंजनों की खुशबू से भरे होते हैं। अपने भक्तों के बीच अपने पूरे परिवार के साथ रहनेवाली मां दुर्गा न सिर्फ उनकी हर मनुहार को मानती हैं, बल्कि पूरे वर्ष उनकी रक्षा करने का आशीर्वाद भी देती हैं। 

दुर्गा पूजा की विधियां और रीती-रिवाज

नवरात्रि के छठवें दिन अर्थात षष्ठी से शुरू होनेवाले दुर्गा पूजा का पहला दिन देवी दुर्गा के अपने घर आने का प्रतिक है, जिसे बोधोन पूजा भी कहते हैं। चमकीले आभूषणों के साथ चमकीली साड़ी और सिंदूर से सजी देवी दुर्गा को ढाक के संगीत के साथ लाया जाता है। उसके बाद सप्तमी, अष्टमी और नवमी को देवी दुर्गा का जागरण होता है। सप्तमी समारोह का शुभारंभ ‘नाबापात्रिका स्नान’ नामक भोर से पूर्व स्नान से शुरू होता है। इस अनुष्ठान को मूल रूप से ‘कोला बाऊ’ यानी केले की दुल्हन भी कहा जाता है। एक तरफ जहां कोला बाऊ को गणेश की पत्नी का दर्जा दिया गया है, वहीं दूसरी तरफ उन्हें देवी दुर्गा के नौ प्राकृतिक पौधों के रूप में भी दर्शाया जाता है। अष्टमी या महा दुर्गाष्टमी, दुर्गा पूजा का सबसे बड़ा और भव्य दिन होता है। नए कपड़ों के साथ नए आभूषणों से सजकर पूरा परिवार, देवी दुर्गा के पंडाल की तरफ जाते हैं। अष्टमी के आखिरी 24 मिनट और नवमी के पहले 24 मिनट को सोंधी यानी पवित्र समय माना जाता है। नवमी के दिन आम तौर पर बलि और हवन का होता है, जिसमें कद्दू की बलि दी जाती है और शाम को धुनुची नृत्य के साथ हवन का समापन होता है। दशमी के दिन जब देवी दुर्गा अपने घर जाने के लिए निकलती हैं, तो महिलाएं सिंदूर, सुपारी और मिठाई के साथ उन्हें विदाई देती हैं और अपने परिवार की सलामती के लिए दुर्गा से प्रार्थना करते हुए सुहाग के प्रतीक सिंदूर को एक-दूसरे के गाल और मांग में भरती हैं, जिसे सिंदूर खेला के नाम से जाना जाता है।     

देवी दुर्गा और दुर्गा पूजा से जुड़ी किंवदंतियां 

किंवदंतियों के अनुसार मां दुर्गा की रचना ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने मानव जाति की रक्षा के लिए की थी। दरअसल महिषासुर नामक असुर ने देवताओं को हराने के लिए ब्रह्मा से वरदान पाने के लिए कड़ी तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उसे वरदान दिया कि उसकी मृत्यु मनुष्य और देवताओं की बजाय सिर्फ एक औरत के हाथों हो सकती है। औरत को कमजोर माननेवाले महिषासुर ने वरदान की धुन में पूरे ब्रह्माण्ड पर अपना एकछत्र राज्य कायम करने के लिए हर जगह उत्पात मचाना शुरू कर दिया। स्वर्ग में इंद्रासन के लिए असुरों और देवताओं के बीच घनघोर लड़ाई हुई और इस लड़ाई में देवता हार गए। अपनी हार से अपमानित देवताओं ने इंद्रासन पाने और महिषासुर से बदला लेने के लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश से मदद मांगी और तीनों ने अपनी शक्तियों द्वारा एक शक्तिशाली महिला का निर्माण किया, जो देवी दुर्गा कहलाईं। महिषासुर से लड़ने के लिए हर देवता ने जहां देवी दुर्गा की अष्टभुजाओं में अपने-अपने शस्त्र दिए, वहीं हिमालय के देवता हिमवत ने उन्हें सवारी के लिए एक शेर दिया। अपनी पूरी शक्तियों के साथ देवी दुर्गा ने महिषासुर पर धावा बोल दिया। 10 दिन चले इस भीषण युद्ध में महिषासुर लगातार रूप बदलकर देवी दुर्गा को भ्रमित करने का प्रयास करता रहा, लेकिन देवी दुर्गा उसके हर रूप से परिचित थी। आखिरकार जैसे ही महिषासुर ने भैंसे का रूप लेकर उन पर हमला करना चाहा, देवी  दुर्गा ने जरा भी देर न करते हुए उसका सिर, धड़ से अलग कर दिया।

वेश्यालय की पुण्य माटी से बनती हैं दुर्गा की प्रतिमा

दुर्गा पूजा के दौरान विभिन्न पंडालों में विराजमान देवी दुर्गा की प्रतिमा का निर्माण भी पश्चिम बंगाल की सांस्कृति विरासत बन चुकी है। हुगली नदी के तट पर बसा कुमारतुली, उत्तरी कोलकाता का वह इलाका है, जहां पूरे वर्ष देवी दुर्गा की प्रतिमा बनाई जाती है। माना जाता है कि अंग्रेजों ने अपनी ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए कुम्हारों की सारी जमीनें छीन ली, तब कुछ कुम्हार अपनी आजीविका के लिए यहां आकर बस गए और मिट्टी के बर्तनों के साथ दुर्गा की मूर्तियां भी बनाने लगे। इस तरह कई पीढ़ियों से यहां के कुम्हार मूर्तिकार, दुर्गा पूजा के लिए देवी दुर्गा की मूर्तियां बनाते आ रहे हैं। दुर्गा की मूर्ति बनाने के लिए विशेष रूप से बांस, पुआल, भूसी और पुण्य माटी का प्रयोग किया जाता है। इनमें पुण्य माटी का अर्थ है पवित्र गंगा नदी के किनारे की मिट्टी के साथ गोबर, गोमूत्र और वेश्यालय की मिट्टी का मिश्रण। देवी दुर्गा की मूर्ती बनाते समय वेश्यालय की मिट्टी बेहद जरूरी है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ये महिलाएं नौ वर्गों के अंतर्गत आती हैं, जिन्हें नौ कन्याओं के रूप में पूजा जाता है। ऐसे में उनके आंगन की मिट्टी को पूरे सम्मान के साथ देवी दुर्गा की मूर्ती वाली मिट्टी में मिलाकर देवी दुर्गा की मूर्ति बनाई जाती है।

दुर्गा पूजा का समृद्ध और गौरवशाली इतिहास 

महिषासुर मर्दिनी के नाम से पहचानी जानेवाली देवी दुर्गा ने जहां दसवें दिन महिषासुर का अंत किया था, वहीं राम-रावण युद्ध भी दस दिन चला था और दसवें दिन रावण की मृत्यु के साथ बुराई पर अच्छाई की जीत के तौर पर विजयादशमी का त्यौहार मनाया जाने लगा। हालांकि साहित्य की बात करें तो 15वीं शताब्दी में कृत्तिवासी द्वारा लिखे गए रामायण में जहां रावण के युद्ध से पहले राम द्वारा 108 नीलकमलों के साथ 108 दीपों से दुर्गा की पूजा करने का वर्णन मिलता है, वहीं 16वीं शताब्दी में पश्चिम बंगाल के जमींदारों द्वारा दुर्गा पूजा के भव्य उत्सवों का उल्लेख मिलता है। हालांकि 16वीं शताब्दी से लेकर 21 शताब्दी तक, इन 5 शताब्दियों में दुर्गा पूजा से जुड़ी इस परंपरा में कोई बदलाव नहीं आया है। बंगाल के जमींदारों के साथ, बड़े घरानों में आज भी उनकी हवेलियों के आंगन में दुर्गा पूजा का उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है और इस उत्सव में शामिल होने आए सभी लोगों को पूरे मान-सम्मान से दुर्गा का भोग खिलाया जाता है। हालांकि हुगली नदी के पश्चिमी तट पर स्थापित बेलूर मठ में होनेवाली दुर्गा पूजा काफी लोकप्रिय है, जिसकी शुरुआत 1901 में स्वामी विवेकानंद ने की थी। 

 

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