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रहन-सहन

'खुशियों' की इंस्टेंट डिलीवरी चाहिए या 'सुकून' वाली लग्जरी तो साल में एक बार ट्रेन यात्रा करके देखिए

अनुप्रिया वर्मा |  जून 14, 2024

सहूलियत से भरी यात्रा से इतर, एक सुकून भरी यात्रा करने का मौका हाल ही में हुआ, जब मुंबई से जोधपुर की यात्रा हमने ट्रेन से की। 15 घंटे के इस सफर में, कुछ अनोखे अनुभव मिले, अनोखे इस लिहाज से कि इस दौर में सबकुछ इंस्टेंट मिलने की होड़ में एक तसल्ली, चीजों की कम बर्बादी और लोगों के पास, दूसरे लोगों के लिए कुछ फुर्सत के पल थे साझा करने के। तो, क्यों जरूरी है साल में कम से कम एक बार भारत में ट्रेन की यात्राएं करना, जो भी खास अनुभव रहे हैं, उन्हें यहां ज्यों का त्यों साझा कर रहे हैं। 

एक बड़े से थरमस( पानी का बोतल) में घर का पानी, शायद सप्लाई वाला ही पानी, वह दौर प्यूरीफाइड पानी का नहीं था, शायद तब मिलावट भी इतनी नहीं थी। वह थरमस आज भी कहीं घर के छज्जे में रखा होगा, उस थरमस का बाहर निकलना ही इस बात पर मुहर होती थी कि अब ट्रेन यात्रा होने वाली है। घर में ठेकुआ, नमकीन और न जाने कितनी सारी चीजें बन जाया करती थीं। झोले में भर लिए जाते थे और पता नहीं दिन से रात, रात से दिन कब हो जाती थी। हम नानी के घर पहुंच जाया करते थे। कभी-कभी जेहन में एक बात आती है कि क्या तब ट्रेन ज्यादा तेज गति से भागती थी, जो 24 से 25 या शायद उससे भी ज्यादा घंटे पलक झपकते ही बीत जाया करते थे, तब तो कोई सोशल मीडिया भी नहीं था, फिर आज जैसी बोरियत क्यों नहीं होती थी। मुझे याद है ट्रेन में ऊपर की बॉगी पर जाना अपने आप में एक रोमांच होता था, फिर उस पर से नीचे उतरना, आस-पड़ोस के यात्रियों के साथ गप्पे लड़ाना, खाना-पीना शेयर करना। रेल यात्राओं का यही तिलिस्म होता था न शायद, लेकिन धीरे-धीरे अब संसाधन और सबकुछ जल्दी से बिना किसी मशक्कत के पा लेने की जल्दी ने इन यात्राओं को बेस्वाद कर दिया है। मगर, पिछले दिनों लंबे समय के बाद, ट्रेन से 17 घंटे के सफर पर जाने का मौका मिला, तो लगा जैसे बचपन की गलियों में अचानक गोलगप्पे खाने आ गई हूं। मुंबई से जोधपुर के इस सफर में एक बार फिर से कई पुरानी यादें ताजा हुईं, लेकिन मैं जिस भ्रम में थी कि बहुत कुछ बदल चुका होगा। वह भ्रम टूटा। मुझे इस बात से बेहद तसल्ली हुई कि भले ही ट्रेन अपनी तेज गति से भाग रही थी, लेकिन वहां 17 घंटे में मैंने छोटा ही सही जो भारत देखा, वह आज भी कुछ-कुछ वैसा नजर आया, जो मेरे बचपन के संस्मरण में कैद है। ट्रेन गति में थी, लेकिन लोगों में एक ठहराव महसूस किया मैंने। एक और बात जो बिल्कुल नहीं बदली, वह थी राजनीति, सिनेमा और क्रिकेट के एक्सपर्ट ठीक उतने ही हैं, जितनी संख्या भारत में अब ट्रेन की हो गई होगी। बहरहाल, मैंने कई सालों के बाद  ट्रेन से की गई यात्रा में जो देखा, सुना, महसूस किया, उसे यहां शेयर कर रही हूं कि क्यों जरूरी है भारत में रेल यात्राओं के दौर का कभी न खत्म होना और क्यों ये यात्राएं आज भी आपको बेहतर इंसान बनाती हैं। 

जब निकले टिश्यू पेपर की जगह सूती कपड़े और स्टील के बर्तन

इस दौर में जहां शायद टिश्यू पेपर का इस्तेमाल आंसू पोंछने से अधिक बर्बाद करने के लिए होता है। इस बार की ट्रेन यात्रा ने दर्शाया कि आप यात्राओं में आज भी इसका इस्तेमाल कम से कम करके सस्टेनेबल बन सकते हैं, जी हां, मेरे ठीक सामने बैठीं एक महिला ने खाने के लिए जहां स्टील की प्लेट निकाली और उसे साफ करने के लिए सूती कपड़ों के टुकड़े निकाले, यह मेरे लिए आज के दौर में एक अजूबे वाली बात थी, जबकि यह सामान्य सी आदत है, जिसे हम भूल चुके हैं, निश्चित तौर पर हम कंफर्ट की तरफ जा रहे हैं और ऐसे में टिश्यू और कागज के प्लेट्स हमारे लिए आसान होंगे। लेकिन, इसके बावजूद उन महिला का अब भी इस तरह से जीवनशैली बरकरार रखना इंस्पायर कर जाता है कि थोड़ी सी ही, लेकिन पुरानी आदतें किस तरह हमें पर्यावरण के अनुकूल बना देती है। 

खाना नहीं एक दूसरे के साथ शेयर करना 

हम और हमारी चार लोगों की टीम में से किसी ने भी घर से खाना नहीं लाया था, हम एक दूसरे के बीच जब फूड एप्स-फूड एप्स खेल रहे थे, उस वक्त एक दूसरी महिला, जो अब पर नानी भी बन चुकी हैं और पर दादी, उन्होंने अपना फूड एप निकाला, मेरा मतलब उनके खाने के पिटारे से भरे झोले से है, जिसमें घर का शुद्ध खाना, मीठा और अचार शामिल था और एक-एक करके, बिना कुछ अधिक बोले, हम चारों में बांट दिया। और हम अब तक इसी सोच में थे कि मंगाएं क्या, हमने मना करने की कोशिश भी कि तो उन्होंने एक परिवार के बुजुर्ग की तरह अपनी बातें रखी कि तुम्हारा जो फूड एप है, समझ लो वहीं से इंस्टैंट डिलीवरी हुई है। और हम सभी उनकी मिठास की बोली के साथ, खाना कब चट कर गए, हमें पता नहीं चला। हमारी ही टीम की एक दोस्त को चाय की तलब हुई, वह भी घर वाली, यकीन मानिए, उन्हीं आंटी के किसी रिश्तेदार ने घर की बनी चाय भी पहुंचा दी। इस पूरे वाकये से, वाकई इस बात पर फिर से यकीन होता है कि भारत की संस्कृति, समाज की अब भी बड़ी जीत, यही बातचीत की कला है। अब भी लोग एक-दूसरे की मदद बिना मांगे कर देते हैं। सच कहूं, तो मेरे आँखों के सामने मेरी बिल्डिंग की लिफ्ट नजर आयी, जहां अंदर जाने के लिए एक मिनट का भी इंतजार दूसरा नहीं करता है और फौरन बटन दबा देता है, जैसे उन पांच मिनट में उनकी दुनिया कुछ अद्भुत ही हो जाने वाली है,तो दूसरी तरफ यहां किस इत्मीनान से लोग एक दूसरे का सहयोग करने के लिए आतुर हैं, एक विश्वास फिर से प्रखर हुआ कि अच्छाई बनी हुई है और अच्छे लोग अब भी हैं। 

मोबाइल यात्रियों के अनुसार चार्जर थे, लेकिन मोबाइल पर कोई नहीं था 

इस सफर की जो एक अच्छी और अनोखी बात यह भी थी कि इस सफर में मैंने गौर किया कि रेलवे ने यात्रियों की जरूरत को समझते हुए कि हर यात्री को इस वक्त ट्रेन में भी अपना भरपूर मील खाने से अधिक जरूरी मोबाइल चार्ज करना लगता है, उन्होंने हर बर्थ के हिसाब से चार्जर अब बॉगी में उपलब्ध करा दिए हैं, लेकिन मुझे तो ऐसा लगने लगा कि मैं कहीं डायनासोर वाले दौर में तो नहीं पहुंच गई हूं। मेरे लिए हैरत की बात थी कि वहां बैठे हमारे सहयात्रियों में महिला, बच्चे, बुजुर्ग और बैचलर भी थे, लेकिन जब हम सबकी आपस में बातचीत शुरू हुई, तो सबने खुद से जुड़े किस्से सुनाये और सिलसिला ऐसा चला कि यकीन नहीं हुआ कि आज के दौर में हम बातों में इस तरह से घुल-मिल गए थे कि दो घंटे तो आराम से किसी ने फोन को हाथ नहीं लगाया। एक अलग सा सुकून था शायद यह भी, जो लंबे अरसे बाद महसूस किया था। 

 

ट्रेन यात्रा इसलिए भी करना चाहिए कि आपको कई संस्कृति, कई मिजाज के लोगों से मिलने और जुलने का मौका मिलता है, जिसे कॉर्पोरेट टर्म में नेटवर्किंग कहते हैं, ट्रेन की यात्राओं में आपको यह स्किल अच्छे से सीखने का मौका मिलेगा, जी हां, इस यात्रा में हमारी मुलाकात एक ऐसे ट्रैवलर से हुई, जो कि किफायती खर्च में कई ऐसी जगहों की यात्रा कर चुकी हैं, जिन्हें हमने कभी एक्सप्लोर नहीं किया है और उनके बारे में अधिक नहीं सुना है। 32 साल की यह लड़की 17 देशों में अब तक घूम चुकी थीं और वह भी पूरे बजट में, उनके अनुभव अपने आप में अनोखे रहे हैं, उन चंद घंटों की यात्रा में उनके अनुभवों के साथ-साथ हमें भी अन्य देशों की सैर करने का मिल गया मौका। 

और फिर दौर चला अंत्याक्षरी का

अंत्याक्षरी का जो मिजाज हुआ करता था। दो लाइन ना, ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे , अगला गाना ठ से वाला दौर अब रील्स और दर्जनों सांग एप्स के बीच कहीं खो चुके हैं, लेकिन इस बार की रेल यात्रा में उस उत्साह को फिर से जिया और महसूस किया और यकीन मानिए रील्स स्क्रॉल वाली जो लत है, उससे कुछ हद तक ही निजात पाकर एक अलग से सुकून का एहसास हुआ।

 

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