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होम / एन्गेज / रहन-सहन / डेकोर

मां दुर्गा से खास कनेक्शन है इन पौधों का

टीम Her Circle |  अक्टूबर 01, 2025

मां दुर्गा का एक जुड़ाव पर्यावरण से भी रहा है और इसलिए पश्चिम बंगाल में धूमधाम से इस कनेक्शन का जुड़ाव महसूस किया जाता है। मां के शृंगार से लेकर पंडाल की साज-सज्जा में क्यों इस्तेमाल होता है तरह-तरह के पौधों और पेड़ों का। आइए जानें विस्तार से। 

केले के पत्ते 

आपने गौर किया होगा मां दुर्गा के लिए विशेष रूप से केले के पत्ते का उपयोग उनके पूजन से लेकर सजावट तक में किया जाता है, कुंवारी कन्याओं का भोजन भी केले के पत्ते में किया जाता है। इसकी  वजह यह है कि केले के पत्ते को भी मां दुर्गा का अति प्रिय और ईको-फ्रेंडली माना जाता है और साथ केले के पत्ते की देवी भी कहा जाता है और इसकी खासियत यह है कि इन्हें लोगों पर करूणा बरसाने वाली भी माना जाता है और यह पत्ता इसका ही प्रतीक होता है, यह प्रजनन, समृद्धि और संपूर्णता को भी दर्शाता है। यह पत्ता देवी ब्रह्माणी का प्रतिनिधित्व करता है और इनका इस्तेमाल मां और पंडाल के साज-शृंगार में इस्तेमाल किया जाता है। 

कच्चू या अरबी या अरुई 

कच्चू या कोचू को मां का अति प्रिय पौधा माना जाता है, साथ ही यह काली के लिए खास माना जाता है, इसलिए उनके पंडाल में जरूर इन्हें सजाया जाता है। दरअसल, इन्हें काली की निडरता का प्रतीक माना जाता है। इसके विशाल पत्ते काली की निडरता को दर्शाने का प्रतीक माने जाते हैं। इसलिए इसके पत्ते का इस्तेमाल काली मां की पूजा में जरूर की जाती है। साथ ही यह विनाश से बचाव का भी प्रतीक माना जाता है। यह दुर्गा के एक अन्य रूप, ऐन्द्री का प्रतीक भी माना जाता है। 

हल्दी या हालूद 

हल्दी और हालूद का इस्तेमाल भी मां के शृंगार में किया जाता है। साथ ही पूजा के हर सजावट में जिनमें अल्पना भी शामिल हैं, हल्दी या हालूद का अंदाज खास है, यह भी लगभग हर पूजा में इस्तेमाल की जाने वाली पत्तियां हैं और इनका भी देवी दुर्गा से खास कनेक्शन रहता है। देवी दुर्गा किस तरह पवित्रता, उपचारात्मक  और शुभ चीजों के प्रतीक के रूप में जानी जाती है, यह पौधे इस बात को भी दर्शाते हैं। 

जयंती  

जयंती के पौधे और मां दुर्गा में कुछ इस तरह का कनेक्शन माना जाता है कि यह इस बात का सूचक हैं कि किस तरह से दुर्गा पापों का अंत करती हैं और विजय होती हैं और साथ ही जो भी विनाशकालीन शक्ति हैं, उनका विनाश करती हैं और साथ ही बुराई पर अच्छाई के जीत को दर्शाने की कोशिश करती हैं। यह देवी दुर्गा की जीत का प्रतीक माना जाता है। 

बिल्वा 

बिल्वा को भी देवी के शृंगार का बेहद खास हिस्सा माना जाता है। इन्हें काफी पवित्र तो माना ही जाता है, साथ ही इसे भगवान शिव और गौरी का भी प्रिय माना जाता है। बिल्वा को लक्ष्मी का भी प्रतीक माना जाता है और इसलिए भी पूजा में इनका बेहद उपयोग होता है। 

अन्य पौधे  

अगर अरुम की बात की जाए, तो इसे ज्ञान की देवी महासरस्वती का प्रतीक माना जाता है और इसलिए भी अरुम का इस्तेमाल दुर्गा पूजा में बेहद शौक से किया जाता है। वहीं अनार का पौधा प्रचुरता और उर्वरता का प्रतीक माना जाता  है, तो  अशोक का पौधा: करुणा और प्रेम का प्रतीक और धान के पौधे को देवी को भूमि और कृषि से जोड़े जाने के प्रतीक के रूप में लिया जाता है। यह सारे प्रतीक जीवन और नवीनीकरण का प्रतीक माने जाते हैं और  पौधे, अपनी वृद्धि और जीवनदायी गुणों के साथ, मां दुर्गा के पोषणकारी पहलू का प्रतीक हैं, जो जीवन की रक्षा और संवर्धन करती हैं। वहीं भोग में पवित्र तुलसी और लाल गुड़हल के फूल जैसे पौधे अक्सर मां दुर्गा को अर्पित किए जाते हैं, क्योंकि मां को यह अति प्रिय है। अब अगर गौर करें, तो त्योहारों में पौधों का उपयोग प्रकृति के महत्व को दर्शाता है, जो पृथ्वी के प्रति सम्मान और दिव्य आशीर्वाद का प्रतीक है। वहीं कोला बौ दुर्गा पूजा के दूसरे दिन (महा सप्तमी) नवपत्रिका को लाल और सफेद साड़ी से सुसज्जित करके भगवान गणेश के बगल में रखा जाता है, जिससे इसे कोला बौ (गणेश की पत्नी) की स्नेहपूर्ण उपाधि मिलती है। अगर हम प्रकृति से जुड़ाव की बात करें, तो उत्सवों में पौधों और प्रकृति को बुनने का कार्य देवी को प्राकृतिक दुनिया और जीवन चक्र से जोड़ता है, इस विचार को पुष्ट करता है कि दिव्य स्त्री स्वयं पृथ्वी का प्रतीक है। वहीं अगर नीम और गुड़हल के पौधे की बात करें, नीम के पत्तों का उपयोग उनके शुद्धिकरण गुणों के कारण अनुष्ठानों में किया जाता है। 

प्रकृति की प्रतीक दुर्गा 

प्रकृति को दुर्गा का अवतार माना जाता है, विशेष रूप से मां शैलपुत्री (हिमालय की पुत्री), जो नवरात्रि उत्सव के दौरान पूजी जाने वाली देवी का पहला रूप है। नवरात्रि शरद ऋतु में आती है, जब प्रकृति का सौंदर्य अपने चरम पर होता है और फसलें कट रही होती हैं। प्राचीन काल में, प्रकृति को उसकी समृद्ध फसलों के लिए पूजनीय माना जाता था, और पूजा का यह आदिम रूप दुर्गा पूजा के रूप में विकसित हुआ, जहां प्रकृति के नौ पवित्र तत्वों का प्रतिनिधित्व करने वाले नवपत्रिका अनुष्ठानों को उत्सवों में शामिल किया जाता है।

 

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