हर वर्ष 11 सितंबर को राष्ट्रीय वन शहीद दिवस मनाया जाता है। इसे अमृता देवी के बलिदान दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। उनके नेतृत्व में 363 बिश्नोई लोगों ने राजस्थान के खेजड़ली गांव में खेजड़ी के पेड़ों को बचाने के लिए अपना बलिदान दे दिया था। आइए जानें विस्तार से जानते हैं आखिर यह दिन क्यों है महत्वपूर्ण।
क्यों मनाया जाता है राष्ट्रीय वन शहीद दिवस

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राष्ट्रीय वन शहीद दिवस हर साल 11 सितंबर को मनाया जाता है। दरअसल, इस दिन का बहुत अधिक महत्व इसलिए भी है, क्योंकि वन और वन्यजीवों की सुरक्षा के दौरान अपने जीवन का सर्वोच्च बलिदान देने वाले वन से जुड़े अधिकारियों और कर्मियों के साहस को याद किया जाता है। इस दिवस की शुरुआत 2013 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा खेजड़ली नरसंहार के महत्व को स्वीकार करते हुए की गई थी, जिसमें 1730 में खेजड़ली गांव के 363 बिश्नोई लोगों ने अमृता देवी बेनीवाल बिश्नोई समुदाय के नेतृत्व में पेड़ों को कटने से बचाने के लिए अपनी जान दे दी थी। वह वृक्ष रक्षा के लिए प्राण देने वाली पहली महिला बनीं।
कौन हैं अमृता देवी और क्या है उनका योगदान
अमृता देवी को पर्यावरण की रक्षक के रूप में जाना जाता है। उन्होंने पेड़ों को कटने से बचाने के लिए आंदोलन किया था और निडर रहते हुए वह किसी से भी नहीं डरी थी। हुआ यह था कि सन 1730 में, जोधपुर के महाराजा ने खेजड़ी के पेड़ों को कटवाने का आदेश दिया था, लेकिन बिश्नोई समुदाय ने अपने पेड़ों की रक्षा करने का प्रण लिया और पेड़ों को कटने से बचाने के लिए उन्होंने इसका विरोध किया। अमृता देवी, वह महिला हैं, जिन्होंने पेड़ों से लिपटकर उन्हें कटने से बचाने की कोशिश की, लेकिन राजा के सैनिकों ने उनकी हत्या कर दी। दुखद यह है कि उनके बाद, उनकी दो बेटियों सहित गांव के कुल 363 लोगों ने पेड़ों को बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। अमृता देवी ने कहा था ‘सिर साटे, रूंख रहे, तो भी सस्तो जांण’, जिसका अर्थ है, "यदि किसी व्यक्ति की जान की कीमत पर भी एक पेड़ बचाया जाता है, तो वह सही है।’ गौरतलब है कि यह दौर 27 दिन तक अनवरत चलता रहा। इस घटना की जानकारी मिलने पर महाराजा ने अपना आदेश वापस ले लिया और पेड़ न काटने का आदेश दिया। उस दिन से अमृता देवी का नाम अमर माना जाता है। किंवदंती के अनुसार, बेनीवाल ने एक पेड़ को गिरने से बचाने के लिए उसके तने के चारों ओर अपनी बाहें डाल दीं और जवाब में, राजा के आदमियों ने उनका सिर काट दिया था।
क्या है खेजड़ी के पेड़ का महत्व
दरअसल, खेजड़ी का पेड़ बिश्नोई समुदाय के जीवन में एक विशेष स्थान रखता है और यही वजह है कि इसकी शाखाओं को काटना या छांटना वर्जित माना जाता है। इस छोटे से सदाबहार पेड़ को थार रेगिस्तान की जीवन रेखा माना जाता है। यह छाया प्रदान करता है और साथ ही इसकी पत्तियां कई पशुओं का आहार हैं। इसलिए, खेजड़ी को रेगिस्तान की देवी माना जाता है और यह रेगिस्तान के लिए अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी का भी रूप है।
प्रेरणा बनीं कई आंदोलन की

गौरतलब है कि चिपको आंदोलन की नींव बाद में पड़ी और महिलाओं ने इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, तो अमृता देवी को ही उन्होंने अपनी प्रेरणा माना, दरअसल चिपको आंदोलन एक अहिंसक पर्यावरण आंदोलन था ,जो 1970 के दशक की शुरुआत में भारतीय हिमालय में शुरू हुआ था, जहां खासकर महिलाएं, लकड़हारों द्वारा पेड़ों को काटे जाने से बचाने के लिए उनसे लिपट जाती थीं। महात्मा गांधी के दर्शन से प्रेरित इस आंदोलन का उद्देश्य वनों की रक्षा, पारंपरिक अधिकारों की पुनः प्राप्ति और पारिस्थितिक जागरूकता को बढ़ावा देना था। अमृता देवी को इस बात का भी श्रेय जाता है कि उन्होंने महिलाओं को इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने के लिए एक प्रेरणास्रोत का काम किया। इनके अलावा, झारखंड में ‘जंगल बचाओ’ आंदोलन की भी नींव पड़ी, तो कर्नाटक के पश्चिमी घाट में अप्पिको चालुवली और इसी तरह के अन्य विरोध प्रदर्शन हुए। इन सभी का उद्देश्य प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण और सुरक्षा करना था और इसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक समुदायों में बदलाव आया।
पुरस्कार आयोजन
गौरतलब है कि वर्ष 1978 से खेजड़ली दिवस मनाया जाता है और यह भी दिलचस्प जानकारी है कि भादप्रद दशमी को हर साल खेजड़ली का मेला अमृतादेवी की स्मृति में लगता है। इस मौके पर भारत सरकार द्वारा वन्य जीव संरक्षण के लिए अमृता देवी बिश्नोई वन्यजीव सुरक्षा पुरस्कार देती है, जिसमें वन्यजीव सुरक्षा में शामिल व्यक्तियों और संगठनों को पुरस्कार के रूप में राशि दी जाती है
होता है पौधारोपण
अमृता देवी को उनके समुदाय में देवी के रूप में पूजा जाता है और हर वर्ष उनकी शहादत को याद करते हुए 11 सितंबर को वृक्षारोपण किया जाता है और साथ ही साथ उनके सम्मान में पौधरोपण भी किया जाता है देश के कई हिस्सों में।
ये महिलाएं जुड़ी हैं पर्यावरण बचाने में
गौरतलब है कि वंदना शिवा, अलमित्रा पटेल, कांदोनी सोरेन, डॉक्टर कृति और लिसिप्रिया कंगुजम उन महिलाओं के नाम हैं, जो वन सुरक्षा समिति का नेतृत्व करती हैं और जंगल माफियाओं के खिलाफ सक्रिय रूप से काम करती हैं।
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