एवरेस्ट पर सफलतापूर्वक कदम रखने वाली दुनिया की 5वीं महिला बछेंद्री पाल महिलाओं और युवाओं के लिए साहस और दृढ़ता का प्रतीक हैं। आइए जानते हैं बछेंद्री पाल के गरिमामयी व्यक्तित्व से जुड़ी कुछ और बातें।
प्रारंभिक जीवन और सपने

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वर्ष 1954 में उत्तराखंड के नाकुरी उत्तरकाशी में जन्मीं बछेंद्री पाल के पिता खेतिहर थे और खेती के साथ छोटे-मोटे व्यवसाय के जरिए अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। अपने परिवार को आर्थिक रूप से मजबूती दिलाने के लिए बछेंद्री पाल ने बी.एड. तक की पढ़ाई पूरी की, लेकिन मेधावी और प्रतिभाशाली होने के बावजूद उन्हें कोई अच्छा रोजगार नहीं मिला। जो मिला वह अस्थायी, जूनियर स्तर का था और वेतन भी बहुत कम था। इससे बछेंद्री पाल काफी निराश हुईं। आखिरकार नौकरी करने की बजाय उन्होंने 'नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग' कोर्स के लिये आवेदन कर दिया और यहां से बछेंद्री पाल के जीवन की राहें बदल गईं। इस कैम्प में बछेंद्री को ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह ने बतौर इंस्ट्रक्टर पहली नौकरी दी। हालांकि पेशेवर पर्वतारोही का पेशा अपनाने की वजह से उन्हे परिवार और रिश्तेदारों के विरोध का सामना भी करना पड़ा लेकिन उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
साहस और जिज्ञासा ने पहुंचाया माउंट एवरेस्ट पर
अपने इरादों की पक्की बछेंद्री पाल को बचपन से ही अपने गांव के आस-पास की पहाड़ियों पर चढ़ाई करने का शौक था, जो उनके पर्वतारोहण के शुरुआती अनुभव का हिस्सा है। इस दौरान उनके साहस और जिज्ञासा ने उन्हें दूसरों से अलग बनाया। इसी के फलस्वरूप उन्होंने वर्ष 1982 में उत्तरकाशी स्थित नेहरू पर्वतारोहण संस्थान (NIM) में एडवांस माउंटेनियरिंग कोर्स में दाखिला लिया और प्रशिक्षण के दौरान ही गंगोत्री (6,672 मीटर) और रूद्रगैरा (5,819 मीटर) जैसी कठिन चोटियों पर चढ़ाई की। वे अपने बैच की पहली महिला थीं जिन्होंने प्रशिक्षण के दौरान सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया और प्रशिक्षकों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया। यह उनकी मेहनत का नतीजा ही था कि जब दो वर्ष बाद 1984 में जब भारत सरकार और भारतीय पर्वतारोहण फाउंडेशन द्वारा भारत का चौथा एवरेस्ट अभियान आयोजित किया गया, तो उसमें बछेंद्री पाल का चुनाव किया गया। 6 महिलाओं और 11 पुरुषों के इस दल में बछेंद्री पाल के लिए जगह बना पाना आसान नहीं था। इसके अलावा अभियान के दौरान तेज बर्फीले तूफानों और खतरनाक दरारों का सामना करते हुए आगे बढ़ना उनकी चुनौतियों को बढ़ा रही थी।
महिला सशक्तिकरण को दिए पंख

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अभियान के दौरान एक बर्फीली चट्टान गिरने से बछेंद्री पाल के एक साथी बुरी तरह घायल हो गए। इस घटना से पूरा दल सकते में था, लेकिन बछेंद्री पाल ने साहस नहीं खोया और आखिरकार 23 मई 1984 को दोपहर 1 बजकर 7 मिनट पर माउंट एवरेस्ट के 8,848 मीटर ऊंचे सागरमाथा शिखर पर भारत का झंडा लहराकर इतिहास रच दिया। एवरेस्ट पर सफलतापूर्वक कदम रखने वाली दुनिया की 5वीं महिला बनते ही पूरी दुनिया के दरवाजे बछेंद्री पाल के लिए खुल गए। हालांकि माउंट एवरेस्ट के बाद, बछेंद्री पाल ने कई अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय पर्वतारोहण अभियानों का नेतृत्व किया, जिनमें हिमालय के सबसे दुर्गम स्थानों की खोज शामिल थी। भारत की पहली नागरिक होने के अलावा पहली भारतीय महिला होने के नाते बछेंद्री पाल ने महिलाओं को पर्वतारोहण और साहसिक खेलों में शामिल होने के लिए प्रेरित किया, जिन्हें अब तक इससे दूर रखा जाता था।
महिलाओं के लिए संदेश
महिलाओं के लिए मिसाल बन चुकी बछेंद्री पाल ने "महिला थार एक्सपीडिशन" और "गंगा अभियान" जैसे साहसिक अभियानों का भी नेतृत्व किया, जिसमें काफी महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। बछेंद्री पाल ने हमेशा महिलाओं को अपने सपनों का पीछा करने और समाज की सीमाओं को तोड़ने का संदेश दिया। बछेंद्री पाल ने न सिर्फ पर्वतारोहण तक सीमित रहकर अपना नाम कमाया, बल्कि उन्होंने यह भी दिखाया कि किसी भी महिला के लिए कोई भी शिखर असंभव नहीं है। महिलाओं के साथ उनकी कहानी हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणा है, जो अपने सपनों को पूरा करने का साहस रखता है।
प्रमुख उपलब्धियां और सम्मान

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वर्ष 1984 में भारत सरकार ने बछेंद्री पाल की उपलब्धियों को देखते हुए उन्हें भारत के चौथे सवर्श्रेष्ठ सम्मान पद्म श्री से सम्मानित किया। खेल के क्षेत्र में उनकी असाधारण उपलब्धियों के लिए उन्हें वर्ष 1986 में अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1990 में उनका नाम गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज हुआ। उसके बाद साहसिक कार्यों में उनके योगदान के लिए उन्हें वर्ष 1994 में टेनजिंग नॉर्गे नेशनल एडवेंचर अवॉर्ड दिया गया और वर्ष 1997 में उनका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज किया गया। इसी वर्ष उन्हें हेमवती नन्दन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय से पीएचडी की मानद उपाधि भी दी गई। साहसिक खेलों के अलावा बछेंद्री पाल ने न सिर्फ प्राकृतिक आपदाओं के दौरान बचाव और राहत अभियानों में भी भाग लिया, बल्कि बच्चों और युवाओं को साहसिक खेलों में करियर बनाने के लिए उनका मार्गदर्शन भी किया। उनकी आत्मकथा "एवरेस्ट: माय जर्नी टू द टॉप" उनके जीवन और संघर्षों को दर्शाती है।
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