गणपति का आगमन खुशी और समृद्धि लेकर आता है। कई सारे ऐसे मूर्तिकार हैं, जो कि गणपति के आगमन के साथ खुद को आर्थिक तौर पर मजबूती दे पाते हैं। साल भर गणपति के आगमन का इंतजार करते हैं और अपने हाथों से बनाई हुई गणेश की प्रतिमा के जरिए घर के चुल्हे में आग जला पाते हैं। इस फेहरिस्त में वृतिका भी शामिल हैं। वृतिका ने मिट्टी और गोबर से गणपति की प्रतिमा बनाने का बिजनेस शुरू किया और उनके इस स्टार्टअप से लगभग 400 महिलाएं जुड़ी हुई हैं। आइए जानते हैं विस्तार से।
प्रकृति की सुरक्षा, रोजगार और भक्ति

प्रकृति के महत्व को समझाते हुए आगरा मालवा जिले की ग्रामीण महिलाएं मिट्टी और गोबर से मूर्ति बनाती हैं और इसी से अपने परिवार की आजीविका भी चला रही हैं। एमपी की राजधानी भोपाल से 200 किलोमीटर दूर लाडवन गांव में महिलाएं पर्यावरण संरक्षण को लेकर लगातार प्रयास कर रही हैं। इसी गांव में 50 साल की रंभा बाई ने गणपति की मूर्ति बनाने का स्टार्टअप शुरू किया। उनका लक्ष्य था ऐसी मूर्तियां तैयार करना, जो कि विसर्जन के बाद पानी में घुल जाएं।
महिलाओं को इसके लिए ट्रेनिंग भी

रम्भा बाई ने गांव में कुल 35 महिलाओं को इसके लिए ट्रेनिंग भी दी है। रम्भा बाई ने अपने इस सराहनीय कार्य को लेकर कहा कि गाय के गोबर से मूर्ति बनाने का ख्याल तब सामने आया, जब प्लास्टर आफ पेरिस की मूर्ति को नदी या फिर नाले में डूबते हुए देखा था। इसी के बाद उनके मन में गोबर और मिट्टी से मूर्ति बनाने का ख्याल आया। इसी गांव में रम्भा बाई के अलावा, सुहानी सक्सेना भी रहती हैं। सुहानी की उम्र केवल 20 साल के करीब की है। सुहानी भी इस कार्य में उनकी मदद करती हैं।
महिलाएं बनाती हैं मूर्तियां

देखा जाए, तो यह पहली बार नहीं है, जब महिला मूर्तिकार के लिए गणेश उत्सल आजीविका की राह आसान करता है। बीते 20 सालों से आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम शहर के बलागा मेट्टू में अयप्पा स्वामी मंदिर के पास मिट्टी की मूर्तियां बना रही हैं। पद्मावती का कहना है कि त्योहार के मौके पर 8 से 10 हजार के करीब मूर्तियां बिक्री होती हैं।
गणपति के आकार में घास बांधी जाती

पद्मावती ने बताया कि मिट्टी के गणपति बनाने से पहले लकड़ी से एक ढांचा बनाया जाता है, फिर गणपति के आकार में घास बांधी जाती है और मूर्ति का आकार बनाने के लिए उस पर मिट्टी ली जाती है। फिर इसमें रंग भरे जाते हैं। गणपति की एक मूर्ति बनाने में 10 दिन का समय लगता है। उन्होंने यह भी बताया कि एक मूर्ति को 7 से 8 हजार में बेचा जाता है।
इको फ्रेंडली गणपति का फायदा

इको-फ्रेंडली मूर्तियां प्राकृतिक मिट्टी, शुद्ध शाडू माती या बायोडिग्रेडेबल पदार्थों से बनती हैं, जो आसानी से पानी में घुल जाती हैं और प्रदूषण नहीं फैलातीं। POP मूर्तियां पानी में भारी मात्रा में केमिकल छोड़ती हैं, जो मछलियों और जल जीवों के लिए हानिकारक होती हैं। इको-फ्रेंडली मूर्तियाँ पानी को प्रदूषित नहीं करतीं और जल जीवन को सुरक्षित रखती हैं। इको-फ्रेंडली मूर्तियों में प्राकृतिक रंगों का उपयोग होता है, जो मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं होते। इको-फ्रेंडली गणपति अपनाने से बच्चों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ती है और वे बचपन से ही प्रकृति के प्रति संवेदनशील बनते हैं।