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सुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएं

टीम Her Circle |  फ़रवरी 17, 2023

सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म इलाहाबाद के निकट निहालपुर नामक गांव में रामनाथ सिंह के जमींदार परिवार में हुआ था। वह नामचीन कवयित्री तो थी ही, लेखिका होने के साथ-साथ स्वतंत्रता सेनानी थीं। उन्होंने कई बेहतरीन कहानियां और कविता की रचना की है। कहानी संग्रह में बिखरे मोती, उन्मादिनी और सीधे साधे चित्र काफी लोकप्रिय रहे हैं, तो आइए उनके अनमोल संग्रह की कुछ कविताएं पढ़ते हैं। 

भ्रम

देवता थे वे, हुए दर्शन, अलौकिक रूप था।

देवता थे, मधुर सम्मोहन स्वरूप अनूप था।

देवता थे, देखते ही बन गई थी भक्त मैं।

हो गई उस रूपलीला पर अटल आसक्त मैं।

 

देर क्या थी? यह मनोमंदिर यहाँ तैयार था।

वे पधारे, यह अखिल जीवन बना त्यौहार था।

झाँकियों की धूम थी, जगमग हुआ संसार था।

सो गई सुख नींद में, आनंद अपरंपार था।

 

किंतु उठ कर देखती हूँ, अंत है जो पूर्ति थी।

मैं जिसे समझे हुए थी देवता, वह मूर्ति थी।

 

कलह-कारण

कड़ी आराधना करके बुलाया था उन्हें मैंने।

पदों को पूजने के ही लिए थी साधना मेरी।

तपस्या नेम व्रत करके रिझाया था उन्हें मैंने।

पधारे देव, पूरी हो गई आराधना मेरी।

 

उन्हें सहसा निहारा सामने, संकोच हो आया।

मुँदीं आँखें सहज ही लाज से नीचे झुकी थी मैं।

कहूँ क्या प्राणधन से यह हृदय में सोच हो आया।

वही कुछ बोल दें पहले, प्रतीक्षा में रुकी थी मैं।

 

अचानक ध्यान पूजा का हुआ, झट आँख जो खोली।

नहीं देखा उन्हें, बस सामने सूनी कुटी दीखी।

हृदयधन चल दिए, मैं लाज से उनसे नहीं बोली।

गया सर्वस्व, अपने आपको दूनी लुटी दीखी।

 

स्मृतियाँ

क्या कहते हो? किसी तरह भी

भूलूँ और भुलाने दूँ?

गत जीवन को तरल मेघ-सा

स्मृति-नभ में मिट जाने दूँ?

 

शान्ति और सुख से ये

जीवन के दिन शेष बिताने दूँ?

कोई निश्चित मार्ग बनाकर

चलूँ तुम्हें भी जाने दूँ?

 

कैसा निश्चित मार्ग? ह्रदय-धन

समझ नहीं पाती हूँ मैं

वही समझने एक बार फिर

क्षमा करो आती हूँ मैं।

 

जहाँ तुम्हारे चरण, वहीँ पर

पद-रज बनी पड़ी हूँ मैं

मेरा निश्चित मार्ग यही है

ध्रुव-सी अटल अड़ी हूँ मैं।

 

भूलो तो सर्वस्व ! भला वे

दर्शन की प्यासी घड़ियाँ

भूलो मधुर मिलन को, भूलो

बातों की उलझी लड़ियाँ।

 

भूलो प्रीति प्रतिज्ञाओं को

आशाओं विश्वासों को

भूलो अगर भूल सकते हो

आंसू और उसासों को।

 

मुझे छोड़ कर तुम्हें प्राणधन

सुख या शांति नहीं होगी

यही बात तुम भी कहते थे

सोचो, भ्रान्ति नहीं होगी।

 

सुख को मधुर बनाने वाले

दुःख को भूल नहीं सकते

सुख में कसक उठूँगी मैं प्रिय

मुझको भूल नहीं सकते।

 

मुझको कैसे भूल सकोगे

जीवन-पथ-दर्शक मैं थी

प्राणों की थी प्राण ह्रदय की

सोचो तो, हर्षक मैं थी।

 

मैं थी उज्ज्वल स्फूर्ति, पूर्ति

थी प्यारी अभिलाषाओं की

मैं ही तो थी मूर्ति तुम्हारी

बड़ी-बड़ी आशाओं की।

 

आओ चलो, कहाँ जाओगे

मुझे अकेली छोड़, सखे!

बंधे हुए हो ह्रदय-पाश में

नहीं सकोगे तोड़, सखे!





 














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