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सूरदास की कठिन रही है साहित्यिक यात्रा

टीम Her Circle |  अप्रैल 23, 2025

साहित्य की दुनिया में सूरदास की कृतियों की खास अहमियत रही है। सूरदास के खास योगदान की बात करें, तो सूरदास हिंदी के भक्तिकाल के महान कवि थे। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिन्दी साहित्य में भी सूर्य की तरह जाने जाते हैं। आइए जानें विस्तार से। 

कौन हैं सूरदास 

साहित्य की दुनिया में सूरदास की कृतियों की खास अहमियत रही है। सूरदास के खास योगदान की बात करें, तो सूरदास हिंदी के भक्तिकाल के महान कवि थे। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिन्दी साहित्य में भी सूर्य की तरह जाने जाते हैं। उनके जन्म के बारे में चर्चा की जाए, तो उन्हें महाकवि होने का दर्जा प्राप्त रहा है और सूरदास  का जन्म 1478 ई में रुनकता क्षेत्र में हुआ था। यह क्षेत्र मथुरा और आगरा के मार्ग के किनारे स्थित है। हालांकि उनके जन्म को लेकर कई दुविधा  भी रही है। उनके बारे में यह जानकारी भी आपको होनी जरूरी है कि वह बहुत बड़े विद्वान थे, यही वजह है कि वह आज भी प्रासंगिक हैं। उनके बारे में एक दिलचस्प जानकारी यह है कि वह मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे। उनके पिता रामदास सारस्वत प्रसिद्ध गायक थे। कुछ लोगों को मान्यता है कि शुरुआती दौर में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे। वहां वह वल्लभाचार्य से मिले और फिर उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया था। 

कष्ट से भरा रहा बचपन 

सूरदास के तीन बड़े भाई थे और तीन भाइयों के बीच हमेशा उन्हें हमेशा नजरअंदाज किया जाता रहा। वह जब तीन वर्ष के थे, तब उनका नाम सूर रखा गया। सूरदास ने कभी भरपेट खाना नहीं खाया, क्योंकि उनका परिवार उन्हें खाना नहीं खिलाता था। उन्हें कभी किसी उत्सव में नए कपड़े नहीं मिले, इसकी वजह से उन्हें हमेशा तकलीफ रही, लेकिन उन्होंने अपनी भावनाओं को कभी जाहिर नहीं होने दिया और उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से अपनी भावनाएं लिखीं।  

रचनाएं रहीं खास 

सूरदास की अगर रचनाओं की बात करें, तो उन्होंने वात्सल्य, शृंगार और शांत रसों को मुख्य रूप से अपनाया है। वहीं वह सूरदास कृष्ण प्रेम और माधुर्य की प्रतिमूर्ति रहे  और उनकी खास बात यह थी कि उनकी अभिव्यक्ति स्वाभाविक तरीके और सजीव तरीके से होती रही है। अगर उनकी एक रचना की बात करें तो, अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल काफी लोकप्रिय रचना रही, आइए पढ़ें उनकी कुछ रचनाओं को। 

कब तुम मोसो पतित उधारो 

कब तुम मोसो पतित उधारो।

पतितनि में विख्यात पतित हौं पावन नाम तिहारो॥

बड़े पतित पासंगहु नाहीं, अजमिल कौन बिचारो।

भाजै नरक नाम सुनि मेरो, जमनि दियो हठि तारो॥

छुद्र पतित तुम तारि रमापति, जिय जु करौ जनि गारो।

सूर, पतित कों ठौर कहूं नहिं, है हरि नाम सहारो॥

इस कविता में सूरदास समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि उनके जीवन में उन्होंने कोई अगर अच्छा काम नहीं किया है, तो उन्हें नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी, ऐसे में भगवान की भक्ति ही रास्ते दिखा सकती हैं। उनके चरणों में ही वास हो सकता है और आपको एक खास स्थान मिल सकता है। 

अब कै माधव, मोहिं उधारि 

अब कै माधव, मोहिं उधारि।

मगन हौं भव अम्बुनिधि में, कृपासिन्धु मुरारि॥

नीर अति गंभीर माया, लोभ लहरि तरंग।

लियें जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग॥

मीन इन्द्रिय अतिहि काटति, मोट अघ सिर भार।

पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सिबार॥

काम क्रोध समेत तृष्ना, पवन अति झकझोर।

नाहिं चितवत देत तियसुत नाम-नौका ओर॥

थक्यौ बीच बेहाल बिह्वल, सुनहु करुनामूल।

स्याम, भुज गहि काढ़ि डारहु, सूर ब्रज के कूल॥

इस कविता में कवि की यही कोशिश है कि अपने भाव को दर्शाने की कि संसार में कभी भी कोई भी मोह माया का अंत नहीं है, आप हमेशा इससे भरपूर रहेंगे। आपके सामने मोह की लहर हमेशा ही नजर आती रहेगी। इन सबके बीच आपको अपने लिए एक रास्ता ढूंढना है और उस रास्ते की तलाश में कोई और नहीं, बल्कि भगवान ही आपकी नय्या को पार लगा सकते हैं। 

प्रभु, हौं सब पतितन कौ राजा 

प्रभु, हौं सब पतितन कौ राजा।

परनिंदा मुख पूरि रह्यौ जग, यह निसान नित बाजा॥

तृस्ना देसरु सुभट मनोरथ, इंद्रिय खड्ग हमारे।

मंत्री काम कुमत दैबे कों, क्रोध रहत प्रतिहारे॥

गज अहंकार चढ्यौ दिगविजयी, लोभ छ्त्र धरि सीस॥

फौज असत संगति की मेरी, ऐसो हौं मैं ईस।

मोह मदै बंदी गुन गावत, मागध दोष अपार॥

सूर, पाप कौ गढ दृढ़ कीने, मुहकम लाय किंवार॥

अगर इसके भावार्थ की बात करें, तो यहां यह बताने की कोशिश की गई है कि एक राजा भी पापी हो सकता है। यहां के बड़े पापी के रूप में राजा को देखा गया है। यहां पूरे राज शासन में किस तरह से कौन काम करता है, इसके बारे में विस्तार से बताया गया है। लेकिन इन सबके बीच भक्तिवाद ही क्यों विजयी होती है और दीनता ही दीनबंधु की शरण में कैसे ले जाती है, इसके बारे में भी विस्तार से बताया गया है। 

अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल 

अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल 

अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल।

काम क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल॥

महामोह के नूपुर बाजत, निन्दा सब्द रसाल।

भरम भरयौ मन भयौ पखावज, चलत कुसंगति चाल॥

तृसना नाद करति घट अन्तर, नानाविध दै ताल।

माया कौ कटि फैंटा बांध्यो, लोभ तिलक दियो भाल॥

कोटिक कला काछि दिखराई, जल थल सुधि नहिं काल।

सूरदास की सबै अविद्या, दूरि करौ नंदलाल॥

इस कविता की अगर बात की जाए, इसके भावार्थ की तो, इस कविता से सूरदास समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि जीवन में हम हमेशा भौतिक चीजों के पीछे रहते हैं और अंत में हमें कुछ नहीं मिलता है। इसमें वह यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि संसार में सबकुछ करने के बाद भी चैन नहीं मिलता है एक इंसान को। 

है हरि नाम कौ आधार 

है हरि नाम कौ आधार।

और इहिं कलिकाल नाहिंन रह्यौ बिधि-ब्यौहार॥

नारदादि सुकादि संकर कियौ यहै विचार।

सकल स्रुति दधि मथत पायौ इतौई घृत-सार॥

दसहुं दिसि गुन कर्म रोक्यौ मीन कों ज्यों जार।

सूर, हरि कौ भजन करतहिं गयौ मिटि भव-भार॥

इस कविता में सूरदास यही बताना चाहते हैं कि जीवन में ऐसा बहुत कुछ है, जिसके लिए अगर आप श्रद्धा से करेंगे, तो हरि या भगवान को पा लेंगे। इसलिए सब तज, हरि भज ही परम ज्ञान है।

 

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