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सर्वेश्वल दयाल सक्सेना की रचनाएं

शिखा शर्मा |  जनवरी 12, 2023

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (15 सितंबर 1927 - 24 सितंबर 1983) एक हिंदी लेखक, कवि, स्तंभकार और नाटककार थे। वह उन सात कवियों में से एक थे, जिन्होंने पहली बार ‘तार सप्तकों’ में से एक में अपनी रचनाएं प्रकाशित की, जिसने 'प्रयोगवाद' युग की शुरुआत की, जो समय के साथ ‘नई कविता’आंदोलन बन गया। आइए पढ़ते हैं इनकी शानदार रचनाएं -

 

तुम्हारे साथ रहकर

तुम्हारे साथ रहकर

अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है

कि दिशाएँ पास आ गई हैं,

हर रास्ता छोटा हो गया है,

दुनिया सिमटकर

एक आँगन-सी बन गई है

जो खचाखच भरा है,

कहीं भी एकांत नहीं

न बाहर, न भीतर।

हर चीज़ का आकार घट गया है,

पेड़ इतने छोटे हो गए हैं

कि मैं उनके शीश पर हाथ रख

आशीष दे सकता हूँ,

आकाश छाती से टकराता है,

मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।

तुम्हारे साथ रहकर

अक्सर मुझे महसूस हुआ है

कि हर बात का एक मतलब होता है,

यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,

हवा का खिड़की से आने का,

और धूप का दीवार पर

चढ़कर चले जाने का।

तुम्हारे साथ रहकर

अक्सर मुझे लगा है

कि हम असमर्थताओं से नहीं

संभावनाओं से घिरे हैं,

हर दीवार में द्वार बन सकता है

और हर द्वार से पूरा का पूरा

पहाड़ गुज़र सकता है।

शक्ति अगर सीमित है

तो हर चीज़ अशक्त भी है,

भुजाएँ अगर छोटी हैं,

तो सागर भी सिमटा हुआ है,

सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,

जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है

वह नियति की नहीं मेरी है।



तुमसे अलग होकर

तुमसे अलग होकर लगता है

अचानक मेरे पंख छोटे हो गए हैं,

और मैं नीचे एक सीमाहीन सागर में

गिरता जा रहा हूँ।

अब कहीं कोई यात्रा नहीं है,

न अर्थमय, न अर्थहीन;

गिरने और उठने के बीच कोई अंतर नहीं।

तुमसे अलग होकर

हर चीज़ में कुछ खोजने का बोध

हर चीज़ में कुछ पाने की

अभिलाषा जाती रही

सारा अस्तित्व रेल की पटरी-सा बिछा है

हर क्षण धड़धड़ाता हुआ निकल जाता है।

तुमसे अलग होकर

घास की पत्तियाँ तक इतनी बड़ी लगती हैं

कि मेरा सिर उनकी जड़ों से

टकरा जाता है,

नदियाँ सूत की डोरियाँ हैं

पैर उलझ जाते हैं,

आकाश उलट गया है

चाँद-तारे नहीं दिखाई देते,

मैं धरती पर नहीं, कहीं उसके भीतर

उसका सारा बोझ सिर पर लिए रेंगता हूँ।

तुमसे अलग होकर लगता है

सिवा आकारों के कहीं कुछ नहीं है,

हर चीज़ टकराती है

और बिना चोट किए चली जाती है।

तुमसे अलग होकर लगता है

मैं इतनी तेज़ी से घूम रहा हूँ

कि हर चीज़ का आकार

और रंग खो गया है,

हर चीज़ के लिए

मैं भी अपना आकार और रंग खो चुका हूँ,

धब्बों के एक दायरे में

एक धब्बे-सा हूँ,

निरंतर हूँ

और रहूँगा

प्रतीक्षा के लिए

मृत्यु भी नहीं है।




धीरे-धीरे

भरी हुई बोतलों के पास

ख़ाली गिलास-सा

मैं रख दिया गया हूँ।

धीरे-धीरे अँधेरा आएगा

और लड़खड़ाता हुआ

मेरे पास बैठ जाएगा।

वह कुछ कहेगा नहीं

मुझे बार-बार भरेगा

ख़ाली करेगा,

भरेगा—ख़ाली करेगा,

और अंत में

ख़ाली बोतलों के पास

ख़ाली गिलास-सा

छोड़ जाएगा।

मेरे दोस्तो!

तुम मौत को नहीं पहचानते

चाहे वह आदमी की हो

या किसी देश की

चाहे वह समय की हो

या किसी वेश की।

सब-कुछ धीरे-धीरे ही होता है

धीरे-धीरे ही बोतलें ख़ाली होती हैं

गिलास भरता है,

हाँ, धीरे-धीरे ही

आत्मा ख़ाली होती है

आदमी मरता है।

उस देश का मैं क्या करूँ

जो धीरे-धीरे लड़खड़ाता हुआ

मेरे पास बैठ गया है।

मेरे दोस्तो!

तुम मौत को नहीं पहचानते

धीरे-धीरे अँधेरे के पेट में

सब समा जाता है,

फिर कुछ बीतता नहीं

बीतने को कुछ रह भी नहीं जाता

ख़ाली बोतलों के पास

ख़ाली गिलास-सा सब पड़ा रह जाता है—

झंडे के पास देश

नाम के पास आदमी

प्यार के पास समय

दाम के पास वेश,

सब पड़ा रह जाता है

ख़ाली बोतलों के पास

ख़ाली गिलास-सा

'धीरे-धीरे'—

मुझे सख़्त नफ़रत है

इस शब्द से।

धीरे-धीरे ही घुन लगता है

अनाज मर जाता है,

धीरे-धीरे ही दीमकें सब-कुछ चाट जाती हैं

साहस डर जाता है।

धीरे-धीरे ही विश्वास खो जाता है

सकंल्प सो जाता है।

मेरे दोस्तो!

मैं उस देश का क्या करूँ

जो धीरे-धीरे

धीरे-धीरे ख़ाली होता जा रहा है

भरी बोतलों के पास

ख़ाली गिलास-सा

पड़ा हुआ है।

धीरे-धीरे

अब मैं ईश्वर भी नहीं पाना चाहता,

धीरे-धीरे

अब मैं स्वर्ग भी नहीं जाना चाहता,

धीरे-धीरे

अब मुझे कुछ भी नहीं है स्वीकार

चाहे वह घृणा हो चाहे प्यार।

मेरे दोस्तो!

धीरे-धीरे कुछ नहीं होता

सिर्फ़ मौत होती है,

धीरे-धीरे कुछ नहीं आता

सिर्फ़ मौत आती है,

धीरे-धीरे कुछ नहीं मिलता

सिर्फ़ मौत मिलती है,

मौत—

ख़ाली बोतलों के पास

ख़ाली गिलास-सी।

सुनो,

ढोल की लय धीमी होती जा रही है

धीरे-धीरे एक क्रांति-यात्रा

शव-यात्रा में बदल रही है।

सड़ाँध फैल रही है—

नक़्शे पर देश के

और आँखों में प्यार के

सीमांत धुँधले पड़ते जा रहे हैं

और हम चूहों-से देख रहे हैं।



माँ की याद

चींटियाँ अंडे उठाकर जा रही हैं,

और चींटियाँ नीड़ को चारा दबाए,

थान पर बछड़ा रँभाने लग गया है

टकटकी सूने विजन पथ पर लगाए,

थाम आँचल, थका बालक रो उठा है,

है खड़ी माँ शीश का गट्ठर गिराए,

बाँह दो चुमकारती-सी बढ़ रही है,

साँझ से कह दो बुझे दीपक जलाए।

शोर डैनों में छिपाने के लिए अब,

शोर, माँ की गोद जाने के लिए अब,

शोर घर-घर नींद रानी के लिए अब,

शोर परियों की कहानी के लिए अब,

एक मैं ही हूँ—कि मेरी साँझ चुप है,

एक मेरे दीप में ही बल नहीं है,

एक मेरी खाट का विस्तार नभ-सा

क्योंकि मेरे शीश पर आँचल नहीं है।

 

बतूता का जूता

इब्न-बतूता पहन के जूता

निकल पड़े तूफ़ान में

थोड़ी हवा नाक में घुस गई

घुस गई थोड़ी कान में

कभी नाक को, कभी कान को

मलते इब्न-बतूता

इसी बीच में निकल पड़ा

उनके पैरों का जूता

उड़ते-उड़ते जूता उनका

जा पहुँचा जापान में

इब्न-बतूता खड़े रह गए
मोची की दुकान में

 

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