हिंदी साहित्य की दुनिया में ग्रामीण जीवन और वहां की महिलाओं का चित्रण खूबसूरती से किया गया है। कई लोकप्रिय हिंदी साहित्यकारों की ऐसी कई लोकप्रिय कहानियां हैं, जहां पर यह बखूबी बताया गया है कि गाँव की महिलाएं सिर्फ घरेलू भूमिका तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि वे सामाजिक परिवर्तन, संघर्ष और मूल्य-निर्माण की वाहक भी होती हैं। आइए इस संबंध में जानते हैं विस्तार से।
मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में गांव की महिलाएं

यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में गांव की महिलाएं एक खास स्थान रखती हैं। उनका जीवन केवल उनके घर का एक हिस्सा नहीं है, बल्कि समाज, परिवार और जीवन के संघर्षों की काबिले तारीफ तस्वीर प्रस्तुत करती है। साथ ही उनका जीवन हर महिला के जीवन को एक नई सीख और नई ऊर्जा भी देकर जाता है। प्रेमचंद ने ग्रामीण महिलाओं के जीवन, उनके दुख-सुख, त्याग, संघर्ष और सामाजिक हालातों को बड़ी ही संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया है। पंच परमेश्वर" में झुनिया या "ईदगाह" में हमीद की दादी अमीना – दोनों संघर्षशील और ममतामयी हैं।सद्गति" या "बड़े घर की बेटी" में महिलाओं को सामाजिक स्थिति के अनुसार अलग-अलग स्तर पर संघर्ष करते दिखाया गया है।बड़े घर की बेटी" की अनारकली, जो पति के परिवार में सम्मान बनाए रखती है, या "निर्मला" की नायिका, जो परिस्थितियों से जूझती है। प्रेमचंद की कहानियों में महिलाएं केवल आदर्श नहीं हैं, बल्कि यर्थाथ हैं। वे कभी कठोर होती हैं, कभी दयालु, कभी विद्रोही तो कभी शांत होती हैं।
महादेवी वर्मा की कहानियों में गांव की महिलाएं और ग्रामीण जीवन

महादेवी वर्मा ने अपनी कविताओं और कहानियों में ग्रामीण जीवन और खास तौर से गांव की महिलाओं को अत्यंत मानवीय और यर्थाथ पूर्ण तरीके से दिखाया गया है। उनकी लेखनी में करुण, संवेदना और सामाजिक चेतना की झलक साफ तौर पर दिखाई देती है। गिल्लू" और "ठाकुरजी भोले हैं" जैसे रेखाचित्रों में ग्रामीण स्त्रियां समाज के हाशिये पर मौजूद होती हैं, पर फिर भी उनमें मानवीय गरिमा है।नीलकंठ" और "मेरा परिवार" जैसे रेखाचित्रों में पशु-पक्षियों की देखभाल करने वाली ग्रामीण महिलाएं आत्मीयता की मिसाल हैं। इतना ही नहीं महादेवी वर्मा की कहानियों में गांव की दुनिया सादगी से भरी है। जहां पर मिट्टी के घर, बाग-बगीचे, खेत-खलिहान और एक-दूसरे की मदद करने वाला समाज है। इन सभी में महिलाएं केंद्रीय भूमिका में हैं, फिर चाहे वह रसोई हो या फिर पशुपालन का काम हो। यहां तक जीवन के फैसले लेने में भी महिलाएं मुखिया के तौर पर प्रस्तुत की गई हैं।
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों में ग्रामीण जीवन और ग्रामीण महिलाएं

हिंदी के प्रमुख कथाकारों में एक नाम फणीश्वरनाथ रेणु का भी आता है। उन्होंने ग्रामीण भारत और खास तौर से बिहार के ग्रामीण जीवन को केंद्रीय भूमिका में रखा है। उनकी लिखी हुई ठेठ गामक कहानी’, ‘पंचलैट’, ‘रसप्रिया’, ‘पहलवान की ढोलक’ जैसी कहानियाँ ग्रामीण जीवन की झलक देती हैं। गीत, त्योहार, लोकपाठ, और ग्राम्य परंपराएँ उनकी कहानियों में स्थान पाती हैं। ‘मैला आँचल’ (हालाँकि उपन्यास है, पर महत्वपूर्ण): इसमें मटुकनाथ की पत्नी, तेसर टोली की महिलाएँ – ये पात्र ग्रामीण महिला जीवन की विविध छवियाँ दिखाते हैं। पंचलैट’ में महिलाएँ सामाजिक संरचना में अपनी भूमिका निभाते हुए दिखती हैं। ‘ठेठ गामक कहानी’ में ग्रामीण स्त्री की ममता, पीड़ा और विवशता का चित्रण है। यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि उनकी लेखनी में महिला पात्र सहानुभूति की पात्र जरूर हैं, लेकिन वे सिर्फ पीड़ित नहीं, बल्कि संघर्षशील और आत्मबल से युक्त भी हैं।
अमृता प्रीतम की रचनाओं में ग्रामीण महिलाएं

हिंदी साहित्य की लोकप्रिय लेखिका अमृता प्रीतम की रचनाओं में ग्रामीण महिलाओं की छवि उनके संघर्षों को स्त्री- विमर्श के दृष्टिकोण से रखा हुआ है। अमृता प्रीतम मे अपनी लिखी हुई कविता "अज आख्या वारिस शाह नूं..." में पंजाब के बंटवारे की पीड़ा और वहां की औरतों की चीत्कार का प्रतिनिधित्व करती हैं। यहां की ग्रामीण महिलाएं बंटवारे की हिंसा का शिकार हुईं । पिंजर उपन्यास में उन्होंने पूरो के किरदार के जरिए एक ग्रामीण परिवार की लड़की है जिसे जबरन मुस्लिम लड़के के साथ ब्याह दिया जाता है। वह शारीरिक, मानसिक और सांस्कृतिक हिंसा से गुजरती है लेकिन अंत में अपने निर्णय खुद लेने वाली महिला बनती है।देखा जाए, तो अमृता प्रीतम की रचनाओं में ग्रामीण महिलाएं सिर्फ पीड़ित नहीं हैं। वे संवेदनशील, संघर्षशील और आत्मा की आवाज सुनने वाली महिलाएं हैं। यह महिलाएं प्रेम करती हैं, विरोध करती हैं, अपने जीवन की मुखिया भी बनती हैं। अमृता प्रीतम के लेखन में हर महिला सच बोलती है, रूढ़ियों को चुनौती देती हैं और अपनी पहचान भी कायम करती हैं।
कृष्णा सोबती की रचनाओं में ग्रामीण महिलाओं और उनका जीवन
लेखिका कृष्णा सोबती की रचनाओं में ग्रामीण महिलाएं और ग्रामीण जीवन प्रमुख भूमिका में है। उनकी प्रमुख रचना जिंदगीनामा में महिलाएं खेतों में काम करती हैं। लोक-गीत गाती हैं। जीवन के उतार-चढ़ाव का सामना दिलेरी के साथ करती हैं। उन्होंने दिखाया है कि गांव की महिलाएं न आदर्शवादी देवी हैं, न ही सिर्फ पीड़िता है, बल्कि अपने फैसले खुद लेने का सामर्थ्य भी रखती हैं। उनके लिखे गए अन्य उपन्यास डार से बिछुड़ी में डाक पीपल का किरदार ग्रामीण परिवेश में पला-बढ़ा है, लेकिन बंटवारे की त्रासदी से वह आत्म-संघर्ष और अस्मिता की यात्रा पर निकलती है।उसका संघर्ष सिर्फ प्रेम या जातीय पहचान का नहीं, बल्कि एक स्त्री के रूप में अपने निर्णय स्वयं लेने का है। उन्होंने इस उपन्यास में बताया है कि महिलाएं परंपराओं को तोड़ कर अपने फैसले खुद ले सकती हैं। ज्ञात हो कि कृष्णा सोबती की रचनाओं में ग्रामीण महिलाएं माटी से जुड़ी हुई और गंभीर सोच वाली आत्मसम्मान के भरी हुई हैं।
मंटो की कहानी में ग्रामीण जीवन और ग्रामीण महिलाएं
सआदत हसन मंटो आमतौर पर शहरी जीवन और विभाजन पर लिखते आए हैं। लेकिन उन कुछ कहानियों में ग्रामीण जीवन और ग्रामीण महिलाओं की छवि भी मिलती है। देखा जाए, तो मंटो की कुछ कहानियों में गांव या कस्बाई पृष्ठभूमि दिखाई देती है। जहां जमींदारी व्यवस्था, गरीबी और जातिवाद और सामाजिक रूढ़ियां दिखाई देती है। टोबा टेक सिंह" में भले ही मुख्य विषय विभाजन है, लेकिन यह कस्बाई मानसिकता, सांस्कृतिक जड़ों और भूमि से जुड़े पन को दर्शाता है। उनकी लिखी हुई ठंडा गोश्त" जैसी कहानी में स्त्री को "मौन उपस्थिति" समाज की बर्बरता को दिखाती है। खोल दो" में सरबत की ग्रामीण पृष्ठभूमि उसके भोलेपन और असहायता को दर्शाती है, लेकिन अंत में वही कहानी झकझोर देती है। इसके अलावा काली शलवार" – हामिदा एक निम्न वर्गीय स्त्री है, जिसके सपने छोटे हैं, लेकिन उसका आत्मसम्मान बड़ा है।शादीशुदा", "बू", और "धुआँ" जैसी कहानियों में स्त्रियाँ सीधे-सीधे गाँव की न होकर, उस पृष्ठभूमि से आई स्त्रियाँ हैं जो अब शहर में हैं, लेकिन गाँव की मासूमियत और दुख उनके भीतर अब भी जिंदा हैं।