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गणतंत्र दिवस विशेष : हिंदी साहित्यकारों द्वारा गणत्रंत्र दिवस पर लिखी कविताएं

रजनी गुप्ता |  जनवरी 26, 2025

हर वर्ष 26 जनवरी को मनाए जानेवाले भारतीय गणतंत्र दिवस को अपने शब्दों में ढ़ालते हुए हिंदी के कई साहित्यकारों ने अपनी कलम चलाई है। देशभक्ति की भावना से भरी ये कविताएं आपने अपनी स्कूल की किताबों में भी पढ़ी होंगी। आइए एक बार फिर रूबरू होते हैं उन कविताओं से। 

वीरो का कैसा हो वसंत? - सुभद्रा कुमारी चौहान 

वीरों का कैसा हो वसंत?

आ रही हिमाचल से पुकार,

है उदधि गरजता बार-बार,

प्राची, पश्चिम, भू, नभ अपार,

सब पूछ रहे हैं दिग्-दिगंत,

वीरों का कैसा हो वसंत?

फूली सरसों ने दिया रंग,

मधु लेकर आ पहुंचा अनंग,

वधु-वसुधा पुलकित अंग-अंग,

हैं वीर वेश में किंतु कंत,

वीरों का कैसा हो वसंत?

भर रही कोकिला इधर तान,

मारू बाजे पर उधर गान,

है रंग और रण का विधान,

मिलने आये हैं आदि-अंत,

वीरों का कैसा हो वसंत?

गलबांहें हों, या हो कृपाण,

चल-चितवन हो, या धनुष-बाण,

हो रस-विलास या दलित-त्राण,

अब यही समस्या है दुरंत,

वीरों का कैसा हो वसंत?

कह दे अतीत अब मौन त्याग,

लंके, तुझमें क्यों लगी आग?

ऐ कुरुक्षेत्र! अब जाग, जाग,

बतला अपने अनुभव अनंत,

वीरों का कैसा हो वसंत?

हल्दी-घाटी के शिला-खंड,

ऐ दुर्ग! सिंह-गढ़ के प्रचंड,

राणा-ताना का कर घमंड,

दो जगा आज स्मृतियाँ ज्वलंत,

वीरों का कैसा हो वसंत?

भूषण अथवा कवि चंद नहीं,

बिजली भर दे वह छंद नहीं,

है क़लम बँधी, स्वच्छंद नहीं,

फिर हमें बतावे कौन? हंत!

वीरों का कैसा हो वसंत?

सारे जहां से अच्छा - अल्लामा इकबाल 

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा

हम बुलबुलें हैं इस की ये गुलसितां हमारा

गुर्बत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में

समझो वहीं हमें भी दिल हो जहां हमारा

पर्बत वो सब से ऊंचा हम-साया आसमां का

वो संतरी हमारा वो पासबां हमारा

गोदी में खेलती हैं इस की हजारों नदियां

गुलशन है जिन के दम से रश्क-ए-जिनां हमारा

ऐ आब-रूद-ए-गंगा वो दिन है याद तुझ को

उतरा तिरे किनारे जब कारवां हमारा

मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा

यूनान ओ मिस्र ओ रूमा सब मिट गए जहां से

अब तक मगर है बाकी नाम-ओ-निशां हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी

सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़मां हमारा 

आज देश की मिट्टी बोल उठी है - शिवमंगल सिंह 'सुमन'

लौह-पदाघातों से मर्दित

हय-गज-तोप-टैंक से खौंदी

रक्तधार से सिंचित पंकिल

युगों-युगों से कुचली रौंदी।

व्याकुल वसुंधरा की काया

नव-निर्माण नयन में छाया।

कण-कण सिहर उठे

अणु-अणु ने सहस्राक्ष अंबर को ताका

शेषनाग फूत्कार उठे

सांसों से निःसृत अग्नि-शलाका।

धुआंधार नभी का वक्षस्थल

उठे बवंडर, आंधी आई,

पदमर्दिता रेणु अकुलाकर

छाती पर, मस्तक पर छाई।

हिले चरण, मतिहरण

आततायी का अंतर थर-थर काँपा

भूसुत जगे तीन डग में ।

बामन ने तीन लोक फिर नापा।

धरा गर्विता हुई सिंधु की छाती डोल उठी है।

आज देश की मिट्टी बोल उठी है।

पुष्प की अभिलाषा - माखन लाल चतुर्वेदी 

चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं।

चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊं॥

चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊं।

चाह नहीं, देवों के सिर पर चढूं, भाग्य पर इठलाऊं॥

मुझे तोड़ लेना वनमाली!

उस पथ में देना तुम फेंक॥

मातृ-भूमि पर शीश चढ़ाने।

जिस पथ जावें वीर अनेक॥

गणतंत्र दिवस - हरिवंशराय बच्चन

एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।

इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए,

कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए,

इन्हें पकड़ने में कितनों ने लाठी खाई, कोड़े ओड़े,

और इन्हें झटके देने में कितनों ने निज प्राण गँवाए!

किंतु शहीदों की आहों से शापित लोहा, कच्चा धागा।

एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।

जय बोलो उस धीर व्रती की जिसने सोता देश जगाया,

जिसने मिट्टी के पुतलों को वीरों का बाना पहनाया,

जिसने आज़ादी लेने की एक निराली राह निकाली,

और स्वयं उसपर चलने में जिसने अपना शीश चढ़ाया,

घृणा मिटाने को दुनिया से लिखा लहू से जिसने अपने,

“जो कि तुम्हारे हित विष घोले, तुम उसके हित अमृत घोलो।”

एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।

कठिन नहीं होता है बाहर की बाधा को दूर भगाना,

कठिन नहीं होता है बाहर के बंधन को काट हटाना,

ग़ैरों से कहना क्या मुश्किल अपने घर की राह सिधारें,

किंतु नहीं पहचाना जाता अपनों में बैठा बेगाना,

बाहर जब बेड़ी पड़ती है भीतर भी गाँठें लग जातीं,

बाहर के सब बंधन टूटे, भीतर के अब बंधन खोलो।

एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।

कटीं बेड़ियां औ’ हथकड़ियां, हर्ष मनाओ, मंगल गाओ,

किंतु यहां पर लक्ष्य नहीं है, आगे पथ पर पांव बढ़ाओ,

आज़ादी वह मूर्ति नहीं है जो बैठी रहती मंदिर में,

उसकी पूजा करनी है तो नक्षत्रों से होड़ लगाओ।

हल्का फूल नहीं आज़ादी, वह है भारी ज़िम्मेदारी,

उसे उठाने को कंधों के, भुजदंडों के, बल को तोलो।

एक और जंजीर तड़कती है, भारत मां की जय बोलो।

 

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