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होम / एन्गेज / साहित्य / किताब-घर

रमणिका गुप्ता की रचनाएं

टीम Her Circle |  जून 13, 2024

रमणिका गुप्ता एक लोकप्रिय लेखिका रही हैं, खासतौर से आदिवासियों के उत्थान के लिए उन्होंने काफी लिखा है। ऐसे में आइए पढ़ते हैं उनकी कुछ खास रचनाएं। 

तू घर न आलय 

हमर गात खटत-खटत 

सुखाय गेलेय है 

कहिने गेले है 

केने-केने खट रहले है 

ठिकाना भी तो नाय 

लिखौले है 

कौन कामख्या-कारू की 

कुटनी के मंतर में फँसाय गेलय है? 

हम हेने घबराय गेलय है 

तू घर नाय एलेय है 

ईंट्टा-भट्टा सिराय गेलय 

ई बच्छर भी खेत बिन जोते 

बिलाय गेलय 

‘कजरी’ के भैंस बियाय गेलय 

‘मंगरी’ के गाय गाभिन हो गेलय 

‘सुकरी’ के बकरी 

बिकाय गेलय 

हमर दूध 

सुखाय गेलय 

बचवा बड़ हो गेलय 

‘बाबा-बाबा’ कहके हकावो है 

पन तू घर नाय एलेय है! 

टेसू टहक-टहक 

मोर मन में रसम लगाय देलय 

सखुआ के गाछ के 

ऊज्जर-ऊज्जर दाँत 

दिखाय गेलय 

महुआ ‘कोताय’ गेलय 

हवा झुमाय गेलय 

हमरो मन 

बौराय गेलय 

हमरो ‘गायत’ 

खटैत-खटैत 

सुखाय गेलय 

पन तू अब हो घर नाय एलेय है!! 

मैं कलुआ माँझी हूँ 

मैं क्रांति चाहता हूँ तो 

तुम हिंसा कहते हो 

मैं इंक़लाब माँगता हूँ तो 

तुम एडवेंचरिस्ट कहते हो 

मैं अन्याय का विरोध करता हूँ 

उसका सिर कुचलता हूँ 

तो तुम मुझे नक्सलवादी कहते हो 

मैं समता की बात करता हूँ 

सपनों को याद रखता हूँ 

तो तुम मुझे लोहियावादी कहते हो 

मैं तो वही हूँ 

तुम रोज़ बदलते हो 

मुझे परखने के लिए 

दृष्टिकोण बदलना होगा 

मुझे जानने के लिए 

मेरी आँखों से देखना होगा 

मेरी आँतों में सिमट 

भूख से बिलखना होगा 

मेरे अँधेरे घर में 

जुगनू की रोशनी में 

मेरे बर्तनों की खनक में 

उनकी टूट को पहचानना होगा 

मेरी चमकती पुतलियों में 

भाँपना होगा इंक़लाब की आग को 

तब तुम जान पाओगे 

कि मैं क्या हूँ 

कौन हूँ 

ऐसे लोग मुझे कलुआ माँझी कहते हैं 

कृष्ण का रंग पाया है 

पर अर्जुन का गांडीव धरता हूँ 

अभी कुछ चुप हूँ 

समय का इंतज़ार करता हूँ 

एक दिन मैं ‘बड़वा’ बन 

सबको समेट लूँगा 

अगस्त्य-सा 

सागर को लील लूँगा 

क्रांति देने वाले और भोगने वालों को 

मुंडमाल में पिरो 

गले में पहन लूँगा 

तब मैं 

कुछ और कहलाऊँगा 

अभी तो केवल रोटी माँगता हूँ 

पेट भर! 

वे अब बोलते नहीं हैं 

वे बोलते नहीं थे

बिन बोले खाते 

बिन बोले पीते 

हँसते, गाते, रोते

पर वे बोलते नहीं थे

लकड़ियाँ काटते 

हल नाधते 

रोपनी-निकोनी करते 

कटनी के ‘झूम’ सजाते 

महुआ चुनते 

सखुए के बीज बटोरते 

कुसम-फूल बीनते

सिझाते 

बाँसों का जंगल का जंगल 

सूपों और टोकरियों में 

बिन डालते 

पर वे बोलते नहीं थे

भूख को भूख

प्यास को प्यास कहना 

आता नहीं था उन्हें

मार को मार 

अन्याय को अन्याय 

ज़ुल्म को ज़ुल्म कहना 

नहीं था उनकी सोच के दायरे में 

इसलिए बिना कहे, 

बिना बताए, 

बिना जताए

मर जाते थे वे लोग 

या जंगल छोड़ भाग जाते 

या 

भगा दिए जाते—

जड़ों से काटकर

ट्रकों में लाद 

रेल में साज कर 

कर्नाटक, असम, पंजाब 

भेज दिए जाते 

ज़रूरी सामान की तरह 

पर वे बोलते नहीं थे 

वे पूछते नहीं थे सवाल 

चूँकि वे सवाल करना जानते नहीं थे 

इसलिए उन्हें छोड़ दिया जाता 

उनके गाँवों में उग आए 

शहरों के जंगल में 

जहाँ उनका पूरा का पूरा पहाड़ 

पूरी की पूरी नदी 

और उसके बालू 

कंक्रीट के घरों में समा गई थी 

जहाँ उनकी नदी 

पिघलती लुक्क1 की काली परत-सी 

सख़्त हो सड़क बन गई 

जहाँ उनकी ज़मीन पर 

मेड़ नहीं 

दीवार खड़ी हो गई 

भट्ठे की चिमनी ने लील ली थी फ़सल

विस्फोटों ने बदल दिए जल-स्रोत

बिरवे सूखे 

धरती ऊसर 

चूँकि वे बोलते नहीं थे 

सोचने की बात तो दूर 

पर अब वे बोलने लगे हैं 

भूख को भोजन 

प्यास को पानी 

मार को लाठी कहना सीख गए हैं 

अब वे सुनने लगे हैं 

सड़क के नीचे बहती अपनी नदी की 

कल-कल, छल-छल 

अब वे सोचने लगे हैं 

इसलिए 

जड़ों की तलाश में 

लौटने लगे हैं 

वे शहर में 

लुक्क की नदी पर 

रिक्शा चलाते-चलाते

अपने फेफड़ों में हुए सुराख़ का राज

जान गए हैं 

इसलिए माँग रहे हैं हिसाब 

लौटाने की ज़िद कर रहे हैं 

अपने फेफड़ों की वह हवा 

जो धौंकनी-सी चलती उनकी साँसों में 

शहर को रिक्शा में ढोते-ढोते 

छोड़ी थी 

लुक्क की काली परतों से सख़्त 

होकर बहती 

सड़क की नदी पर 

वे अब बोलने लगे हैं 

भूख को भोजन 

प्यास को पानी 

मार को लाठी कहने लगे हैं

वे अब बोलने लगे हैं!

 

 

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