लंबे समय से लेखन के क्षेत्र में सक्रिय गगन गिल, न सिर्फ एक दशक तक बतौर जर्नलिस्ट अंग्रेजी अखबारों में काम कर चुकी हैं, बल्कि उन्होंने अनुवाद के क्षेत्र में भी काफी काम किया है। इसके अलावा उनकी एक पहचान यह भी है कि वे लोकप्रिय हिंदी लेखक निर्मल वर्मा की पत्नी भी हैं। फिलहाल अपनी कविता ‘मैं जब तक आई बाहर’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया है। आइए जानते हैं उनसे जुड़ी बातें।
पुरस्कार पाकर उत्साहित हैं

पिछले दिनों 21 भाषाओं के लिए घोषित साहित्य अकादमी पुरस्कार में 8 कविता संग्रह, 3 उपन्यास, 2 कहानी संग्रह, 3 निबंध, 3 साहित्यिक आलोचना, 1 नाटक और 1 शोध की पुस्तकें शामिल हैं। इन 21 भाषाओं में से फिलहाल हिंदी भाषा में पुरस्कार के लिए गगन गिल और इंग्लिश के लिए ईस्टरीन किरे का चुनाव किया गया है। इसके अलावा बांग्ला, डोंगरी और उर्दू भाषा में पुरस्कारों की घोषणा बाद में होगी और सारे पुरस्कार अगले वर्ष महिला दिवस के मौके पर 8 मार्च को दिए जाएंगे। गौरतलब है कि ये पुरस्कार 1 जनवरी 2018 से 31 दिसंबर 2022, यानी 5 वर्ष के दौरान पहली बार प्रकाशित की गई पुस्तकों के लिए घोषित किये गए हैं। फिलहाल पिछले 40 वर्षों से लेखन के क्षेत्र में सक्रिय गगन गिल इस पुरस्कार को पाकर काफी उत्साहित हैं। अपने साहित्यिक सफर को शानदार कहते हुए वे जहां इस पुरस्कार को पाकर खुश हैं, वहीं उन्हें अफ़सोस भी है कि ये पुरस्कार उन्हें उनके पति निर्मल वर्मा की अनुपस्थिति में मिला है।
करियर का शुरुआती दौर
19 नवंबर 1959 को नई दिल्ली में जन्मीं सुप्रसिद्ध कवयित्री गगन गिल वर्ष 1983 से लेकर 1993 तक टाइम्स ऑफ़ इंडिया और संडे ऑब्ज़र्वर नामक इंग्लिश न्यूजपेपर से जुड़ी रही हैं। हालांकि अपने करियर के शुरुआती दिनों में ही अपने पहले काव्य संग्रह ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ के लिए मिले भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से वे चर्चा का विषय बन गईं थीं। लगभग एक दशक तक इंग्लिश न्यूजपेपर में एडिटिंग डेस्क पर रहते हुए भी वे साहित्य रचती रही। उसके बाद 1992 में अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी जाकर उन्होंने एक साल का फेलोशिप किया। गौरतलब है कि 90 के दशक में अपनी स्त्री स्वर की कविताओं में वह जिस तरह अपने नए मुहावरों के साथ आई, उसे देखते हुए उन्हें कुछ लोगों ने महादेवी वर्मा का नाम भी दिया। अपनी कविताओं में स्त्री के दुखों और उदासियों को समाहित करनेवाली गगन गिल ने भारतीय महिलाओं की बेबसी को अपने चिर-परिचित किंतु एक अलग अंदाज से दर्शाया।
कहलाईं महादेवी वर्मा

ऐसा नहीं है कि अपनी कविताओं में उन्होंने स्त्री के दुखों और उदासियों का ही ताना-बाना परोसा हो। इससे इतर अपनी कविताओं में उन्होंने भारतीय चिंतन परंपराओं को भी उतनी ही शिद्द्त से दिखाया, जितना की उदासियों को तरजीह दी। अपनी कविताओं में जिस ख़ूबसूरती से उन्होंने अभिव्यक्ति के एक बाह्य स्पंदन के अंदर आंतरिक तनाव और दबाव का बाँध बनाया, ये भी काफी अनूठी बात रही है। हालांकि उनकी कविताओं के लिए यहां तक कहा गया कि वे अपनी कविताओं में दृढ़ता और संयम से एक नई खोज करती हैं। हालांकि साहित्य के क्षेत्र में कविताएं रचने का श्रेय वे जहां अपनी माँ डॉक्टर महेंद्र कौर गिल को देती हैं, वहीं उन्हें निखारने का श्रेय अपने पति निर्मल वर्मा को देती हैं। गौरतलब है कि गगन गिल की मां दिल्ली स्कूल में प्रधानाचार्य के साथ पंजाबी की एक सुप्रसिद्ध लेखिका भी थीं। उनके जरिए ही उन्हें साहित्य का बोध हुआ था और 1983 से उन्होंने भी कविताएं लिखनी शुरू कर दी थी।
परिवर्तन से नहीं घबराईं
सामाजिक रूप से घटित हो रहे बदलावों को लेकर उनका मानना है कि उन्होंने जीवन में कभी बदलावों से मुख नहीं मोड़ा, बल्कि जैसे परिवर्तन आते गए, उन्हें वे स्वीकार करती गईं। हालांकि इन बदलावों का फायदा उठाते हुए उन्होंने इसे अपनी भाषा बनाई और बिना कोई जल्दबाजी किए लिखती रहीं। अन्य महिला लेखिकाओं से भी वे यही कहती हैं कि सभी वर्जनाओं को तोड़कर वे लिखें, उन्हें सफलता जरूर मिलेगी। साथ ही परिवर्तन से घबराएं नहीं, बल्कि उन्हें अपना हथियार बनाएं। हालांकि देश में समय-समय पर आती गई विसंगतियों को भी उन्होंने अपनी कविता का स्वर बनाया, जिसका उदाहरण है उनकी कविता ‘एक गऊ मेरे भीतर है, जिसे कटने का डर है’। हालांकि जाहिर तौर पर उनकी यह कविता सांप्रदायिक द्वेष की तरफ इशारा करती है, लेकिन वे आनेवाली व्यवस्था के प्रति सकारात्मक भी हैं।
संपूर्ण साहित्यिक कृतियाँ

फिलहाल अपनी आगामी कृतियों को लेकर भी वे काफी आशान्वित हैं। उनके पाठकों के लिए जल्द ही उनकी दो पुस्तकें आनेवाली हैं। उन्हें यकीन है कि पिछली रचनाओं की तरह ये भी उनके पाठकों को बेहद पसंद आएंगी। गौरतलब है कि 35 वर्ष की साहित्यिक यात्रा में अब तक उनकी पांच कविता संग्रह और चार गद्य संग्रह आ चुके हैं, जिनमें वर्ष 1989 में आई ‘एक दिन लौटेगी लड़की’, वर्ष 1996 में आई ‘अँधेरे में बुद्ध’, वर्ष 1998 में आई ‘यह आकांक्षा समय नहीं’, वर्ष 2003 में आई ‘थपक थपक दिल थपक थपक’ और वर्ष 2018 में आई ‘मैं जब तक बाहर आई’ ये 5 कविता संग्रह और वर्ष 2000 में आई ‘उनींदें’, वर्ष 2008 में आई ‘अवाक’, वर्ष 2018 में आई ‘देह की मुंडेर पर’ और ‘इत्यादि’ नामक ये 4 गद्य संग्रह हैं। इसके अलावा वर्ष 2008 में कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर आधारित यात्रा वृत्तांत भी शामिल है, जिसे बीबीसी की तरफ से सर्वश्रेष्ठ यात्रा वृत्तांत के तौर पर चुना गया था।
सम्मान और पुरस्कार
जर्मनी और इंग्लैंड के कई शहरों में कविता पाठ के लिए गईं गगन गिल भारतीय प्रतिनिधि लेखक मंडल के सदस्य के तौर पर चीन, फ्रांस, मॉरीशस, मैक्सिको, ऑस्ट्रिया, इटली, तुर्की, बुल्गारिया, कंबोडिया, लाओस और इंडोनेशिया जैसे देशों की यात्राएं कर चुकी हैं। फिलहाल इस वर्ष मिले साहित्य अकादमी पुरस्कार के अलावा साहित्य सेवा के लिए उन्हें वर्ष 1984 में भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, वर्ष 1989 में संस्कृति सम्मान, वर्ष 2000 में केदार सम्मान, वर्ष 2008 में हिंदी अकादमी साहित्यकार सम्मान और वर्ष 2010 में द्विजदेव सम्मान मिल चुका है।
पुरस्कार के लिए चुनी गई कविता ‘मैं जब तक आर्ई बाहर’
मैं जब तक आई बाहर
एकांत से अपने
बदल चुका था
रंग दुनिया का
अर्थ भाषा का
मंत्र और जप का
ध्यान और प्रार्थना का
कोई बंद कर गया था
बाहर से
देवताओं की कोठरियाँ
अब वे खुलने में न आती थीं
ताले पड़े थे तमाम शहर के
दिलों पर
होंठों पर
आँखें ढँक चुकी थीं
नामालूम झिल्लियों से
सुनाई कुछ पड़ता न थ
मैं जब तक आई बाहर
एकांत से अपने
रंग हो चुका था लाल
आसमान का
यह कोई युद्ध का मैदान था
चले जा रही थी
जिसमें मैं
लाल रोशनी में
शाम में
मैं इतनी देर में आई बाहर
कि योद्धा हो चुके थे
अदृश्य
शहीद
युद्ध भी हो चुका था
अदृश्य
हालाँकि
लड़ा जा रहा था
अब भी
सब ओर
कहाँ पड़ रहा था
मेरा पैर
चीख़ आती थी
किधर से
पता कुछ चलता न था
मैं जब तक आई बाहर
ख़ाली हो चुके थे मेरे हाथ
न कहीं पट्टी
न मरहम
सिर्फ़ एक मंत्र मेरे पास था
वही अब तक याद था
किसी ने मुझे
वह दिया न था
मैंने ख़ुद ही
खोज निकाला था उसे
एक दिन
अपने कंठ की गूँ-गूँ में से
चाहिए थी बस मुझे
तिनका भर कुशा
जुड़े हुए मेरे हाथ
ध्यान
प्रार्थना
सर्वम शांति के लिए
मंत्र का अर्थ मगर अब
वही न था
मंत्र किसी काम का न था
मैं जब तक आई बाहर
एकांत से अपने
बदल चुका था मर्म
भाषा का