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होम / एन्गेज / साहित्य / किताब-घर

गाँव की याद दिलाएगी साहित्य में छुपी ये रचनाएं

शिखा शर्मा |  नवंबर 18, 2022

ज़िंदगी में आगे बढ़ते-बढ़ते गाँव कहीं पीछे ही छूट गया है। पीपल का पेड़, पगड़डियां, खेतों की हवा छोड़ इंसान शहरी बाबू तो बन जाता है, मगर अपनी मिट्टी से उसका नाता कभी नहीं टूटता। कभी अपने आँगन को याद करते हुए कोई डाइनिंग टेबल छोड़ कर नीचे बैठकर खाना खाता है ,तो कोई साल में एक बार छुट्टियां मनाने गाँव जरूर जाता है। लेकिन, इन सबके बीच कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने अपने गाँव को शब्दों की दुनिया दी है। कई बड़े कवियों ने अपने शब्दों में गाँव की खुशबू बिखेरी है। आइए जानते हैं साहित्य में छुपी गाँव की याद दिलाती कुछ शानदार रचनाएं।

गाँव आ कर जो अपना घर देखा

गाँव आ कर जो अपना घर देखा

दिल को आज़ुर्दा किस क़दर देखा

घर था ख़ामोश ऊँघती गलियाँ

एक सन्नाटा सर-बसर देखा

आशियाँ था जो हम परिंदों का

तन्हा तन्हा सा वो शजर देखा

किस के शाने पे रख के सर रोते

कोई रिश्ता न मो'तबर देखा

खेत खलियान साथ रोने लगे

रोता हम को जो इस क़दर देखा

ऐश-ओ-इशरत की याद आई बहुत

हम ने बचपन में झाँक कर देखा

याद पापा की ख़ूब आई 'सुहैब'

हम ने बच्चों को डाँट कर देखा

— सुहैब फ़ारूक़ी

शहर ने कहा गाँव ने कहा

शहर हँसा और हँसते-हँसते गाँव से बोला सुनो-सुनो

ऊँचे हैं मीनार मिरे

बड़े बड़े बाज़ार मिरे

कारें सब चमकीली हैं

बसें भी नीली पीली हैं

मिल भी हैं मशहूर बहुत

मेहनत-कश मज़दूर बहुत

गाँव हँसा और हँसते हँसते शहर से बोला सुनो सुनो

फ़स्लें मेरी हरी हरी

गेहूँ की बालीं भरी-भरी

लोग जो सीधे सादे हैं

धरती के शहज़ादे हैं

सारे घर आबाद रहें

बसने वाले शाद रहें

हम कहते हैं दोनों ही तुम

अपनी जगह पर सच्चे हो

अपनी जगह पर अच्छे हो

— रईस फ़रोग़

अपने गांव में

जब किसी फ़ुर्सत में हम आते हैं अपने गाँव में

क्या बताएँ क्या ख़ुशी पाते हैं अपने गाँव में

रोज़ घर से हम निकलते हैं टहलने के लिए

साथ हो जाते हैं कुछ बच्चे भी चलने के लिए

कब कमी होती है कुछ भी दिल बहलने के लिए

प्यार के जब गीत हम गाते हैं अपने गाँव में

क्या बताएँ क्या ख़ुशी पाते हैं अपने गाँव में

साफ़ पानी लहलहाते खेत पाकीज़ा हवा

सीधे सादे लोग फिर उस की मोहब्बत की अदा

कब कमी होती है कुछ भी दिल बहलने के लिए

प्यार के जब गीत हम गाते हैं अपने गाँव में

क्या बताएँ क्या ख़ुशी पाते हैं अपने गाँव में

उस की मिट्टी से बने उस की हवाओं में बढ़े

फूल की सूरत उसी की गोद में हम भी खिले

आज भी क़ाएम हैं उस की शफ़क़तों के सिलसिले

हम कहीं हों दिल मगर पाते हैं अपने गाँव में

क्या बताएँ क्या ख़ुशी पाते हैं अपने गाँव में

— शबनम कमाली

गाँव में अब गाँव जैसी बात भी बाक़ी नहीं

गाँव में अब गाँव जैसी बात भी बाक़ी नहीं

यानी गुज़रे वक़्त की सौग़ात भी बाक़ी नहीं

तितलियों से हल्के-फुल्के दिन न जाने क्या हुए

जुगनुओं सी टिमटिमाती रात भी बाक़ी नहीं

मुस्कुराहट जेब में रक्खी थी कैसे खो गई

हैफ़ अब अश्कों की वो बरसात भी बाक़ी नहीं

बुत-परस्ती शेव-ए-दिल हो तो कोई क्या करे

अब तो काबे में हुबल और लात भी बाक़ी नहीं

छत पे जाना चाँद को तकना किसी की याद में

वक़्त के दामन में वो औक़ात भी बाक़ी नहीं

— राग़िब अख़्तर

शहर मेरी मजबूरी गाँव मेरी आदत है

शहर मेरी मजबूरी गाँव मेरी आदत है

एक सानेहा मुझ पर इक मिरी विरासत है

ये भी इक करिश्मा है बीसवीं सदी तेरा

मौत के शिकंजे में ज़िंदगी सलामत है

फिर 'अनीस' मिम्बर पर मर्सिया पढ़ें आ कर

कर्बला ये दुनिया है हर घड़ी शहादत है

जैसे चाहे जी लीजे फेंकिए या पी लीजे

ज़िंदगी तो हर घर में चार दिन की मोहलत है

वक़्त के बदलने से दिल कहाँ बदलते हैं

आप से मोहब्बत थी आप से मोहब्बत है

मुस्कुरा के खुल जाना खुल के फिर बिखर जाना

इन दिनों तो फूलों में आप सी शरारत है

एक सदा ये आती है मेरी ख़्वाब-गाहों में

दिल को चैन आ जाना दर्द की अलामत है

तू गया नमाज़ों में मैं गया जवाज़ों में

वो तिरी इबादत थी ये मिरी इबादत है

मेरी राय पूछो तो ये बुरी-भली दुनिया

आप जितने अच्छे हैं उतनी ख़ूबसूरत है

— नाज़िम नक़वी

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