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होम / एन्गेज / साहित्य / किताब-घर

कविताएं जो दर्शाती है औरतों का सशक्त चेहरा

टीम हर सर्कल |  दिसंबर 28, 2023

औरतों के जीवन पर वैसे तो कई बड़े-बड़े शायरों और लेखकों ने अपने शब्दों को पिरोया है और ये सभी शब्द एकदम लोगों के दिल तक पहुंचे हैं । महिलाओं पर हो रहे अत्याचार हों  या उनके जीवन का दुख भरा सार, आपने ऐसी कई कविताएं पढ़ी होंगी। हालांकि, कुछ लेखकों ने अपनी कलम से औरतों का सशक्त चेहरा भी लोगों के सामने लाने की कोशिश की है। आइए हमारे साथ पढ़ें, कुछ ऐसी कविताएं, जिन्हें पढ़कर औरत का एक अलग चेहरा आपकी जहन में आएगा।

मैं अबला नादान नहीं हूं, दबी हुई पहचान नहीं हूं।

मै स्वाभिमान से जीती हूं,

रखती अंदर खुद्दारी हूं।

मैं आधुनिक नारी हूं।

पुरुष प्रधान जगत में मैंने, अपना लोहा मनवाया।

जो काम मर्द करते आये, हर काम वो करके दिखलाया

मै आज स्वर्णिम अतीत सदृश, फिर से पुरुषों पर भारी हूं

मैं आधुनिक नारी हूं।

मैं सीमा से हिमालय तक हूं, और खेल मैदानों तक हूं।

मै माता,बहन और पुत्री हूं, मैं लेखक और कवयित्री हूं

अपने भुजबल से जीती हूं, बिजनेस लेडी, व्यापारी हूं

मैं आधुनिक नारी हूं।

जिस युग में दोनों नर-नारी, कदम मिला चलते होंगे

मै उस भविष्य स्वर्णिम युग की, एक आशा की चिंगारी हूं

मैं आधुनिक नारी हूं।

— रणदीप चौधरी

औरत हूं मगर सूरत-ए-कोहसार खड़ी हूं

इक सच के तहफ्फुज के लिए सब से लड़ी हूं

वो मुझ से सितारों का पता पूछ रहा है

पत्थर की तरह जिस की अंगूठी में जड़ी हूं

अल्फाज न आवाज न हमराज न दम-साज

ये कैसे दोराहे पे मैं खामोश खड़ी हूं

इस दश्त-ए-बला में न समझ खुद को अकेला

मैं चोब की सूरत तिरे खेमे में गड़ी हूं

फूलों पे बरसती हूं कभी सूरत-ए-शबनम

बदली हुई रुत में कभी सावन की झड़ी हूं

— फरहत जाहिद

लज्जत-ए-दीद से देखोगे मचल जाओगे

आग हूं हाथ लगाओगे तो जल जाओगे

मोम पत्थर को बना दूं वो असर रखती हूं

पांव श'लों पे तो तलवार पे सर रखती हूं

ये बहारें ये उमंगें ये मसर्रत ये शबाब

ये शफक-रंग मनाजिर ये शगूफे ये गुलाब

ये नवाजिश ये इनायात कहां पाओगे

रब से बख्शी हुई सौगात कहां पाओगे

मेरी जुल्फों ही की बरसात से सैराब हो तुम

फूल की तरह मिरे साए में शादाब हो तुम

मुख्तसर ये कि मुझे प्यार से पा सकते हो

तुम मिरे दिल के गुलिस्तान में आ सकते हो

गर मिरी जात का इरफान तुम्हें मिल जाए

ये जमीं क्या है आसमान तुम्हें मिल जाए

हैसियत क्या है मिरी और हकीकत क्या है

मैं बताती हूं तुम्हें मेरी फजीलत क्या है

एक आदम के अलावा कोई इंसान न था

मैं न होती तो तुम्हारा कोई इम्कान न था

— असद रिजवी

जख्म को फूल कहें नौहे को नग्मा समझें

इतने सादा भी नहीं हम कि न इतना समझें

जख्म का अपने मुदावा किसे मंजूर नहीं

हां मगर क्यों किसी कातिल को मसीहा समझें

खुद पे ये जुल्म गवारा नहीं होगा हम से

हम तो शोलों से न गुजरेंगे न सीता समझें

छोड़िए पैरों में क्या लकड़ियां बांधे फिरना

अपने कद से मिरा कद शौक से छोटा समझें

कोई अच्छा है तो अच्छा ही कहेंगे हम भी

लोग भी क्या हैं जरा देखिए क्या क्या समझें

हम तो बेगाने से खुद को भी मिले हैं 'बिलकीस'

किस तवक्कों' पे किसी शख्स को अपना समझें

— बिलकीस जफीरूल हसन

वो कैसी औरतें थीं

जो गीली लकड़ियों को फूंक कर चूल्हा जलाती थीं

जो सिल पर सुर्ख मिर्चें पीस कर सालन पकाती थीं

सहर से शाम तक मसरूफ लेकिन मुस्कुराती थीं

भरी दोपहर में सर अपना जो ढक कर मिलने आती थीं

जो पंखे हाथ के झलती थीं और बस पान खाती थीं

जो दरवाजे पे रुक कर देर तक रस्में निभाती थीं

पलंगों पर नफासत से दरी चादर बिछाती थीं

ब-सद इसरार मेहमानों को सिरहाने बिठाती थीं

अगर गर्मी ज्यादा हो तो रूह-अफ्जा पिलाती थीं

जो अपनी बेटियों को स्वेटर बुनना सिखाती थीं

सिलाई की मशीनों पर कड़े रोजे बताती थीं

कोई साइल जो दस्तक दे उसे खाना खिलाती थीं

पड़ोसन मांग ले कुछ बा-खुशी देती दिलाती थीं

जो रिश्तों को बरतने के कई नुस्खें बताती थीं

मोहल्ले में कोई मर जाए तो आंसू बहाती थीं

कोई बीमार पड़ जाए तो उस के पास जाती थीं

कोई तेहवार हो तो खूब मिल-जुल कर मनाती थीं

वो कैसी औरतें थीं

मैं जब घर अपने जाती हूं तो फुर्सत के जमानों में

उन्हें ही ढूंढती फिरती हूं गलियों और मकानों में

किसी मीलाद में जुजदान में तस्बीह दानों में

किसी बरामदे के ताक पर बावर्ची खानों में

मगर अपना जमाना साथ ले कर खो गई हैं वो

किसी इक कब्र में सारी की सारी सो गई हैं वो

— असना बद्र

इन सभी शब्दों के बीच कहीं आप अपने आपको पाती हैं तो अपने विचार हमारे साथ जरूर शेयर करें।

 

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