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होम / एन्गेज / साहित्य / किताब-घर

'माँ' पर आधारित रचनाएं

टीम Her Circle |  जून 02, 2024

‘माँ’ के लिए एक दिन काफी नहीं, हर दिन ही मां से है, तो आइए पढ़ते हैं माँ से जुड़ीं कुछ नज्में। 

निदा फ़ाज़ली की नजर में ‘माँ ’
बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ 

याद आती है! चौका बासन चिमटा फुकनी जैसी माँ 

बाँस की खर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे 

आधी सोई आधी जागी थकी दो-पहरी जैसी माँ 

चिड़ियों की चहकार में गूँजे राधा मोहन अली अली 

मुर्ग़े की आवाज़ से बजती घर की कुंडी जैसी माँ 

बीवी बेटी बहन पड़ोसन थोड़ी थोड़ी सी सब में 

दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी माँ 

बाँट के अपना चेहरा माथा आँखें जाने कहाँ गई 

फटे पुराने इक एल्बम में चंचल लड़की जैसी माँ 

मुन्नवर राणा की नजर में ‘माँ’

1 . चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है

मैं ने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है

2 .कल अपने-आप को देखा था 'माँ 'की आँखों में

ये आईना हमें बूढ़ा नहीं बताता है

अब्बास ताबिश की नजर में ‘माँ’ 

एक मुद्दत से मिरी माँ नहीं सोई 'ताबिश'

मैं ने इक बार कहा था मुझे डर लगता है

हबीब जालिब की नजर में 'माँ'

बच्चों पे चली गोली

माँ देख के ये बोली

ये दिल के मिरे टुकड़े

यूँ रोए मिरे होते

मैं दूर खड़ी देखूँ

ये मुझ से नहीं होगा

मैं दूर खड़ी देखूँ

और अहल-ए-सितम खेलें

ख़ूँ से मिरे बच्चों के

दिन रात यहाँ होली

बच्चों पे चली गोली

माँ देख के ये बोली

ये दिल के मिरे टुकड़े

यूँ रोएँ मिरे होते

मैं दूर खड़ी देखूँ

ये मुझ से नहीं होगा

मैदाँ में निकल आई

इक बर्क़ सी लहराई

हर दस्त-ए-सितम काँपा

बंदूक़ भी थर्राई

हर सम्त सदा गूँजी

मैं आती हूँ मैं आई

मैं आती हूँ मैं आई

हर ज़ुल्म हुआ बातिल

और सहम गए क़ातिल

जब उस ने ज़बाँ खोली

बच्चों पे चली गोली

उस ने कहा ख़ूँ-ख्वारो!

दौलत के परस्तारो

धरती है ये हम सब की

इस धरती को ना-दानो!

अंग्रेज़ के दरबानो

साहिब की अता-कर्दा

जागीर न तुम जानो

इस ज़ुल्म से बाज़ आओ

बैरक में चले जाओ

क्यूँ चंद लुटेरों की

फिरते हो लिए टोली

बच्चों पे चली गोली

अख़्तर नज़्मी की नजर में 'माँ'

भारी बोझ पहाड़ सा कुछ हल्का हो जाए

जब मेरी चिंता बढ़े माँ सपने में आए

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