img
हेल्प
settings about us
  • follow us
  • follow us
write to us:
Hercircle.in@ril.com
terms of use | privacy policy � 2021 herCircle

  • होम
  • कनेक्ट
  • एक्स्क्लूसिव
  • एन्गेज
  • ग्रो
  • गोल्स
  • हेल्प

search

search
all
communities
people
articles
videos
experts
courses
masterclasses
DIY
Job
notifications
img
Priority notifications
view more notifications
ArticleImage
होम / एन्गेज / साहित्य / किताब-घर

हिंदी साहित्य में प्रकृति के अलग-अलग स्वरूप

टीम Her Circle |  सितंबर 13, 2024

पर्यावरण की पोषक रही भारतीय संस्कृति में प्रकृति जहाँ पूजनीय रही है, वहीं साहित्य में प्रकृति को आलंबन, उद्दीपन, उपदेशक, सखी-सहचरी, नायक-नायिका के साथ सहयोगिनी के रूप में दिखाया गया है। आइए जानते हैं हिंदी साहित्य में प्रकृति को किस तरह दर्शाया गया है। 

प्रकृति के अलग-अलग रूप 

Image courtesy : @amazon.in

आदिकाल हो, मध्यकाल हो या आधुनिक काल हो, इन सभी कालों में भले ही अलग-अलग कालखंड के अनुरूप रचनाएं हुई हों, किंतु इन सभी में हिंदी साहित्यकारों द्वारा रचित प्रकृति प्रधान रचनाओं ने सदैव पाठकों का मन मोहा है। साहित्यकारों के लिए प्रकृति कभी सौंदर्य बोध की कल्पना है, तो कभी कल्पना का विलक्षण लोक, कभी अनुभूति का सागर है तो कभी प्रेरणा है, कभी सखी है तो कभी सहचरी है। यही वजह है कि अधिकतर साहित्यकारों ने अपने काव्यों, कहानियों, नाटकों और उपन्यासों में प्रकृति का बड़ी ही खूबसूरती से वर्णन किया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार प्रकृति के उपयोगी और विश्लेषणात्मक रूप का विचार करनेवाला मनुष्य वैज्ञानिक है और उसके सौंदर्य का बखान करनेवाला व्यक्ति भावुक है। इसका मतलब यह है कि दोनों के दृष्टिकोण में ज़मीन-आसमान का अंतर होने के बावजूद दोनों प्रकृति से संबंध स्थापित करते हैं। 

रीतिकालीन काव्यों में प्रकृति 

महाकवि कालिदास ने जहाँ ‘रघुवंश’ में प्रकृति के विविध स्वरूपों का वर्णन करते हुए प्रकृति का उपयोग राम-सीता के प्रेम प्रसंगों को दर्शाने के लिए किया है, वहीं अपनी चर्चित कृति ‘मेघदूत’ में नायक यक्ष, नायिका को अपनी विरह गाथा सुनाने के लिए मेघ को दूत बनाकर भेजते हैं। इसके अलावा ‘कुमारसंभवम’ में भी उन्होंने प्रकृति को काफी महत्व दिया है। महाकवि कालिदास के अलावा रीतिकालीन कवियों ने भी अपनी कविताओं में प्रकृति का विशद वर्णन किया है। उदाहरण स्वरूप चंद बरदाई की ‘पृथ्वीराज रासो’ में जहाँ विभिन्न ऋतुओं का वर्णन किया गया है, वहीं मलिक मोहम्मद जायसी की ‘पद्मावत’ महाकाव्य में प्रकृति का सुंदर वर्णन किया गया है। गौरतलब है कि आदिकाल से लेकर अब तक का साहित्य टटोला जाए तो पता चलता है कि अपभ्रंश काल में जहाँ स्वयंभू और पुण्यदंत की रचनाओं में नदी, पर्वत, जंगल और समुद्र का वर्णन मिलता है, वहीं संदेश रासक जैसे अति प्राचीन रचनाओं में मानों पूरी प्रकृति समाई हुई है। 

छायावादी कवियों के लिए प्राण रही है प्रकृति

Image courtesy : @hindi.shabd.in

आधुनिक युग में भारतेन्दु युग कई बदलावों का युग था, ऐसे में प्रकृति वर्णन में भी काफी बदलाव आए। रीतिकालीन काव्य की रूढ़िबद्ध शैलियों की सीमाओं को तोड़कर कवियों ने स्वच्छंदता के साथ प्रकृति का वर्णन किया। इस परिप्रेक्ष्य में श्रीधर पाठक की ‘काश्मीर सुषमा’ इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। गौरतलब है कि विद्यापति की रचनाओं में श्रृंगार रस की प्रधानता होने के बावजूद बारहमासा और षटऋतु का बड़ा ही खूबसूरत चित्रण मिलता है। हालांकि उनके बाद के कवियों ने प्रकृति को प्रमुखता से अपनी रचनाओं में स्थान दिया, जिनमें मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, गयाप्रसाद शुक्ल स्नेही, श्यामनारायण पाण्डेय, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, जयशंकर प्रसाद, महाप्राण ‘निराला’ सुमित्रांनदन पंत और महादेवी वर्मा का नाम उल्लेखनीय है। इनमें ‘प्रकृति के सुकुमार कवि’ के रूप में अपनी अलग पहचान रखनेवाले सुमित्रानंदन पंत की संपूर्ण रचनाएं ही प्राकृतिक सुषमा से सराबोर हैं। अगर ये कहें तो गलत नहीं होगा कि छायावादी युग के कवियों ने प्रकृति को प्राण माना है। 

समकालीन कविताओं में प्रकृति का बिगड़ा स्वरूप  

हिंदी के समकालीन कवियों में केदारनाथ सिंह, अरुण  कमल, ज्ञानेंद्रपति, लीलाधर जगुड़ी, किशोरी लाल व्यास, रामदरश मिश्र और निर्मला पुतुल की कविताओं में प्रकृति के अलग-अलग स्वरूप नजर आते हैं। छायावादी कविताओं में जहाँ प्रकृति प्रेयसी रूप में थी, वहीं समकालीन कविताओं में प्रकृति के बिगड़े स्वरूप के दर्शन होते हैं। केदारनाथ सिंह अपनी कविता ‘पानी की प्रार्थना’ में लिखते हैं, “अंत में प्रभु / अंतिम लेकिन सबसे ज़रूरी बात / वहाँ होंगे मेरे भाई-बंधु / मंगल ग्रह या चाँद पर / पर यहाँ पृथ्वी पर मैं / यानी आपका मुँहलगा यह पानी / अब दुर्लभ होने के कगार पर तक / पहुँच चुका है।” 

उपन्यासों ने भी सहेजे प्रकृति की सुषमा

Image courtesy : @prayog.pustak.org

हिंदी उपन्यासों में भी प्रकृति को काफी महत्व दिया गया है। इनमें फणीश्वरनाथ रेणु की ‘मैला आँचल’ और नागार्जुन की ‘बाबा बटेसरनाथ’ उल्लेखनीय उपन्यास है। इन दोनों उपन्यासों में वैदिक रीतियों अनुसार नदी और वृक्षों को पूजनीय बताया गया है। ‘मैला आँचल’ उपन्यास में लेखक ने कमला नदी को पूजनीय बताते हुए उसे मनुष्य की सहयोगिनी बताया है। ‘बाबा बटेसरनाथ’ में लेखक ने बरगद के वृक्ष को मनुष्य रूप में ढ़ालकर चित्रित किया है, जिसके अंतर्गत पुत्र की तरह पाले गए बरगद के पेड़ से सभी अपना सुख-दुःख आकर कहते हैं। जिस प्रकृति को कवियों और कहानीकारों ने माँ, देवी, सखी, सहचरी और कल्याणकारी माना था, आज उसकी दुर्गति हो रही है। इस संदर्भ में नासिरा शर्मा की ‘कुइंयाजान’, महुआ माजी की ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’, कुसुम कुमार की ‘मीठी नीम’, नवीन जोशी की ‘दावानल’ रमेश दवे की ‘हरा आकाश’, रत्नेश्वर की ‘एक लड़की पानी-पानी’ और एसआर हरनोट की ‘नदी रंग जैसी लड़की’ उपन्यास उल्लेखनीय है। इन उपन्यासों की विशेषता यह है कि इनमें सिर्फ प्रकृति प्रदूषण से आए बदलाव ही नहीं बताए गए हैं, बल्कि प्रकृति को बचाने के अनेक उपाय भी सुझाए गए हैं।

कहानियों में प्रकृति चित्रण

कविताओं के अलावा प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, मार्कण्डेय और फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी कहानियों में प्रकृति का चित्रण सौंदर्य, सहयोगी और वातावरण निर्माण के रूप में किया है, लेकिन आज के कहानीकार पर्यावरण प्रदूषण से होनेवाली समस्याओं पर लिख रहे हैं। इनमें राजेश जोशी की ‘कपिल का पेड़’, सतीश दुबे की ‘पेड़ों की हँसी’, चित्रा मुद्गल की ‘जंगल’, अमरीक सिंह की ‘एक कोई और’, सुशांत सुप्रिय की ‘पिता के नाम’ और मृदुला गर्ग की ‘इक्कीसवीं सदी का पेड़’ और ‘एक भी चिड़िया नहीं चहचहाएगी’ कहानियां प्रमुख हैं। इनमें  मृदुला गर्ग की कहानी ‘एक भी चिड़िया नहीं चहचहाएगी’, जहाँ भोपाल गैस त्रासदी की घटना पर आधारित है, वहीं अमरीक सिंह की कहानी ‘एक कोई और’ में लेखक ने लगातार प्रदूषित होती जा रही नदियों पर चिंता व्यक्त की है।

हिंदी नाटकों में प्रकृति

Image courtesy : @rajmangalpublishers.com

हिंदी नाटकों के अंतर्गत भारतेन्दु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, मोहन राकेश और जगदीशचंद्र माथुर आदि के नाटकों में प्रकृति चित्रण बड़ी ही ख़ूबसूरती से हुआ है। मैथिलीशरण गुप्त के नाटक, ‘तिलोत्तमा’, ‘चंद्रहास’ और ‘अनघ’ में प्रकृति की सुंदरता का वर्णन कई रूपों में मिलता है। हालांकि आज प्रकृतिप्रदत्त नाटकों की विषयवस्तु बदल चुकी है। अब खूबूसरती की जगह लेखक उसके बिगड़ते स्वरूप पर चिंता ज़ाहिर करते नज़र आते हैं। इनमें मनीष कुमार पाण्डेय का बिरसा मुंडा के जीवन पर आधारित नाटक ‘धरती आबा’ उल्लेखनीय है। इसमें आदिवासियों के जल, जंगल और ज़मीन के संघर्ष की कहानी है। इसके अलावा पानी के लगातार घटते जा रहे स्तर को ध्यान में रखकर लिखे गए राजेश जैन रचित नाटक ‘सपना मेरा यही सखी’ भी प्रमुख है। वे लिखते हैं, “पहले चार कोस पर थी नदी / अब चार कोस तक नहीं पता उसका / दूर-दूर तक भटकते हैं पाँव / पानी को ढूंढते भटकते हैं पाँव।

ललित निबंध और प्रकृति 

काव्यों, महाकाव्यों, कहानियों और उपन्यासों के साथ प्रकृति को केंद्र में रखकर हिंदी साहित्य में कुछ ललित निबंध भी लिखे गए हैं। इनमें आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंधों का उल्लेख विशेष रूप से किया जा सकता है, क्योंकि उनके निबंधों का नामकरण ही प्रकृति के उपादानों को ध्यान में रखकर किया गया है, जैसे फूल, वृक्ष, ऋतुएं आदि। हालांकि कहानियों और उपन्यासों का अनुसरण करते हुए इन निबंधों में भी प्रकृति दोहन के मुद्दे को प्रमुखता से उठाया गया है। इनमें नर्मदा प्रसाद उपाध्याय का ‘गुलमोहर गर्मियों के’, श्यामसुंदर दुबे  का ‘जल को मुक्त करो’ और कविता वाचक्नवति का ‘यमुना तीरे’ प्रमुख है। ‘जल को मुक्त करो’ में लेखक ने जहाँ वर्तमान और भविष्य में होनेवाली जल समस्याओं के विषय में लिखा है, वहीं ‘यमुना तीरे’ में लेखिका प्रदूषित यमुना नदी का दुःख बयान कर रही हैं। 

 

शेयर करें
img
लिंक कॉपी किया!
edit
reply
होम
हेल्प
वीडियोज़
कनेक्ट
गोल्स
  • © herCircle

  • फॉलो अस
  • कनेक्ट
  • एन्गेज
  • ग्रो
  • गोल्स
  • हेल्प
  • हमें जानिए
  • सेटिंग्स
  • इस्तेमाल करने की शर्तें
  • प्राइवेसी पॉलिसी
  • कनेक्ट:
  • email हमें लिखें
    Hercircle.in@ril.com

  • वीमेंस कलेक्टिव

  • © 2020 her circle