सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि पूरे देश की पहली दलित महिला लेखिका होने का गौरव प्राप्त करनेवाली मुक्ता साल्वे को ये पहचान मिली थी एक निबंध के कारण, जिसे उन्होंने मात्र 14 वर्ष में लिखा था। वर्ष 1855 में दलितों की परेशानियों को लेकर लिखा गया उनका यह निबंध, सामाजिक असमानता पर तीखा प्रहार था। आइए जानते हैं उनसे जुड़ी खास बातें।
अपने निबंध में पिरोया अछूतों का दुःख

image courtesy: @phulememorial
अपने स्कूली दिनों में मुक्ता साल्वे ने घर परिवार और समाज में दलितों की चिंताग्रस्त अवस्था को देखते हुए एक निबंध लिखा था, जिसका विषय था ‘मांग महाराचेया दुखविसाई’ (मांग और महार की पीड़ाएं)। माना जाता है कि उनके द्वारा लिखा गया यह निबंध दलित स्त्री साहित्य की दिशा में पहला कदम था, जिसे आज भी याद किया जाता है। दिलचस्प बात यह है कि इस निबंध के बाद मुक्ता साल्वे द्वारा लिखा गया कोई लेख या कोई पुस्तक इतिहास में दर्ज नहीं हुई, लेकिन अपने इस एक निबंध से ही उन्होंने पहली पहली दलित महिला लेखिका होने का गौरव प्राप्त कर लिया। हालांकि काफी लोगों का यह भी कहना है कि इस निबंध के अलावा भी मुक्ता साल्वे ने काफी कुछ लिखा था, जिसे उच्च जाति के लोगों ने नष्ट कर दिया था। पुणे में जब स्त्री शिक्षा की शुरुआत के साथ ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले ने स्कूल शुरू किया था, तो मुक्ता उनके स्कूल की पहली छात्रा थी। 1840 में पुणे में जन्मीं मुक्ता साल्वे का जन्म मांग जाति में हुआ था, जो उस दौर में अछूत मानी जाती थी। उस दौर में समाज में अपना वर्चस्व स्थापित करनेवाली उच्च जातियों ने लड़कियों के साथ अछूत मानी जानेवाली दलित समुदाय को भी शिक्षा से दूर रखा था।
फुले दंपत्ति के स्कूल की छात्रा थीं मुक्ता साल्वे

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ऐसे समय में जब क्रिश्चन मिशनरियों ने स्त्री शिक्षा को प्राथमिकता देते हुए हिंदुस्तानी लड़कियों के लिए स्कूल खोले, तब पुणे में फुले दंपत्ति ने भी लड़कियों के लिए एक स्कूल की शुरुआत की और 11 वर्ष की उम्र में मुक्ता साल्वे स्कूल पहुंची। फुले दंपत्ति द्वारा पुणे के विभिन्न स्थानों पर शुरू किए गए स्कूलों में कई लोगों ने उनका समर्थन किया था, जिनमें एक थे क्रांतिगुरु उस्ताद के नाम से प्रख्यात लाहुजी साल्वे, जो पुणे के वेताल क्षेत्र में मार्शल आर्ट प्रशिक्षण केंद्र चलाते थे। मुक्ता साल्वे उन्हीं की सुपुत्री थी। मुक्ता साल्वे, फुले दंपत्ति द्वारा पुणे के वेताल में शुरू किए गए तीसरे स्कूल की पहली छात्रा ही नहीं, बल्कि महार और मांग समुदाय से स्कूल जानेवाली पहली लड़की भी थीं। महज तीन वर्ष तक स्कूली पढ़ाई करनेवाली मुक्ता साल्वे ने जिस परिपक्वता के साथ मांग और महार के दुखों की अंतहीन कहानी को अपने निबंध में संजोया, वो आज दलित महिला द्वारा लिखी गई पहली पुस्तक के रूप में अमर हो चुकी है। गौरतलब है कि मुक्ता साल्वे द्वारा लिखा गया यह निबंध वर्ष 1855 में क्रिश्चन मिशनरी के साप्ताहिक पत्र ज्ञानोदय में दो भागों में छपा था। उसके बाद इस निबंध को ब्रिटिश सरकार ने बॉम्बे स्टेट एजुकेशनल रिपोर्ट में भी प्रकाशित किया था।
निबंध में ब्राह्मणों के साथ ईश्वर से भी पूछे प्रश्न

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अपने निबंध में उन्होंने उच्च जातियों द्वारा अपने समुदायों पर होनेवाले अत्याचारों के साथ ईश्वर और पेशवा बाजीराव से शिकायत करते हुए उन्हें संबोधित भी किया है। वे लिखती हैं, “ब्राह्मण कहते हैं कि वेद उनके हैं और सिर्फ वही उसके अनुसार आचरण कर सकते हैं, तो क्या हम धर्महीन हैं? हे ईश्वर हम आपसे आपका धर्म जानना चाहते हैं, जिससे हम उसका अनुभव कर सकें। मेरा मानना है, जिस धर्म का अनुभव सिर्फ एक समुदाय करे, उसे नष्ट हो जाना चाहिए और ऐसे धर्म पर गर्व करने का विचार भी हमारे मन में नहीं आना चाहिए। सुनो, बाजीराव पेशवा के राज्य में हमारी स्थिति जानवरों से भी बदतर थी। यदि अछूतों का राजा के दरवाजे से गुजरना ही वर्जित हो, तो उन्हें शिक्षा की स्वतंत्रता कहां से मिलेगी? मुझे यकीन है अगर गलती से कोई मांग या महार पढ़ लेता तो उसे पेशवा काम की बजाय दंड देते। प्रसव के दौरान जिन औरतों के घरों में छत नहीं होती, महामारी के दौरान उन पर क्या बीतती होगी, इसका अनुभव आप स्वयं करें। यदि उन्हें कोई रोग हो जाए तो न उनके पास दवाई के लिए पैसे हैं और न कोई चिकित्सक, जो उन्हें मुफ्त दवा दे। सभी ब्राह्मणों के विचार शैतानों की तरह नहीं है, उनमें कुछ ऐसे भी हैं, जो देश के लिए लड़ रहे हैं। मैं अपने लोगों से ये गुहार लगाती हूँ कि अज्ञानता दूर करो, पुरानी मान्यताओं से चिपके मत रहो और अन्याय मत सहो।”
चॉकलेट की बजाय मांगी लाइब्रेरी
गौरतलब है कि अपने इस निबंध को मुक्ता साल्वे ने वाड़ा के विश्रामबाग में ज्योतिबा फुले के सम्मान समारोह के दौरान तीन हजार लोगों के सामने पढ़ा था। कहते हैं इस निबंध से प्रभावित होकर जब इस समारोह के अध्यक्ष मेजर कैंडी ने मुक्ता साल्वे को चॉकलेट भेंट की, तो मुक्ता साल्वे ने विनम्रता के साथ चॉकलेट लेने से इंकार करते हुए लाइब्रेरी की मांग की थी। इसमें दो राय नहीं कि मात्र 14 वर्ष की आयु में एक दलित लड़की का इस तरह लाइब्रेरी की मांग करना वाकई बेहद प्रभावशाली बात थी। मूल रूप से मराठी भाषा में लिखे गए इस निबंध को एनवी जोशी ने 1868 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘पुणे वर्णन’ में भी छापा था। हालांकि वर्ष 1991 में इस निबंध को सुसी थारु और के के ललिता ने अंग्रेजी भाषा में अनुवादित करते हुए ‘वूमन राइटिंग इन इंडिया: 600बीसी टू प्रेजेंट’ में प्रकाशित किया था, जो आज भी इंटरनेट पर उपलब्ध है।
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