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होम / एन्गेज / साहित्य / किताब-घर

साहित्य: बचपन से जुड़ी यादगार रचनाएं

शिखा शर्मा |  नवंबर 04, 2022

समय के साथ आगे बढ़ते-बढ़ते हम सबकुछ भूल जाते हैं लेकिन बचपन कभी नहीं भुलाया जाता। बड़े होने पर हम इसे आसपास ढूंढते जरूर है और कभी-कभी यह हमारे अंदर ही मिल जाता है। साहित्य की दुनिया में भी बचपन को हमेशा ताजा और खेलता हुआ दिखाया गया है। यह बात अलग है कि इसे याद करते हुए आंखें कभी नम हो जाती हैं और हम कह उठते हैं, यार क्या दिन थे वो! यहां पढ़िए साहित्य की दुनिया में बचपन को अपने खूबसूरत शब्दों से गढ़ते कुछ बेहतरीन कारीगर की बेहतरीन रचनाएं।

बचपन तमाम गुज़रा है तारों की छाँव में

बचपन तमाम गुज़रा है तारों की छाँव में

तितली के पीछे जाती थी बादल के गाँव में

गर्मी की तेज़ धूप में पीपल की छाँव में

सोनी बड़ा सुकून था छोटे से गाँव में

मंज़िल की आरज़ू भला करते भी किस तरह

काँटे चुभे हुए थे हमारे तो पाँव में

जब धूप के सफ़र से वो आएगा लौट कर

उस को बिठा के रखूँगी ज़ुल्फ़ों की छाँव में

ऐ दोस्त राह-ए-इश्क़ में चलती मैं किस तरह

ज़ंजीर डाल रखी थी दुनिया ने पाँव में

– अनीता सोनी

बचपन के दिन

ये बचपन के दिन

ये बचपन के दिन

गुलों की तरह मुस्कुराने के दिन हैं

दियों की तरह मुस्कुराने के दिन हैं

ये बचपन के दिन

ये बचपन के दिन

डिबेटों में इनआ'म पाना है हम को

कुइज़ में भी कप जीत लाना है हम को

पढ़ाई में भी फ़र्स्ट आने के दिन हैं

हुनर सीखते हैं अदब सीखते हैं

ज़ेहानत बढ़ाने के ढब सीखते हैं

यही ज़िंदगी को बनाने के दिन हैं

बहुत हैं हमें इल्म ही के ख़ज़ाने

जो दुनिया की बातें वो दुनिया ही जाने

हमारे तो पढ़ने-पढ़ाने के दिन हैं

— रईस फ़रोग़

बचपन का वो ज़माना

आता है याद मुझ को बचपन का वो ज़माना

रहता था साथ मेरे ख़ुशियों का जब ख़ज़ाना

हर रोज़ घर में मिलते उम्दा लज़ीज़ खाने

बे-मेहनत-ओ-मशक़्क़त हासिल था आब-ओ-दाना

बच्चों के साथ रहना ख़ुशियों के गीत गाना

दिल में न थी कुदूरत था सब से दोस्ताना

मेहंदी के पत्ते लाना और पीस कर लगाना

फिर सुर्ख़ हाथ अपने हर एक को दिखाना

आवाज़ डुगडुगी की जूँ ही सुनाई देती

उस की तरफ़ लपकना बच्चों का वालिहाना

हर साल प्यारे अब्बू लाते थे एक बकरा

चारा उसे खिलाना मैदान में घुमाना

वो दूर जा चुका है आता नहीं पलट कर

बचपन का वो ज़माना लगता है इक फ़साना

दादी को मैं ने इक दिन ये मशवरा दिया था

चेहरे की झुर्रियों को आसान है मिटाना

चेहरे पे आप के हैं जो बे-शुमार शिकनें

आया मिरी समझ में उन से नजात पाना

कपड़े की सारी शिकनें मिटती हैं इस्त्री से

आसान सा अमल है ये इस्त्री चलाना

इक गर्म इस्त्री को चेहरे पे आप फेरें

उम्दा है मेरा नुस्ख़ा है शर्त आज़माना

इक रोज़ वालिदा से जा कर कहा किचन में

अब छोड़िएगा अम्मी ये रोटियाँ पकाना

इक पेड़ रोटियों का दालान में लगाएँ

उस पेड़ को कहेंगे रोटी का कारख़ाना

शाख़ों से ताज़ा ताज़ा फिर रोटियाँ मिलेंगी

तोड़ेंगे रोटियाँ हम खाएँगे घर में खाना

कैसी अजीब बातें आती थीं मेरे लब पर

आज उन को कह रहा हूँ बातें हैं अहमक़ाना

वो प्यारी प्यारी बातें अब याद आ रही हैं

बचपन का वो ज़माना क्या ख़्वाब था सुहाना

— अब्दुल क़ादिर

बचपन के दिन

हाए वो बचपन के दिन

साफ़ और सुथरे सच्चे दिन

याद बहुत आते हैं अब

अपने थे जब अपने दिन

फ़िक्र-ओ-तरद्दुद किस को कहते

दूर ग़मों से जब थे दिन

आँख-मिचौली और कब्बडी

गुल्ली डंडे वाले दिन

रातें राहत से भरपूर

और शरारत वाले दिन

पीछे पीछे तितली के

फुलवारी में बीते दिन

आम अमरूद के पेड़ों पर

डाल पे बैठे खाते दिन

काग़ज़ पेंसिल और किताब

ऐसी दौलत वाले दिन

जिस्म ग़ुबार-आलूदा ले कर

तालाबों में तैराते दिन

कोई नहीं था दुश्मन जब

सब को दोस्त बनाते दिन

तोड़ लें औरों के अमरूद

सब के साथ वो खाते दिन

काट लें खेतों से गन्ने

चोरी पकड़े जाते दिन

शाम पढ़ाई में गुज़रे

हाए वो मकतब वाले दिन

आह 'मनाज़िर' किस से कहें

मेरे वो लौटा दे दिन

— मनाज़िर आशिक़ हरगानवी

मेरा बचपन ही मुझे याद दिलाने आए

मेरा बचपन ही मुझे याद दिलाने आए

फिर हथेली पे कोई नाम लिखाने आए

आ के चुपके से कोई चीख़ पड़े कानों में

गुदगुदाने न सही आए डराने आए

लूट ले आ के मिरी सुब्ह की मीठी नींदें

मैं कहाँ कहता हूँ वो मुझ को जगाने आए

मेरे आँगन में न जुगनू हैं न तितली न गुलाब

कोई आए भी तो अब किस के बहाने आए

देर तक ठहरी रही पलकों पे यादों की बरात

नींद आई तो कई ख़्वाब सुहाने आए

— होश जौनपुरी

 

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