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होम / एन्गेज / साहित्य / किताब-घर

मन्नू भंडारी की कहानी ‘अकेली’

टीम Her Circle |  नवंबर 11, 2022

सोमा बुआ बुढ़िया है। 

सोमा बुआ परित्यक्ता है। 

सोमा बुआ अकेली है। 

सोमा बुआ का जवान बेटा क्या जाता रहा, उनकी जवानी चली गयी।  पति को पुत्र-वियोग का ऐसा सदमा लगा कि वह,  पत्नी, घर-बार तजकर तीरथवासी हुए और परिवार में कोई ऐसा सदस्य नहीं था, जो उनके एकाकीपन को दूर करता।  पिछले बीस वर्षों से उनके जीवन की इस एकरसता में किसी प्रकार का कोई व्यवधान उपस्थित नहीं हुआ, कोई परिवर्तन नहीं आया।  यों हर साल एक महीने के लिए उनके पति उनके पास आकर रहते थे, पर कभी उन्होंने पति की प्रतीक्षा नहीं की, उनकी राह में आंखें नहीं बिछायीं।  जब तक पति रहते, उनका मन और भी मुरझाया हुआ रहता, क्योंकि पति के स्नेहहीन व्यवहार का अंकुश उनके रोज़मर्रा के जीवन की अबाध गति से बहती स्वच्छन्द धारा को कुंठित कर देता।  उस समय उनका घूमना-फिरना, मिलना-जुलना बंद हो जाता, और संन्यासीजी महाराज से यह भी नहीं होता कि दो मीठे बोल बोलकर सोमा बुआ को एक ऐसा संबल ही पकड़ा दें, जिसका आसरा लेकर वे उनके वियोग के ग्यारह महीने काट दें।  इस स्थिति में बुआ को अपनी ज़िंदगी पास-पड़ोसवालों के भरोसे ही काटनी पड़ती थी। किसी के घर मुंडन हो, छठी हो, जनेऊ हो, शादी हो या गमी, बुआ पहुंच जाती और फिर छाती फाड़कर काम करतीं, मानो वे दूसरे के घर में नहीं, अपने ही घर में काम कर रही हों। 

आजकल सोमा बुआ के पति आए हैं, और अभी-अभी कुछ कहा-सुनी हो चुकी है।  बुआ आंगन में बैठी धूप खा रही हैं, पास रखी कटोरी से तेल लेकर हाथों में मल रही हैं, और बड़बड़ा रही हैं।  इस एक महीने में अन्य अवयवों के शिथिल हो जाने के कारण उनकी जीभ ही सबसे अधिक सजीव और सक्रिय हो उठती है। तभी हाथ में एक फटी साड़ी और पापड़ लेकर ऊपर से राधा भाभी उतरीं।  ‘क्या हो गया बुआ, क्यों बड़बड़ा रही हो? फिर संन्यासीजी महाराज ने कुछ कह दिया क्या?’ 

‘अरे, मैं कहीं चली जाऊं सो इन्हें नहीं सुहाता। कल चौकवाले किशोरीलाल के बेटे का मुंडन था, सारी बिरादरी की न्यौता था।  मैं तो जानती थी कि ये पैसे का गरूर है कि मुंडन पर सारी बिरादरी को न्यौता है, पर काम उन नयी-नवेली बहुओं से संभलेगा नहीं, सो जल्दी ही चली गयी।  हुआ भी वही। ’ 

और सरक कर बुआ ने राधा के हाथ से पापड़ लेकर सुखाने शुरू कर दिए।  ‘एक काम गत से नहीं हो रहा था।  अब घर में कोई बड़ा-बूढ़ा हो तो बतावे, या कभी किया हो तो जानें।  गीतवाली औरतें मुंडन पर बन्ना-बन्नी गा रही थीं। मेरा तो हंसते-हंसते पेट फूल गया।’ और उसकी याद से ही कुछ देर पहले का दुःख और आक्रोश धुल गया। अपने सहज स्वाभाविक रूप में वे कहने लगीं,‘भट्टी पर देखो तो अजब तमाशा-समोसे कच्चे ही उतार दिए और इतने बना दिए कि दो बार खिला दो, और गुलाब जामुन इतने कम कि एक पंगत में भी पूरे न पड़े।  उसी समय मैदा सानकर नए गुलाबजामुन बनाए।  दोनों बहुएं और किशोरीलाल तो बेचारे इतना जस मान रहे थे कि क्या बताऊं! कहने लगे,‘अम्मां! तुम न होतीं तो आज भद्द उड़ जाती।  अम्मां! तुमने लाज रख ली!’ मैंने तो कह दिया कि अरे, अपने ही काम नहीं आवेंगे तो कोई बाहर से तो आवेगा नहीं।  यह तो आजकल इनका रोटी-पानी का काम रहता है, नहीं तो मैं सवेरे से ही चली आती!’

‘तो संन्यासी महाराज क्यों बिगड़ पड़े? उन्हें तुम्हारा आना-जाना अच्छा नहीं लगता बुआ!’

 

‘यों तो मैं कहीं आऊं-जाऊं सो ही इन्हें नहीं सुहाता, और फिर कल किशोरी के यहां से बुलावा नहीं आया।  अरे, मैं तो कहूं कि घरवालों का कैसा बुलावा! वे लोग तो मुझे अपनी मां से कम नहीं समझते, नहीं तो कौन भला यों भट्टी और भंडार घर सौंप दे।  पर उन्हें अब कौन समझावे? कहने लगे, तू ज़बरदस्ती दूसरों के घर में टांग अड़ाती फिरती है। ’ और एकाएक उन्हें उस क्रोध-भरी वाणी और कटु वचनों का स्मरण हो आया, जिनकी बौछार कुछ देर पहले ही उन पर होकर चुकी थी। याद आते ही फिर उनके आंसू बह चले। 

‘अरे, रोती क्यों हो बुआ? कहना-सुनना तो चलता ही रहता है।  संन्यासीजी महाराज एक महीने को तो आकर रहते हैं, सुन लिया करो और क्या?’

‘सुनने को तो सुनती ही हूं, पर मन तो दुखता ही है कि एक महीने को आते हैं तो भी कभी मीठे बोल नहीं बोलते।  मेरा आना-जाना इन्हें सुहाता नहीं, सो तू ही बता राधा, ये तो साल में ग्यारह महीने हरिद्वार रहते हैं।  इन्हें तो नाते-रिश्तेवालों से कुछ लेना-देना नहीं, पर मुझे तो सबसे निभाना पड़ता है।  मैं भी सबसे तोड़-ताड़कर बैठ जाऊं तो कैसे चले? मैं तो इनसे कहती हूं कि जब पल्ला पकड़ा है तो अंत समय में भी साथ रखो, सो तो इनसे होता नहीं।  सारा धरम-करम ये ही लूटेंगे, सारा जस ये ही बटोरेंगे और मैं अकेली पड़ी-पड़ी यहां इनके नाम को रोया करूं।  उस पर से कहीं आऊं-जाऊं तो वह भी इनसे बर्दाश्त नहीं होता। । । ’ और बुआ फूट-फूटकर रो पड़ीं।  राधा ने आश्वासन देते हुए कहा, ‘रोओ नहीं बुआ! अरे, वे तो इसलिए नाराज़ हुए कि बिना बुलाए तुम चली गयीं। ’

‘बेचारे इतने हंगामे में बुलाना भूल गए तो मैं भी मान करके बैठ जाती? फिर घरवालों का कैसा बुलाना? मैं तो अपनेपन की बात जानती हूं। कोई प्रेम नहीं रखे तो दस बुलावे पर नहीं जाऊं और प्रेम रखे तो बिना बुलाए भी सिर के बल जाऊं।  मेरा अपना हरखू होता और उसके घर काम होता तो क्या मैं बुलावे के भरोसे बैठी रहती? मेरे लिए जैसा हरखू वैसा किशोरीलाल! आज हरखू नहीं है, इसी से दूसरों को देख-देखकर मन भरमाती रहती हूं।’ और वे हिचकियां लेने लगीं। 

सूखे पापड़ों को बटोरते-बटोरते स्वर को भरसक कोमल बनाकर राधा ने कहा,‘तुम भी बुआ बात को कहां-से-कहां ले गईं! लो, अब चुप होओ।  पापड़ भूनकर लाती हूं, खाकर बताना, कैसा है?’ और वह साड़ी समेटकर ऊपर चढ़ गयी । 

कोई सप्ताह-भर बाद बुआ बड़े प्रसन्न मन से आईं और संन्यासीजी से बोलीं,‘सुनते हो, देवरजी के सुसरालवालों की किसी लड़की का संबंध भागीरथजी के यहां हुआ है।  वे सब लोग यहीं आकर ब्याह कर रहे हैं।  देवरजी के बाद तो उन लोगों से कोई संबंध ही नहीं रहा, फिर भी हैं समधी ही।  वे तो तुमको भी बुलाए बिना नहीं मानेंगे।  समधी को आख़िर कैसे छोड़ सकते हैं?’ और बुआ पुलकित होकर हंस पड़ी। संन्यासीजी की मौन उपेक्षा से उनके मन को ठेस तो पहुंची, फिर भी वे प्रसन्न थीं।  इधर-उधर जाकर वे इस विवाह की प्रगति की ख़बरें लातीं! आख़िर एक दिन वे यह भी सुन आईं कि उनके समधी यहां आ गए।  ज़ोर-शोर से तैयारियां हो रही हैं।  सारी बिरादरी को दावत दी जाएगी-ख़ूब रौनक होने वाली है।  दोनों ही पैसेवाले ठहरे। 

‘क्या जाने हमारे घर तो बुलावा आएगा या नहीं? देवरजी को मरे पच्चीस बरस हो गए, उसके बाद से तो कोई सम्बन्ध ही नहीं रखा।  रखे भी कौन? यह काम तो मर्दों का होता है, मैं तो मर्दवाली होकर भी बेमर्द की हूं। ’ और एक ठंडी सांस उनके दिल से निकल गयी। 

‘अरे, वाह बुआ! तुम्हारा नाम कैसे नहीं हो सकता! तुम तो समधिन ठहरीं। संबंध में न रहे, कोई रिश्ता थोड़े ही टूट जाता है!’ दाल पीसती हुई घर की बड़ी बहू बोली।  ‘है, बुआ, नाम है।  मैं तो सारी लिस्ट देखकर आई हूं। ’ विधवा ननद बोली।  बैठे-ही-बैठे एकदम आगे सरककर बुआ ने बड़े उत्साह से पूछा,‘तू अपनी आंखों से देखकर आई है नाम? नाम तो होना ही चाहिए।  पर मैंने सोचा कि क्या जाने आजकल की फ़ैशन में पुराने संबंधियों को बुलाना हो, न हो। ’ और बुआ बिना दो पल भी रुके वहां से चली पड़ीं।  अपने घर जाकर सीधे राधा भाभी के कमरे में चढ़ी,‘क्यों री राधा, तू तो जानती है कि नए फ़ैशन में लड़की की शादी में क्या दिया जावे है? समधियों का मामला ठहरा, सो भी पैसेवाले। ख़ाली हाथ जाऊंगी तो अच्छा नहीं लगेगा।  मैं तो पुराने ज़माने की ठहरी, तू ही बता दे, क्या दूं? अब कुछ बनने का समय तो रहा नहीं, दो दिन बाक़ी हैं, सो कुछ बना-बनाया ही ख़रीद लाना। ’ 

‘क्या देना चाहती हो अम्मा-जे़वर, कपड़ा या शृंगारदान या कोई और चांदी की चीज़ें?’

‘मैं तो कुछ भी नहीं समूझं, री। जो कुछ पास है, तुझे लाकर दे देती हूं, जो तू ठीक समझे ले आना, बस भद्द नहीं उड़नी चाहिए! अच्छा, देखूं पहले कि रुपए कितने हैं। और वे डगमगाते क़दमों से नीचे आईं।  दो-तीन कपड़ों की गठरियां हटाकर एक छोटा-सा बक्स निकाला।  बड़े जतन से उसे खोला-उसमें सात रुपए, कुछ रेज़गारी पड़ी थी, और एक अंगूठी।  बुआ का अनुमान था कि रुपए कुछ ज़्यादा होंगे, पर जब सात ही रुपए निकले तो सोच में पड़ गयीं।  रईस समधियों के घर में इतने-से रुपयों से तो बिंदी भी नहीं लगेगी।  उनकी नज़र अंगूठी पर गयी।  यह उनके मृत-पुत्र की एकमात्र निशानी उनके पास रह गई थी।  बड़े-बड़े आर्थिक संकटों के समय भी वे उस अंगूठी का मोह नहीं छोड़ सकी थीं। आज भी एक बार उसे उठाते समय उनका दिल धड़क गया।  फिर भी उन्होंने पांच रुपए और वह अंगूठी आंचल में बांध ली।  बक्स को बन्द किया और फिर ऊपर को चलीं।  पर इस बार उनके मन का उत्साह कुछ ठण्डा पड़ गया था, और पैरों की गति शिथिल! राधा के पास जाकर बोलीं, ‘रुपए तो नहीं निकले बहू।  आए भी कहां से, मेरे कौन कमानेवाला बैठा है? उस कोठरी का किराया आता है, उसमें तो दो समय की रोटी निकल जाती है जैसे-तैसे!’ और वे रो पड़ीं।  

राधा ने कहा,‘क्या करूं बुआ, आजकल मेरा भी हाथ तंग है, नहीं तो मैं ही दे देती।  अरे, पर तुम देने के चक्कर में पड़ती ही क्यों हो? आजकल तो देने-लेने का रिवाज ही उठ गया। ’

‘नहीं रे राधा! समधियों का मामला ठहरा! पच्चीस बरस हो गए तो भी वे नहीं भूले, और मैं ख़ाली हाथ जाऊं? नहीं, नहीं, इससे तो न जाऊं सो ही अच्छा!’

‘तो जाओ ही मत।  चलो छुट्टी हुई, इतने लोगों में किसे पता लगेगा कि आई या नहीं। ’ राधा ने सारी समस्या का सीधा-सा हल बताते हुए कहा। 

‘बड़ा बुरा मानेंगे।  सारे शहर के लोग जावेंगे, और मैं समधिन होकर नहीं जाऊंगी तो यही समझेंगे कि देवरजी मरे तो संबंध भी तोड़ लिया।  नहीं, नहीं, तू यह अंगूठी बेच ही दे। ’ और उन्होंने आंचल की गांठ खोलकर एक पुराने ज़माने की अंगूठी राधा के हाथ पर रख दी।  फिर बड़ी मिन्नत के स्वर में बोलीं,‘तू तो बाज़ार जाती है राधा, इसे बेच देना और जो कुछ ठीक समझे ख़रीद लेना।  बस, शोभा रह जावे इतना ख़्याल रखना। ’

गली में बुआ ने चूड़ीवाले की आवाज़ सुनी तो एकाएक ही उनकी नज़र अपने हाथ की भद्दी-मटमैली चूड़ियों पर जाकर टिक गई।  कल समधियों के यहां जाना है, ज़ेवर नहीं तो कम-से-कम कांच की चूड़ी तो अच्छी पहन ले।  पर एक अत्यन्त लाज ने उनके क़दमों को रोक दिया।  कोई देख लेगा तो? लेकिन दूसरे क्षण ही अपनी इस कमज़ोरी पर विजय पाती-सी वे पीछे के दरवाजे़ पर पहुंच गईं और एक रुपया कलदार ख़र्च करके लाल-हरी चूड़ियों के बन्द पहन लिए।  पर सारे दिन हाथों को साड़ी के आंचल से ढके-ढके फिरीं। 

शाम को राधा भाभी ने बुआ को चांदी की एक सिन्दूरदानी, एक साड़ी और एक ब्लाउज़ का कपड़ा लाकर दे दिया।  सब कुछ देख पाकर बुआ बड़ी प्रसन्न हुईं, और यह सोच-सोचकर कि जब वे ये सब दे देंगी तो उनकी समधिन पुरानी बातों की दुहाई दे-देकर उनकी मिलनसारिता की कितनी प्रशंसा करेगी, उनका मन पुलकित होने लगा।  अंगूठी बेचने का गम भी जाता रहा।  पासवाले बनिए के यहां से एक आने का पीला रंग लाकर रात में उन्होंने साड़ी रंगी।  शादी में सफ़ेद साड़ी पहनकर जाना क्या अच्छा लगेगा? रात में सोयीं तो मन कल की ओर दौड़ रहा था। 

दूसरे दिन नौ बजते-बजते खाने का काम समाप्त कर डाला।  अपनी रंगी हुई साड़ी देखी तो कुछ जंची नहीं।  फिर ऊपर राधा के पास पहुंची, ‘क्यों राधा, तू तो रंगी साड़ी पहनती है तो बड़ी आब रहती है, चमक रहती है, इसमें तो चमक आई नहीं!’

‘तुमने कलफ़ जो नहीं लगाया अम्मां, थोड़ा-सा मांड दे देतीं तो अच्छा रहता।  अभी दे लो, ठीक हो जाएगी।  बुलावा कब का है?’

‘अरे, नए फ़ैशन वालों की मत पूछो, ऐन मौकों पर बुलावा आता है।  पांच बजे का मुहूरत है, दिन में कभी भी आ जावेगा। ’

राधा भाभी मन-ही-मन मुस्करा उठी। 

बुआ ने साड़ी में मांड लगाकर सुखा दिया।  फिर एक नई थाली निकाली, अपनी जवानी के दिनों में बुना हुआ क्रोशिए का एक छोटा-सा मेजपोश निकाला।  थाली में साड़ी, सिन्दूरदानी, एक नारियल और थोड़े-से बताशे सजाये, फिर जाकर राधा को दिखाया।  संन्यासी महाराज सवेरे से इस आयोजन को देख रहे थे, और उन्होंने कल से लेकर आज तक कोई पच्चीस बार चेतावनी दे दी थी कि यदि कोई बुलाने न आए तो चली मत जाना, नहीं तो ठीक नहीं होगा।  हर बार बुआ ने बड़े ही विश्वास के साथ कहा,‘मुझे क्या बावली समझ रखा है जो बिन बुलाए चली जाऊंगी? अरे वह पड़ोसवालों की नंदा अपनी आंखों से बुलावे की लिस्ट में नाम देखकर आई है।  और बुलाएंगे क्यों नहीं? शहरवालों को बुलाएंगे और समधियों को नहीं बुलायेंगे क्या?’

तीन बजे के क़रीब बुआ को अनमने भाव से छत पर इधर-उधर घूमते देख राधा भाभी ने आवाज़ लगायी,‘गईं नहीं बुआ?’

 

एकाएक चौंकते हुए बुआ ने पूछा,‘कितने बज गए राधा? । । ।  क्या कहा, तीन? सरदी में तो दिन का पता नहीं लगता। बजे तीन ही हैं और धूप सारी छत पर से ऐसे सिमट गई मानो शाम हो गई। ’ फिर एकाएक जैसे ख़्याल आया कि यह तो भाभी के प्रश्न का उत्तर नहीं हुआ, ज़रा ठण्डे स्वर में बोलीं,‘मुहूरत तो पांच बजे का है, जाऊंगी तो चार तक जाऊंगी, अभी तो तीन ही बजे है। ’ बड़ी सावधानी से उन्होंने स्वर में लापरवाही का पुट दिया।  बुआ छत पर से गली में नज़र फैलाए खड़ी थीं, उनके पीछे ही रस्सी पर धोती फैली हुई थी, जिसमें कलफ़ लगा था, और अबरक छिड़का हुआ था। अबरक के बिखरे हुए कण रह-रहकर धूप में चमक जाते थे, ठीक वैसे ही जैसे किसी को भी गली में घुसता देख बुआ का चेहरा चमक उठता था। 

सात बजे के धुंधलके में राधा ने ऊपर से देखा तो छत की दीवार से सटी, गली की ओर मुंह किये एक छाया-मूर्ति दिखाई दी।  उसका मन भर आया।  बिना कुछ पूछे इतना ही कहा,‘बुआ!’ सर्दी में खड़ी-खड़ी यहां क्या कर रही हो? आज खाना नहीं बनेगा क्या, सात तो बज गए।  जैसे एकाएक नींद में से जागते हुए बुआ ने पूछा,‘क्या कहा सात बज गए?’ 

फिर जैसे अपने से ही बोलते हुए पूछा,‘पर सात कैसे बज सकते हैं, मुहूरत तो पांच बजे का था!’ और फिर एकाएक ही सारी स्थिति को समझते हुए, स्वर को भरसक संयत बनाकर बोलीं, अरे, खाने का क्या है, अभी बना लूंगी।  दो जनों का तो खाना है, क्या खाना और क्या पकाना!’

 

फिर उन्होंने सूखी साड़ी को उतारा।  नीचे जाकर अच्छी तरह उसकी तह की, धीरे-धीरे हाथों की चूड़ियां खोलीं, थाली में सजाया हुआ सारा सामान उठाया और सारी चीज़ें बड़े जतन से अपने एकमात्र सन्दूक में रख दीं। और फिर बड़े ही बुझे हुए दिल से अंगीठी जलाने लगीं।

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