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होम / एन्गेज / साहित्य / किताब-घर

मन्नत में मांगी रात

डॉ. लक्ष्मी शर्मा |  मार्च 05, 2022

ख़त्म हो गई बरसातों के लेटलतीफ़ बादलों की बरसात से भीगी शाम में भीगता ये क़स्बाई स्टेशन ख़ूब खुला-डुला और लगभग सूना है. इतना कि प्लेटफ़ॉर्म पर तसल्ली से खड़ी रेल भी आसमान के सलेटी छाते तले भीगती ठंडी बूंदों का लुत्फ़ उठा रही है.यहां से रेल में चढने वाले फ़कत चार लोग थे और इत्तफ़ाक से चारों एक ही कूपे में चढ़े, एसी टू टियर के कूपे में.
पहली, बुरके में ढंकी एक ऊंची सी देह, जिसकी कलाइयां और उंगलियां इस बात की शिनाख़्त कर रही हैं कि देह छरहरी और उजली है.
दूसरा, अंदाज़न पैंतालीस साल का भरा-पूरा खूबसूरत मरदाना जिस्म, जो अपने तेवर और गुमान से बुरके का मालिक लग रहा है.
तीसरा, जो ढेर-सी अटैचियों, झोलों और डोलचियों को सीट के नीचे जमा रहा है, भी इनके साथ है और इन का नौकर लग रहा है.
चौथा, लगभग पचास के पेटे का मर्द, गंदुमी रंग, मंझौला क़द, ज़रा भारी जिस्म और भीड़ के बीच आराम से ओझल हो जाने वाले आम से नक़्श. फ़कत एक बैग लिए इस मुसाफ़िर के सांवले सरापे पर कुछ ख़ास है तो उसकी बड़ी-बड़ी आंखें. बेनियाज़, ख़ुद में डूबी, गहरी काली आंखें, जो देखने वाले की आंखों में एक उदास तिलिस्मी सुरंग सी उतरती जाती हैं. लेकिन वो इन तीनों के साथ नहीं, अकेला और अजनबी है.
कूपे में आते ही नकाब का ऊपरी हिस्सा हट गया और दो लम्बी-पतली, पुरनूर आंखों में तैरती कत्थई पुतलियों की हल्की झिलमिल कूपे में फैल गई. दूज के चांद की फांक सी उन आंखों में लगा फैला-फैला काजल उन्हें घरेलू कशिश दे रहा है. चांद की फांकों पर चिलमन सी तनी बरौनियों में भी घटाओं की सुरमई रंगत छाई है.
दो साहिर आंखें बेसाख्ता उन आंखों पर टिकीं और फौरन पलट गईं. सुरमई आंखों ने उन आंखों को नहीं देखा. वो तो फ़र्माबरदार बनी उस गुमानी सरापे को देख रही हैं, जो हिदायतों की झड़ी के बीच अपनी फ़िक्र और परवाह का एलान करता जा रहा है. जिस की बातें खुलासा कर रहीं हैं कि वो मुसाफ़िर नहीं, फ़कत ट्रेन तक विदा देने आया है.
“सुनो, अलार्म लगा लो. घोड़े बेच के सोती रह गईं तो फिर ट्रेन इटारसी पर ही रुकेगी.”
“अरहान..!” हिजाब के पीछे से आई धीमी आवाज़ और सुरमई आंखों में हल्का सा ऐतराज़ झलका.
“और खाना समय से खा कर दवा ले लेना, अपने फ़ोनों में डूब के भूल गईं तो बेवजह शादी के घर में बखेड़ा करोगी.” गुमानी सरापे को उन आंखों का ऐतराज़ देखने की फुर्सत नहीं. “और शादाब को फ़ोन कर दिया न, स्टेशन आ तो जाएगा वो समय पर? साहबज़ादे बहन से कम लापरवाह हैं क्या? जाने किस दुनिया में रहते हो दोनों भाई-बहन.”
“जी, कर दिया, आ जाएगा...” औरत की नज़रें पहली बार सामने की सीट पर बैठे मर्द की नज़रों से टकराईं और तुरंत पलट भी गईं.
“पहुंचते ही फ़ोन कर देना, पीहर के कुनबे में जा कर बात बनाने के सिवा कुछ याद नहीं रहता तुम्हें.” औरत इस बार अपनी आंखों के शिकवे को दबाती चुप खड़ी रही.
“टीसी आता ही होगा, टिकिट और आईडी निकाल कर रख लो. आईडी संभाल कर रखना, अपनी बेख़याली में खो न देना. और याद रहे, मैं और बच्चे मंगल को पहुंच रहे हैं. शुक्रवार की फ़्लाइट से अम्मी-अब्बू भी वहां पहुंच जाएंगे. इस बार किसी की ख़ातिर-तवज्जो में कमी नहीं रहना चाहिए. राना के निकाह की कई शिकायतें ले कर आए थे हम.”
इस बार सुरमई आंखों में उतरी शबनम का रंग गुलाबी था, लेकिन आंखों ने पलक झपकाई और तुरंत रंग बदल लिया.
रेल की सीटियां रवानगी की मुनादी करने लगीं, सामान जमा चुका अर्दली रेल से उतर गया.
“शादाब, सुबह बच्चों...”
“हां, जानते हैं. सौ बार तो तुम रफ़िया बी को कह चुकी, कितनी बार कहोगी? वो तुम्हारे बच्चों को गर्म खाने का टिफ़िन दे कर ही स्कूल भेजेंगी और ड्राइवर भी हमेशा की तरह समय से आ जाएगा.”
“ज़रा आप भी देख..”
“यार, मुझे मत कहो, तुम जानती हो कि मैं जल्दी नहीं उठ सकता. इतने नौकर-चाकर किसलिए हैं घर में. फिर बच्चे भी अब दूध पीते नहीं रहे, अपना ध्यान रख सकते हैं,” मर्द की आवाज़ में उतनी ही ऊब है जितनी किसी गृहस्थी में रमी बेमज़ा बीवी के खाविंद को हो सकती थी.
सुरमई रोशनदानों में एक आंच उठी और उसी वक़्त रेल सरकने लगी. और विदा करते हाथ को देखे बिना वो नुकीले शब्द भी प्लेटफ़ॉर्म पर सरक गए. उसके साथ ही हिजाब में लिपटी आंखें भी खिड़की के शीशे के रास्ते प्लेटफ़ॉर्म पर उतर आई हैं, जहां वो चेहरा नहीं दिख रहा है. आंखें फिर भी एक बड़े लम्हे तक वहीं चिपकी रहीं.
पहले सूने प्लेटफ़ॉर्म, फिर बस्ती की भीड़ को भी पीछे छोड़ती, अपनी धुन में दौड़ती रेल के बाहर अब उजाड़ अंधेरे के अलावा कुछ नहीं दिख रहा, फिर भी वो आंखें बाहर जाने क्या देखती रहीं. फिर लौट कर
अपने भीतर उतर गईं, इस बात से बेख़बर कि सामने की सीट पर बैठी गहरी सुरंग सी दो आंखें रह-रह के उन पर टिक रही हैं. खिड़की के परदे अब भी खुले हैं.
“अल्लाह…” अचानक सुरमई आंखों में दर्द की बर्क़ दौड़ गई और सुबुक देह बेसाख्ता दर्द से दोहरी हो गई.
“अरे! क्या हुआ?” मुसाफ़िर घबरा कर उठ खड़ा हुआ. उसे समझ नहीं आ रहा क्या करे, किससे कहे. कोई भी तो नहीं है यहां. केयर टेकर भी अब तक नदारद है.
“आप ठीक तो हैं मैम, क्या मैं आपकी कोई मदद कर सकता हूं?” हिजाब के पीछे छटपटाती आंखों में दर्द बनकर तैरते पानी को देख अजनबी के माथे पर पसीने की बूंदें चमकने लगीं हैं.
चांद की फांकों का सुरमा भीग कर पहले से ज़्यादा फैल गया है जिस से दर्द में छटपटाती पुतलियां काले पानियों में तैरती कत्थई मछलियों सी लग रही है. कोई जवाब न पा कर मर्द की बेचैनी बढ़ती जा रही है.
‘मैम, आप...?”
“पानी...” अब औरत की दर्द से छटपटाती आवाज़ मर्द से मुख़ातिब है, जिसने फुर्ती से पानी ढाल दिया. हरी चूड़ियों वाले कांपते हाथ अब पर्स टटोल रहे थे.
“अगर आपको ऐतराज़ न हो तो मैं निकाल देता हूं. बताइए कौन सी दवा है?”
“कोलास्पा.” दर्द के ज़ोर से औरत की आंखों के गिर्द पसीने की बूंदें चमक रही हैं, जो शायद उसकी हथेलियों पर भी उग आई हैं, क्योंकि हिना की बहुत हलकी सी महक मुसाफ़िर की नाक को छू रही है.
पर्स थामते मर्द ने नहीं देखे मेहंदी के सुर्ख बूटे, उसने लम्बी-नाज़ुक उंगलियों के तराशे हुए नाखून भी नहीं देखे. बाएँ हाथ की तीसरी उंगली में पहना बड़ा सा फ़िरोज़ा भी उसे नहीं दिखा, पर जाने कैसे हरी चूड़ियों के नीचे छुपी रग उसे दिख गई, जो नींद में डूबे मासूम बच्चे के सीने की तरह धड़क रही थी. और मुसाफ़िर एक धड़कन चूक गया. धड़कती रग को देखकर नहीं, उसके पास जमी उस लम्बी खरोंच को देख कर, जो चूड़ी टूट जाने से बनती है. हिना की महक फिर ज़ोर मारने लगी.
“सुनिए, आप को गर्मी लग रही होगी, आप मुझ पर भरोसा करना चाहें तो हिजाब हटा सकती हैं. दूसरे मुसाफ़िर नहीं आते तब तक मैं पीछे के केबिन में चला जाता हूं.” हथेली पर टेबलेट रखते मर्द का चेहरा और आवाज़ दोनों शाइस्ता हैं. इस बार औरत ने ठीक से देखा, पहली बार दो जोड़ा आंखें आपस में उलझीं और तुरंत ही अलग हो गईं.
“नहीं, आप यहीं बैठे रह सकते हैं. और हां, शुक्रिया,” औरत ने सधी आवाज़ में जवाब दिया और नकाब उलट दिया."
मुसाफ़िर ने बेसाख्ता नज़रें झुका लीं, उसने नहीं देखी औरत की गुलाबी जिल्द और सुडौल माथा. उसने नहीं देखी पतले चेहरे पर जड़ी गुलाब की दो कलियां, सुघड़ नाक में पड़ी हीरे की कनी और कानों में झूलती बालियां भी नहीं देखी. पर जाने कैसे उसकी उचटती निगाह में वो तिल आ गया, जो नन्हें से कान की गुलाबी लौ के ऐन नीचे चमक रहा था. उदास सुरंगों में रखे दो हीरे एक बार सुलग कर बुझ गए.
दर्द से उबरती औरत कूपे की दीवार पर सिर टिकाए आंखें बंद किए बैठी रही, मर्द अपनी उंगली के नीलम पर नज़र टिकाए बैठा रहा. बहुत देर बाद जब उसकी आंखें उठीं तो देखा सुरमेदानियां दर्द से राहत पाकर नींद में डूबी हैं और गुलाबी पंखुड़ियों का कसाव भी ढीला पड़ गया है.
मर्द फिर भी आंखें झुकाए बैठा है. उसने नहीं देखी नींद में चमकती पलकों की बिजलियां, होठों की गुलाबी कलियों से झांकते दांतों की झलक और महोगनी गेसुओं की लटों से घिरी पेशानी. लेकिन उसे बेसाख्ता ही पेशानी पर उभरी वो नीली रग दिख गई जो जाने दर्द की है या जहर की. मर्द की निगाहें फिर नीलम से बतियाने लगीं और काफ़ी देर बाद, जब हरी चूड़ियों ने आपस में बतियाना शुरू कर दिया तभी उठाईं.
“आप ठीक हैं मैम?”
“जी, अब ठीक हूं. आप चिंता न करें,” औरत ने बहुत धीरे से कहा और मर्द की ओर देखे बिना गुसलखाने की तरफ़ चली गई. मर्द फिर भी बेचैनी से पहलू बदलता रहा, जब तक कि औरत लौट कर नहीं आ गई.
वो आई, लेकिन पहले, उसके पैरों की थाप के भी पहले एक भीनी संदली महक कूपे में आई. मर्द ने बुरका हाथ में लिए आ रहे अपने हमसफ़र को देखा, जो तक़रीबन चालीस के सिन का है. और उसने इस बार भी नज़रें झुका लीं.
उसने नहीं देखी वो सरो सी लम्बी, सुबुक काया. नहीं देखे नफ़ीस जैतूनी सूट से झांकती सहेजी हुई काया के उठाव, नहीं देखे कमर के ख़म और उन पर बिखरे महोगनी बाल. उजले पैरों में दहकती हिना भी उसने नहीं देखी, पर जाने कैसे उसका ध्यान दाएं शाने पर जमी दो कत्थई बूंदों पर जा ठहरा.
और ग़ज़ब कि ये देखना औरत की झुकी आंखों ने भी देख लिया. उसने दुपट्टा ठीक करते हुए पैरों पर चादर खींच ली और सुरमेदानियां फिर से बरोनियों की चिलमन में सिमट गईं.
चांद की नौवीं तारीख़, बरस चुके रीते बादल अपनी रुई समेट कर घर चले गए हैं और परदादारी की लानत से आज़ाद तारों के रुख़ ख़ुशी से दिपदिपा रहे हैं.
धुल कर शफ़्फ़ाक हो गए आसमान में जलावानुमाई करते दिलफेंक चांद की आवारागर्द शरारतों के लिए इस से बेहतर मौक़ा क्या होता? वो कभी खेतों में ठहरे पानियों के दुपट्टे छेड़ता तो कभी तारों को इशारे करता एक-एक पेड़ की फुनगियों पर चम्पई बोसे धर रहा है. कभी ज़्यादा ही रूमानी हो कर बरौनियों के झूले पर सोए सुरमे को छूने की गुस्ताखी करता है तो कभी उनींदी गुलाब की कलियों का बोसा ले कर चम्पत हो जाता है.
“हेलो, हां दी, सुबह तक पहुंच जाऊंगा ...नहीं दी, महाराज आज छुट्टी पर था और अमृता की तबियत ज़रा... ना ना, आप जानती हैं न बाहर का खाना मेरे पेट को पसंद नहीं आता… न दी! ऐसा कुछ नहीं, आप चिंता न करें मैं नाश्ता ले कर निकला हूं.” इस बार मर्द ने नहीं औरत ने ग़ौर से देखा. एक सादानक़्श, उदास चेहरे के साथ भीगे रेशम सी नम-नरम आवाज़, जो बहुत धीमी और शाइस्ता है. औरत के चेहरे पर हैरानी आई और उदासी छोड़ कर चली गई.
“हां बोलो अमृता... नहीं, अभी नहीं आया, शायद अगला स्टेशन वही है. और तुम कैसी...? अरे यार, दो दिन की ही बात तो है, मां की तबियत ख़राब न होती तो... अमृता! दीदी कब बोलती हैं कुछ... सुनो, बच्चे क्या... हेलो, हेलो, हेलो...”
औरत देखती रही सूने फ़ोन में आवाज़ ढूंढ़ती गहरी आंखों और उनमें बहती उदास नदी को. औरत हैरान है, उसे शायद मर्द के इस रूप का पहला तजुर्बा है. वो और भी कुछ सोचती अगर टीसी की आवाज़ न टोकती “मैम आप...”
‘‘किश्वर ज़ुबैरी’’ औरत ने वाक्य पूरा किया.
‘किश्वर...यानि सितारा’ कूपे में जाने किसकी एक फुसफुसाहट सरसरा गई... शायद सुघड़ नाक के हीरे की कनी पर बैठे चांद ने कहा हो. औरत ने सुना लेकिन नहीं सुना कि उसके कान सामने की सीट का नाम सुन रहे थे “अप्रतिम अग्निहोत्री”
‘अप्रतिम! वल्लाह’ इस बार सरसराई फुसफुसाहट नरम, मीठे जनाना सुर में थी. कौन बोला, कोई तो नहीं? शायद रातरानी की गमक फुसफुसाई हो जो आउटर सिग्नल पर ठहरी हुई रेल के पास वाले किसी बंगले की फुलवारी में टहलती फिर रही है.
“सुनिए” मर्द ने आंखें खोलीं, आवाज़ उसे ही पुकार रही थी. वहां दो लोगों के अलावा और कोई है भी तो नहीं. सामने बैठी औरत उसी से मुखातिब है, हाथ में खाने से भरी काग़ज़ी रकाबी लिए.
“आइए, खाना खा लीजिए.” इस बार आवाज़ के साथ रकाबी की गर्म पूरी, आलू-गोभी और बिरयानी की महक ने भी टेक लगाई.
“जी शुक्रिया, आप खाइए,” मर्द ने नरमी से इस रस्मी बुलावे का टकसाली जवाब दिया, लेकिन मेज़बान का बुलावा और रकाबी में सजा खाना दोनों पुर इसरार और गर्म थे.
“लीजिए न. ओह हां! आप बिरहमन हैं. आप को ऐतराज़ हो तो रहने दें, वैसे ये सब वेज है,” अचानक औरत ने अपना बुलावा वापिस ले लिया और असमंजस में झूलते मर्द ने फौरन रकाबी थाम ली. चुपचाप खाना खाते दोनों अजनबी चुप हैं, औरत चुप रहकर मेजबानी निभाती रही और मर्द पेट भरने तक खाता रहा.
“लाइए,” इस बार मर्द ने हाथ बढाया. औरत एक बार हिचकी फिर अपने हाथ की जूठी रकाबी-चम्मच मर्द को थमा दीं. डस्टबिन की ओर जाता मर्द उसके लिए नया तजुर्बा है, उसकी आंखें एकदम हैरान हैं.
“लेंगे?” सौंफ की डिबिया आगे बढ़ाती औरत की आवाज़ में नामालूम सी लरज है, मर्द ने नहीं सुनी. उसने टोकरी सहेजती हरी चूड़ियों की खनक भी नहीं सुनी और फिर से घुमड़ने लगे बादलों की आवाज़ भी नहीं सुनी. पर जाने कैसे उसके कानों ने दूधिया कानों की बाली में टकराते लाल मोतियों की मीठी लड़ाई सुन ली. वो कुछ देर चुप बैठा सुनता रहा फिर कपड़े ले कर बाथरूम की ओर चला गया
सफ़ेद कुरते पाजामे में आए मर्द की सांवली रंगत खिल सी गई है, कत्थई मछलियों ने देखा और फिर बरौनियों के पीछे छुप गईं.
“आपको कुछ चाहिए, कोई दवा वगैरह?” लेटने के पहले मर्द ने हिचकते हुए पूछा और औरत की आंखों का सुरमा ख़ौफ़ से लरज गया.
“रब्बा! लापरवाही की हद करती हूं मैं, दवा लेना भी कोई भूलता है,” औरत ने ख़ुद को डपटा और मर्द के कानों में स्टेशन पर सुनी मर्दाना पथरीली आवाज़ गूंज गई.
हैरत कि मर्द ने बग़ैर पूछे औरत का पर्स उठा लिया, और ग़ज़ब कि वो चुप बैठी देखती रही.
“कौन सी दवा है.”
“जी लिब्राटिप,” औरत के चेहरे पर एक रंग आ कर गुज़र गया.
“शब्बाख़ैर,” औरत सोने की तैयारी में है.
‘अहा, कितना सुंदर गुड नाइट.’ मर्द ने मन में सोचा.
“गुड नाइट” दो जोड़ी नज़रें फिर मिलीं, इस बार ज़रा मुस्करा कर. फिर सुरमई आंखों ने परदा कर लिया.
मर्द नहीं देखना चाहता था, लेकिन उसे हरी चूड़ियों के नीचे धड़कती रग और उस पर खिंची खरोंच दिख गई, गुलाबी कान की लौ पर ठिठका तिल दिख गया, कांधे पर जमी दो कत्थई बूंदें दिख गई और निचले
ओंठ पर उभरा वो जामुनी धब्बा भी दिख गया जो कुछ देर पहले तक मोतिया लिपस्टिक में छुपा था. नहीं सुनना चाहता था, लेकिन उसने बालियों के मोतियों की सरगोशी सुनी और फ़िज़ा में चुप्पी के साथ घुली हिना की भीनी-महकती तपिश को भी पहचाना. साइड लोअर बर्थ का पर्दा खिंच गया, मर्द ने भी बिजली बुझा दी.
अब बंद परदे की ओट से कुछ देर फ़ोन पर बतियाने की आवाज़ और दबे सुर में हंसी की खनक भी पर्दे से बाहर छलक रही है.
मर्द ने बातें नहीं सुनी, हंसी की मिठास भी नहीं. लेकिन एक मासूम, कमसिन, ज़िम्मेदारियों से बेफ़िक्र लड़की, जो अब तक कहीं छुपी थी, की आवाज़ में बहती ख़ुशी को पकड़ लिया. फिर सब कुछ इकतार चलती गहरी सांसों की आवाज़ में डूब गया. मर्द की पलकें भी झपकने लगी थीं कि परदे के पीछे से लगातार बजते फ़ोन की आवाज़ से फिर खुल गईं.
“हेलो, जी! कहीं नहीं गई, यहीं हूं. बस ज़रा नींद लग गई थी,” औरत की दबी-सहमी आवाज़ में खरज है. प्लीज़ अरहान... यहां अकेली थी, कुछ काम नहीं था तो दवा जल्दी ले ली. घर पर कब सोती हूं इतनी जल्दी,” औरत मुजरिम की सी दबी आवाज़ में सफ़ाई दे रही है.
“अरहान!! ख़ुदाया... मैं सफ़र में हूं... ये ठीक नहीं... कुछ तो... जी?? नहीं, नहीं मेरा मतलब वो नहीं था... प्लीज़ अरहान, नाराज़ न हों... आगे से नहीं कहूंगी... ओके,” मर्द न चाहते हुए भी बहुत कुछ सुन रहा है.
उसने नहीं सुनी बहुत देर तक उधर से आ रही आवाज़ें, लेकिन साफ़ सुनी औरत के हलक में घुटी सिसकी, जो फ़ोन बंद करने के बाद बाद निकली थी.
परदे के पीछे फिर ख़ामोशी है लेकिन इकतार, गहरी सांसों की आवाज़ मर्द ने नहीं सुनी. शायद टूट कर बरसते बादलों के कारण या अपनी ही बेचैन और उबड़-खाबड़ धड़कनों के शोर के कारण. और उसकी खुली पलकें भी फिर नहीं मुंदी.
रात अपने शबाब पर है और रेल की रफ्तार भी. पिछले स्टेशन पर चढ़ी सवारियां गहरी नींद में डूबी हैं. नीले बल्ब की रौशनी में ज़्यादा सांवला लग रहा मर्द अब भी बैठा है, अपनी ही सुरंगों में उतरा हुआ.
“सोए नहीं आप?” अचानक पर्दा हटा कर बाहर आ गई आवाज़ ने धीरे से सुरंग के दहाने पर थपकी दी.
“जी, नींद नहीं आ रही,” मर्द ने मुख़्तसर जवाब दिया, बहुत हौले से कि कूपे के सन्नाटे की नींद न उचट जाए.
“ओह, मुझे भी यही परेशानी है, इसीलिए तो दवा लेती हूं,” औरत ने कहा और शर्मिन्दा भाव से निगाहें झुका लीं. चांद ने ऐन उसके नीले ओंठ की पपड़ी पर उंगली रख दी, गोया औरत को जाती बातें बताने को मना कर रही हो.
“फिर भी सोईं तो नहीं,” मर्द के होठों से बेसाख्ता निकला और इस बार कुछ नहीं थर्राया. औरत ही नहीं उसकी पलकें, बरौनी, चूड़ियां और बालियां ही नहीं, सुरमई दरियाओं में तैरती दो कत्थई मछलियां भी हिलना भूल गईं. लेकिन हिना की गर्म ख़ुशबू जाग गई. मर्द ख़ामोश है, औरत भी चुप है और अचानक लहक गई उस तीसरी महक को पहचानने की कोशिश में है जो हिना की गर्म महक और संदल की तर महक से जुदा किसी भी इत्र, परफ़्यूम से अलग है.
महक, जिसने सबसे पहले औरत के सुरमई दरियाओं में सोई मछलियों को जगाया, फिर उसकी नींद में गाफ़िल रग को, फिर कान की लौ के नीचे वाले तिल को और सबसे आख़िर में उसके निचले होंठ पर सोया पड़ा बैंगनी धब्बा थरथरा कर जाग गया. सब जाग गए लेकिन हरी चूड़ियां और बालियों के मोती अब भी चुप हैं और हीरे की कनी पर सरगोशी करता चांद है कि हिलने का नाम नहीं ले रहा. मर्द का मन कर रहा है इस गुस्ताख़ को चुटकी से पकड़ कर दफ़ा कर दे.
फिर मर्द को वो रात याद आ गई जहां रूमान की ख़ुमारी में डूबा एक दीवाना मन बरसते पानियों में घुलते दो जिस्मों की महक को पीते हुए प्रेम करना चाहता था... जो हरी घास पर बिछे दो जिस्मों की उलझन के बीच अटक गए चांद से रकाबत करना चाहता था... जो दो हथेलियों की हरारत में चंद इश्क़िया शब्दों के बीज बोना चाहता था…
“अमृता, देखो पूरे चांद की रात है. चलो, हम घास पर लेटे हुए प्यार करेंगे. सुनो, तुम नाक में एक हीरा डाल लो न. जब चांद की किरणें उनसे खेलेंगी तो मैं जल मरूंगा और... ”
“जितनी बचपने की बातें हैं तुम्हें इसी समय क्यों सूझती है? इस समय लॉन में मच्छर खाल उतार लेंगे. और नोज़ पिन पहनने से सेक्स में हीरे-मोती लग जाएंगे क्या? होगा तो वही जो यहां करोगे...” एक ऊबी-उतावली दुनियादार आवाज़ का चाबुक लपकता है और ख़ुमार के आसमान में उड़ती पतंग सी ठुमकी लेता जिस्म ज़मीन पर आ कर ज़िम्मेदारी अदा करने लगता है.
“अभी काफ़ी रात बची है, आप सो जाइए,” ये कूपे में बैठा मर्द है जो चांद से नज़रें फिराए अपने अजनबी हमसफ़र के लिए फ़िक्रमंद है.
“अब मुझे नींद नहीं आएगी, आप सो जाएं,” औरत की आवाज़ में रतजगों का सच है.
“हमारी बातों से दूसरे मुसाफ़िरों की नींद में ख़लल पड़ रहा होगा,” औरत ने कहा और मर्द ने जाने क्या सुना. फिर उठ खड़े हुए मर्द की ख़ामोशी ने जाने क्या कहा कि औरत ने पैताने खड़े सरापे को भर नज़र देखा और पैर समेट लिए.
सीट पर बैठते मर्द की उचटती नज़र ने देखा उन सफ़ेद पैरों पर हिना के बूटे खिले हुए हैं, इसके सिवा कुछ नहीं. न उंगलियों में बिछुए, न नाख़ूनों पर नैलपॉलिश, कोई पाजेब, कोई छड़ी-छल्ला भी नहीं. बस उसके दाएं टखने पर एक काला डोरा लिपटा हुआ है.
“ये दुआएं हैं न?” उसने डोरे की जानिब इशारा किया.
“जी, अम्मी लाईं थी, किसी पीर के आस्ताने से.”
मर्द की अब तक बेतरतीबी से धड़क रही सांसें लय में आ गईं हैं. उसने औरत को देखा, जो अब भी उसी तरह बैठी है, पलाज़ो के पायंचे को ठीक किए बिना.
और मर्द पर जैसे हाल तारी हो गया, उसके होंठ डोरे पर जा ठहरे, जैसे बाअदब बन्दगी में झुका हो. ग़ज़ब कि औरत अब भी बुत बनी बैठी रही.
हीरे की कनी के हिंडोले पर झुलते आशिक मिज़ाज चांद ने सब देखा और शरारत से एक पलक झपका दी. इस बार मर्द से रहा नहीं गया. फिर एक लम्हे तक उसके होंठों की गिरफ़्त में दबा चांद मचल कर खिड़की से झांकती बदली के दामन में जा छुपा. और अब तक बुत बनीं कानों की बालियां और हरी चूड़ियां खिलखिला उठीं.
“ख़ुदाया, चुप भी रहो, लोग सो रहे है,.” शोख़ चूड़ियां झिड़की खा कर भी हंसती रहीं, आजिज़ आकर औरत ने पर्दा खींच लिया. अब बंद परदे के पीछे छुप गई सीट के नीम अंधेरे में मर्द वो सब देख पा रहा है जो अब तक नहीं दिख रहा था.
उसे सब से पहले दिखीं वो बूंदें जो सामने बैठी पेशानी की नीली रग पर चमक रही हैं. औरत ने उस देखने को देखा और सुरमई चिलमनों पर सितारे चमक गए. हैरत की बात कि नीली रग का ज़हर उतर गया कि मर्द की गर्म सांसों ने उन जलती बूंदों को सोख लिया है.
जाने कब खिड़की के बाहर से झांकती एक घटा औरत की आंखों में उतर आई, जिसकी नमी से चिलमनों के सितारे बूंद बन कर बरसने लगे और गले से नीचे पाताल को उतरती घाटी में नदी बह गई. मर्द तड़प उठा, उसने एक बेहद कोमल शाइस्तगी के साथ गले के दुपट्टे को उतार कर तकिए के पास रख दिया, जैसे खिदमतगार ने बाअक़ीदत मज़ार की चादर उतारी हो. औरत की पलकें एक बार लरजीं और गुलाब की पंखुड़ियां चटक कर खिल गईं.
हैरत कि... उस डेढ़ फुट चौड़ी सीट में कैसे समाई वो रूहें और दो लिबासों के पास रखे दो जिस्म.
कि... उस भरे कूपे के सन्नाटे में किसी ने नहीं सुनी उनकी सरगोशियां.
कि... हिना, संदल और दो जिस्मों की आदिम बू ने मिल कर भी किसी की नींद में ख़लल नहीं डाला.
कि... लरजती कलाइयां बवंडर की गुस्ताख़ हथेलियों में उलझी रहीं पर रेशमी चूड़ियों के नाज़ुक तन जस के तस रहे. और उनके लिहाफ़ तले सो रही लम्बी खरोंच भी नरम बोसों की पूरसुकुन, ठंडी थपकियों से  गहरी नींद में खोई रही.
कि... बालियों के मोतियों को आराम नहीं मिल रहा पर उनका हमसाया तिल अनगिनत बोसों की जागीर से मालामाल होता रहा.
कि... दूधिया शानों को एक पल रिहाई नहीं मिली पर उन पर जमी लहू की बूंदों का दर्द सुरंगों से बह रहे पाकीज़ा पानी ने सोख लिया.
और सबसे ज़्यादा हैरानी गुलाबी पंखुड़ी पर बैठे बैंगनी धब्बे को है, जो जलते होंठों की दहकती अंगीठी बीच भी अनछुआ है.
सांवली बांहों की मछलियां अब घाटी के बीच बहते पानियों में तैर रही हैं और पसीने के बीच थरथराते दो मोती... गोया सर-ए-कोह्काफ़* पर गुल-ए-बकावली सी जिल्द वाली, संदल में डूबी दो परियां रक़्स कर रही हों. और अजनबी के होश से बेगाने होंठों ने बेसाख्ता एक परी को चूम लिया.
“अल्लाह...नहीं! ये हमारे यहां गुनाह-ए-अज़ीम है,” सौंफ की महक में डूबी आवाज़ ख़ौफ़ से लरज गई.
“सुनो, इश्क़ का मज़हब केवल इश्क़ है और इश्क़ में गुनाह ढूंढ़ना गुनाह-ए-अज़ीम,” जवाब मछलियों ने दिया और मोती चुग लिया.
फिर सारी रात दो रूहें अपनी पीर बांटती रही, आंसू साझा करती रही, मर्द के सीने पर थरथराती चिलमनों ने बार-बार लिखा... ‘अप्रतिम’.
हिना से दहकती हथेलियों की पनाह में सांस लेतीं सुरंगों से सदाएं आती रहीं... ‘किश्वर’.
रेल अपनी रफ़्तार से दौड़ती रही, बेतरतीब सांसों में गूंजती धड़कनें उससे होड़ लेती रहीं. बादल गरजते रहे और दो मद्धिम आवाज़ों से हारते रहे. बदलियां बरसती रहीं और दो भीगे जिस्म अपनी ही बरसात में नहाते रहे. चांद भी उकता कर सोने चला गया कि परदे के पीछे बिखरी रोशन रूहों के उजाले में उसकी ज़रूरत नहीं थी.
रेल चलती रही, महोगनी लटें मचलती रहीं, तूफ़ान के साए में परियां रक्स करती रहीं और घाटी के पानियों में जन्नती फूल खिलते रहे. हिना दहक-दहक कर ठंडी पड़ गई, संदल भीग कर पसीज गया, लेकिन आदिम बू अब भी नहीं थकी. पड़ाव आते और पीछे छूटते रहे.... दो जाविदां रूहें मुसलसल तिलिस्म में डूबी सांसों की पतवार से आग के दरिया में कश्ती खेती, एक के बाद दूसरे भंवर में डूबती-उतराती रहीं.
सांवला सरापा जो नाख़ुदा ही नहीं फ़नकार भी है, साजिंदा बना अपनी माहिर उंगलियों से अलग-अलग साज़ों पर मोहब्बत के नगमे सुनाता नहीं थक रहा. न सुरमई चिलमनों के पीछे से झांकती शर्मीली कत्थई पुतलियां सुनती हुई थक रही हैं.
साजिन्दे की सितार पर थिरकती उंगलियां बेबाक हैं, इस एहसास-ए-गुनाहगारी से सुर्खरू कि वो किसी ग़ैर साज़ पर सुर-ताल छेड़ रहीं हैं. गुस्ताख़ी से परे इस बात से मुतमईन है कि न उसकी ताल बेताला होगी न सुर बेसुरा होगा.
सितार के तारों से खेलती उंगलियां कभी जलतरंग की प्यालियों में सुरबहार भर देती हैं तो कभी उस्ताद तबलची बन कर तबले पर तीन ताल के बोल गूंजने लगते हैं... धा धिन धिन धा, धा धिन धिन धा, धा धा तिन तिन ता ता, ता धिन धिन धा... अचानक वो राग मल्हार के सुर उठाता है, महोगनी बादल उमड़ते हैं और घाटी में बहती नदी का पानी सैलाब बन कर दूसरी घाटी की ओर बहने लगा है.
सैलाब, जिस में दोनों रूहें डूबी जा रही हैं, पर हरफनमौला हाथों की न साज़ से पकड़ छूट रही है न पतवार से. लेकिन एक भंवर है कि आगे ही नहीं बढ़ने दे रहा... दूधिया रूह के सबसे पिछले दाँत से आगे वाले दाँतों के बीच अटका वो सुआदी रेशा कहना क्यों नहीं मान रहा...? वो कुरेदता रहा जब तक कि रेशा जीभ पर न आ गया.
जाने वो सौंफ का रेशा था या प्रेम का, जिसे चख कर सांवला रंग ज़ुबैरी हो गया और दूधिया रंग अग्निहोत्री. अब बेजात-धर्म की दो रूहें हैं, जिनका मज़हब इस पल में एक-दूसरे के दर्द का फाहा बन जाना है.
साज़ बजते रहे, पतवार और कश्ती मिल कर अपनी रवानगी में डूबे साहिल का सफ़र तय करते रहे. इतनी देर, इतने ठहराव से कि रात की आंखें भी झपकने लगीं, लेकिन चूड़ियों और बालियों की खनकती सरगोशियां हैं कि दो बेतरतीब सांसों की आवाज़ पर भारी पड़ रही हैं.
साजिन्दे ने सितार छोड़ कर तबले पर ताल कहरवा उठा लिया है.. ‘धा गे ना तिन ता धिन ना...’ नाख़ुदा साहिल के नज़दीक आने को है, पतवार की रफ़्तार ने तेज़ी पकड़ी... तेज़ी से आगे बढ़ती कश्ती ने भी साथ दिया... वो एक बार ज़ोर से डगमगाई फिर बहक गए पानियों की बौछार को जज़्ब करती हुई साहिल पर आ रुकी.
बौछार... जिस ने कायनात की सब से कच्ची मिटटी से बने रूह के पुतलों को भिगो दिया, वो तुरंत पिघल कर गड्डमड्ड हुए और दो से एक हो गए. डेढ़ फुट की उस कायनात में अब दुई का नाम-ओ-निशां नहीं है. जो भी है एक है, जैसे ख़ुदाई नूर, जैसे एक ओमकार.
ऐन उसी वक़्त शुमाल (उत्तर दिशा) की जानिब के आसमां में कुतबी सितारा (ध्रुव तारा) चढ़ आया, उसने मर्द की गहरी सुरंगों में कोई मंतर फूंका जिससे उनके मुहाने मुंद गए. जिस्म और लिबास जहां थे वहीं रखे रहे. एक रूह दूसरी रूह में समाई हुई गहरी नींद में डूब गईं.
सुबह के पांच बजे... किसी स्टेशन पर सीटी बजाती रेल और मोबाइल के अलार्म ने एक साथ उस रूह को जगाया जो परदे के पीछे गहरी नींद में यूं सोई थी गोया जन्मों के कर्ज़ उतार कर सोई हो.
उसने देखा उसका जिस्म उसके लिबास के पास रखा है लेकिन दूसरी रूह, उसका जिस्म और लिबास वहां नहीं है.
शानों पर छितराई गेसुओं की छांह अब नहीं है, लेकिन कुछ महोगनी गेसू अब भी उसके शाने से लिपटे सो रहे हैं. सीने के नीचे छुपी चांद की फांकें भी वहां नहीं हैं, लेकिन चिलमनों का सुरमई रंग अब भी वहां गहरी नींद में डूबा है. हिना और संदल की महक जा चुकी है, लेकिन सौंफ की महक अब भी उसकी सांसों में बसी है. बालियों और चूड़ियों की शोख़ खनक चली गईं हैं लेकिन कानों में बरसती मद्धम सरगोशी का सुर अब भी कानों में अटका हुआ है.
रूह ने उठ कर जिस्म ओढ़ा और अब एक मर्द रेंगती हुई रेल की खिड़की से बाहर झांक रहा है. दूर प्लेटफ़ॉर्म पर बुरका पहने सरो सी देह वाला एक साया सतर क़दमों से चलता नज़र आया, फिर रेल की रफ़्तार और सूरज की आमद के पहले वाले उजाले ने मिलकर रात की तिलिस्मी स्लेट पोंछ दी. मर्द कुछ पल देखता रहा फिर लिबास उठा लिया और... उसकी नज़र अपनी दाईं कलाई पर टिक गई, जहां एक काला डोरा लिपटा है.
मर्द ने बहुत नरमी और अक़ीदत से डोरे को आंखों से लगाया फिर उस पर होंठ रख दिए. काफी देर यूं ही बैठा रहा, फिर खिड़की का परदा खींच कर सीट के आगे तना परदा समेट दिया. 
*फारस के देशो में किंवदंती है कि कोह्काफ़ पहाड़ की चोटियों पर परियां रहती हैं.



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