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साहित्य शनिवार: आदिवासी लेखिका रोज केरकेट्टा के बारे में विस्तार से

टीम Her Circle |  December 06, 2025

आदिवासी साहित्य को नया रूप देने का काम लोकप्रिय महिला साहित्यकार रोज केरकट्टा ने किया है। रोज केरकेट्टा झारखंड की एक लोकप्रिय आदिवासी लेखिका रही हैं। इसके साथ ही वह कवयित्री और सामाजिक मानवाधिकार की कार्यकर्ता भी रही हैं। उल्लेखनीय है कि उन्होंने हिंदी में भी अपना लेखन का कार्य किया है। उन्होंने लगातार अपनी लेखनी के जरिए आदिवासी संस्कृति महिलाओं के अधिकार, सामाजिक न्याय और भाषा संरक्षण के लिए सक्रिय तौर से काम किया है। हालांकि उनका निधन 17 अप्रैल 2025 को रांची में हुआ। आइए जानते हैं विस्तार से।

रोज केरकेट्टा का प्रारंभिक जीवन

1940 में 5 दिसंबर को रोज केरकेट्टा का जन्म एक समाज सुधारक, सांस्कृतिक नेता प्यारा केरकेट्टा के घर हुआ। उनकी मां का नाम मरथा केरकेट्टा था। अपने पिता से ही रोज केरकेट्टा ने शिक्षा की अहमियत समझाई और आदिवासी समाज की पहचान से अवगत हुईं। जाहिर सी बात है कि उनके पिता के प्रभावशाली व्यक्तित्व ने उनके व्यक्तित्व निर्माण में खास भूमिका निभाई है। पिता के मार्गदर्शन में उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। उन्होंने एम.ए. और फिर पीएचडी की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद उन्होंने किताबों में अपनी रुचि को आगे बढ़ाया।। साल 1967 में उन्होंने सिमडेगा कॉलेज में लाइब्रेरियन के तौर पर अपना काम शुरू किया। इसके बाद उन्होंने बतौर प्रोफेसर साल 1977 में सिसई कॉलेज में हिंदी प्रोफेसर के तौर पर काम किया। खड़िया भाषा के प्रोफेसर के तौर पर भी कार्य किया।

लेखन और साहित्यिक योगदान 

रोज केरकेट्टा का लेखन आदिवासी जीवन, संस्कृति, भाषा, संघर्ष और महिलाओं की स्थिति जैसे संवेदनशील विषयों से जुड़ी रही हैं। उनकी प्रमुख रचनाओं के बारे में बात की जाए, तो पगहा जोरी-जोरी रे घाटो एक हिंदी कहानी संग्रह है। जिसमें आदिवासी समाज, आर्थिक और सामाजिक असमानता, महिलाओं की पीड़ा और उनके संघर्ष की कहानियां हैं। खड़िया भाषा में उन्होंने कई सारी लोक-कथाओं, लोक-साहित्य और सांस्कृतिक अध्ययन पर आधारित संग्रह लिखा है, जो कि काफी प्रचलित रही है। इतना ही नहीं खड़िया में उन्होंने हिंदी के महान लेखक प्रेमचंद की कहानियों का अनुवाद भी किया है। ज्ञात हो कि रोज केरकेट्टा की लेखनी आदिवासी जीवन की वास्तविकता, संघर्ष, सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित करने का कार्य करती रही है, यही वजह है कि उनकी लेखनी हमेशा प्रासंगिक रही है। यह भी है कि उनकी कहानियां, शोध और साहित्य आदिवासी जीवन को सिर्फ नारे या दस्तावेज के तौर पर नहीं बल्कि जीवंत, संवेदनशील और आत्मीय अनुभव के रूप में सामने लाती रही हैं। इस वजह से रोज केरकेट्टा कहीं न कहीं आदिवासी समाज की सांस्कृतिक विरासत की भी आवाज रही हैं।

महिला सशक्तिकरण की बनीं आवाज

रोज केरकेट्टा एक साहित्यकार ही नहीं, बल्कि एक सामाजिक कार्यकर्ता भी रहे हैं। उन्होंने आदिवासी अधिकारों के लिए भी बात की है। खासतौर पर महिलाओं सशक्तिकरण के मुद्दे को भी अपनी लेखनी के जरिए पटल पर लाकर रखा है। खासतौर आदिवासी महिलाओं की आवाज को समाज के सामने लाया। यह भी है कि शिक्षा और जागरूकता के जरिए उन्होंने महिलाओं को सशक्त बनाने का प्रयास हमेशा किया है। हालांकि उनके निधन के बाद उनकी याद में एक साहित्यिक सम्मान की भी स्थापना हुई है। इसका नाम रखा गया है, रोज केरकेट्टा साहित्यिक सम्मान, जिसे पहली बार 2025 में दिया गया। 

मिलें कई सारे सम्मान

रोज केरकेट्टा को कई सारे साहित्यिक, शैक्षणिक और सामाजिक सम्मान दिए गए हैं। इसके अलावा 2002 में, अपने पिता की जन्म-शताब्दी पर, उन्होंने प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन की स्थापना की। यह संस्था आदिवासी साहित्य, संस्कृति व सामाजिक उत्थान के लिए काम करती रही। 2025 में उनके निधन के बाद यह फाउंडेशन और अन्य सामाजिक व साहित्यिक संगठनों द्वारा उनकी स्मृति में रोज केरकेट्टा साहित्य सम्मान शुरू किया गया। यह सम्मान आदिवासी साहित्य और महिलाओं की आवाज़ को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से है।

लेखनी में मौजूद आदिवासी संस्कृति की विरासत

रोज केरकेट्टा की लेखनी में लोक कथाएं, कहानियां, सांस्कृतिक कथाएं मौजूद रही हैं, जो कि आज भी आदिवासी सांस्कृतिक विरासत के लिए महत्वपूर्ण मानी गई हैं। उनके लेखन में महिलाओं के अधिकार, उनकी आजादी और न्याय से जुड़े कई मामले रहे हैं। उन्होंने एक तरह से आदिवासी समुदाय की आजादी, उनकी पीड़ा, संघर्ष, उत्पीड़न को लेकर अपनी दमदार लेखनी पेश की है, जो कि आज ही उतनी ही प्रासंगिक है।  उन्होंने सामूहिक शिक्षा, जागरूकता, भाषा-साहित्य को आधार बना कर सामाजिक सुधार व परिवर्तन की दिशा में काम किया। यह दृष्टिकोण आज भी आदिवासी समाज के उत्थान व सशक्तिकरण में उपयोगी है।

कुल मिलाकर देखा जाए, तो रोज केरकेट्टा न सिर्फ एक लेखिका और शिक्षिका रही हैं, बल्कि उन्होंने आदिवासी समाज की महिलाओं के जीवन को अपनी लेखनी के जरिए नई दिशा भी दी है। उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि कैसे एक व्यक्ति शिक्षा, लेखन और सक्रियता के माध्यम से अपनी माटी, अपनी भाषा और अपने समाज की महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठा सकता है। 


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