कुँवर नारायण बेहद कम शब्दों में जीवन का सार समझा दिया करते थे। उनकी कविताओं के शब्द सरल होते हुए भी जीवन की जटिलताओं को दर्शाने में कामयाब रहे हैं। आइए पढ़ें उनकी कुछ रचनाओं को।
जीवन परिचय
कुँवर नारायण के बारे में उनकी रचनाओं के माध्यम से समझा जा सकता है। दरअसल, इतिहास और मिथक के जरिये वर्तमान को देखने की कला में वह पूरी तरह से माहिर थे। और उनकी यह खूबी थी कि उनकी मूल विधा कविता रही, लेकिन उन्होंने कहानियों का भी खूब लेखन किया। साथ ही सिनेमा और रंगमंच से वह जुड़े रहे। उनकी कविताओं और कहानियों की खासियत रही है कि कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। उनके बारे में आपको यह जानकारी जरूर होनी चाहिए कि उन्होंने 1950 में काव्य लेखन की शुरुआत की।
अंतिम ऊँचाई
कितना स्पष्ट होता आगे बढ़ते जाने का मतलब
अगर दसों दिशाएँ हमारे सामने होतीं,
हमारे चारों ओर नहीं।
कितना आसान होता चलते चले जाना
यदि केवल हम चलते होते
बाक़ी सब रुका होता।
मैंने अक्सर इस ऊलजलूल दुनिया को
दस सिरों से सोचने और बीस हाथों से पाने की कोशिश में
अपने लिए बेहद मुश्किल बना लिया है।
शुरू-शुरू में सब यही चाहते हैं
कि सब कुछ शुरू से शुरू हो,
लेकिन अंत तक पहुँचते-पहुँचते हिम्मत हार जाते हैं।
हमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती
कि वह सब कैसे समाप्त होता है
जो इतनी धूमधाम से शुरू हुआ था
हमारे चाहने पर।
दुर्गम वनों और ऊँचे पर्वतों को जीतते हुए
जब तुम अंतिम ऊँचाई को भी जीत लोगे—
जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब
तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में
जिन्हें तुमने जीता है—
जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे
और काँपोगे नहीं—
तब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क़ नहीं
सब कुछ जीत लेने में
और अंत तक हिम्मत न हारने में।
लगभग मान ही चुका था मैं
संभावनाएं
मृत्यु के अंतिम तर्क को
कि तुम आए
और कुछ इस तरह रखा
फैलाकर
जीवन के जादू का
भोला-सा इंद्रजाल
कि लगा यह प्रस्ताव
ज़रूर सफल होगा।
ग़लतियाँ ही ग़लतियाँ थी उसमें
हिसाब-किताब की,
फिर भी लगा
गलियाँ ही गलियाँ हैं उसमें
अनेक संभावनाओं की
बस, हाथ भर की दूरी पर है,
वह जिसे पाना है।
ग़लती उसी दूरी को समझने में थी।
इतना कुछ था
इतना कुछ था दुनिया में
लड़ने-झगड़ने को
पर ऐसा मन मिला
कि ज़रा-से प्यार में डूबा रहा
और जीवन बीत गया...