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होम / एन्गेज / साहित्य / किताब-घर

साहित्य रविवार में जानें ब्रज भाषा साहित्य का इतिहास

टीम Her Circle |  नवंबर 26, 2023

गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी बहुत सारी रचनाएं ब्रज भाषा में की हैं। इसकी वजह यह है कि ब्रज भाषा को हिंदी साहित्य में मधुर भाषा का स्थान दिया गया है। इसी वजह से कई सारी ऐसी रचनाएं हिंदी साहित्य में मौजूद है, जो कि ब्रज भाषा में लिखी गई हैं। साहित्य में ब्रज भाषा का साहित्य सबसे अधिक है। उदाहरण के तौर पर सूरदास द्वारा लिखित यह पंक्ति भी बज्रभाषा में है कि ‘देखो मैं छबी आज अति बिचित्र हरिकी, आरूण चरण कुलिशंकज। चंदनशो करत रंग। सूरदास जंघ जुगुली खंब कदली। कटी जोकी हरिकी। उदर मध्य रोमावली। भवर उठत सरिता चली। वत्सांकित हद्य भान। चोकि हिरवकी सूरदास।’ आइए विस्तार से जानते हैं ब्रज भाषा साहित्य के बारे में पूरी जानकारी।

ब्रज की बोली बनी साहित्य की भाषा जानिए कैसे?

साहित्य प्रेमियों के लिए यह जानना दिलचस्प है कि ब्रज भाषा में ही शुरुआत में हिंदी काव्य की रचना हुई थी। कई सारे कवियों ने भगवान के प्रति अपने भाव और प्रेम को इसी भाषा में बयान किया था। खासतौर पर सूरदास, रहीम, रसखान, केसव और बिहारी जैसे ऐतिहासिक कवियों ने ब्रज भाषा में अपनी भावनाओं को बयान किया है। आप यह भी समझ सकते हैं कि उस दौरान हिंदी का मतलब ब्रज भाषा ही होता था। दिलचस्प है कि ब्रज भाषा ही काव्य भाषा के तौर पर उत्तर भारत के बहुत बड़े हिस्से में मानी गई भाषा है। 19 वींशताब्दी तक काव्य भाषा के तौर पर ब्रजभाषा ने अपनी पकड़ देशभर में बना रखी थी। इसी वजह से एक लंबे अंतराल तक यानी कि आठ शताब्दी के करीब तक ब्रजभाषा को साहित्य की मानी और लोकप्रिय भाषा बन गई। इसी का एक उदाहरण यह रहा है कि 1814 के दशक के दौरान अंग्रेज अधिकारी मेजर टॉमस ने ‘सलेक्शन फ्रॅाम दि पॅापुलर पोयट्री ऑफ दि हिंदुज’ नाम की पुस्तक में कई सारे दोहे और कविताएं ब्रजभाषा के लोकप्रिय कवियों द्वारा रचित किये गए हैं।  

ब्रजभाषा साहित्य के कई सारे चरण

ब्रजभाषा साहित्य के इतिहास की बात की जाए, तो यह चरणों में एक के बाद एक आगे बड़ी है। पहले चरण में ब्रजभाषा का प्रारंभ 1525 ई के दौरान हुआ है, जो कि उस दौर के साहित्य के व्याकरण में झलकती है। खासतौर पर माणिक के बैताल पच्चीस, नारायण दास की रचना छिताई वार्ता और मेघनाथ की गीत भाषा में प्रथम चरण की ब्रजभाषा की रचनाएं दिखाई देती हैं। खासतौर पर ब्रजभाषा के तौर पर साहित्य में कहं, महं जैसे शब्द इस्तेमाल किए जाते रहे हैं,जो कि ब्रजभाषा कहलाती है। वहीं ब्रजभाषा साहित्य का दूसरा चरण 1525 से 1800 ई के दौरान का रहा है। दूसरे चरण में ब्रजभाषा सूरदास से शुरू हुई। खासतौर पर बाल साहित्य में उन्होंने ब्रजभाषा का इस्तेमाल सबसे अधिक किया है। जैसे यशोदा हरि पालने झुलावैं, मेरे लाल को आउ निदरिया, काहे ना आनि सुलावै। यह माना गया है कि जब भी सूरदास किसी खूबसूरत चीज या फिर व्यक्ति की भावनाओं का वर्णन करते थे, तो ब्रजभाषा उसकी खूबसूरती को और भी निखार देती थी। 

तीसरे चरण से वर्तमान तक में ब्रजभाषा का साहित्य

तीसरे चरण में ब्रजभाषा के चलन को पुख्ता किया है भारतेंदु ने। उन्होंने अपने युग में काव्य को ब्रजभाषा से जोड़ा। भारतेंदु के साथ बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र ने ब्रजभाषा को साहित्य की भाषा बनाने का जिम्मा बखूबी निभाया। कई ज्ञानी ऐसे हैं, जो कि ब्रजभाषा को ग्वालियरी भाषा का नाम भी देते हैं, हालांकि बदलते वक्त के साथ ब्रजभाषा का पद्य और गद्य भी धीरे-धीरे खड़ी बोली में बदलने लगा। 19 वीं शताब्दी के अंत तक ब्रजभाषा ने अपना स्थान बदलते हुए खुद को खड़ी बोली में परिवर्तित कर होने लगा और फिर ब्रजभाषा ने खुद को एक हद तक हिंदी बोली में तब्दील कर लिया। 

बज्रभाषा साहित्य का कालखंड के कितने कितने प्रकार 

ब्रजभाषा साहित्य को भी चार कालखंडों में देखा जा सकता है। सबसे पहले संक्रान्तिकालिन ब्रजभाषा साहित्य, दूसरे नंबर पर प्रारंभिक ब्रजभाषा साहित्य, तीसरे नंबर पर मध्यकालीन ब्रजभाषा साहित्य, चौथे नंबर पर आधुनिक ब्रजभाषा साहित्य। हम इस वक्त ब्रजभाषा के चौथे कालखंड में मौजूद है, जो कि आधुनिक साहित्य है। अगर हम बात ब्रजभाषा साहित्य के प्रमुख कवियों की करें, तो इसमें सबसे पहले नाम आता है, सूरदास का और उनकी लिखी हुई कृतियां सूरसागर, सूरसारावली और साहित्य लहरी का। फिर बारी आती है, नंददास की। उन्होंने सुदामाचरित औप रस मंजरी में ब्रज भाषा का प्रयोग किया है। इसके बाद तुलसी दास ने अपनी रचनाओं गीतावली, विनयपत्रिका और कवितावली में ब्रज भाषा को इस्तेमाल किया है। सिर्फ ब्रजभाषा के लोकप्रिय और यादगार कवियों की बात की जाए, तो सूरदास, रहीम, रसखान, केशव, घनानंद और बिहारी हैं। जानकारों के अनुसार ब्रजभाषा के प्रथम कवि जगन्नाथदास रत्नाकार रहे हैं। इसके साथ ब्रजभाषा ने अपनी पकड़ को महाराष्ठ्र तक भी पहुंचाया। नामदेव की रचनाओं में ब्रजभाषा दिखाई देती है। संत ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम, रामदास की हिंदी रचनाओं में ब्रज भाषा को देखा जा सकता है। सिंध में भी ब्रजभाषा के साहित्य की उपस्थिति दिखाई पड़ती है। सिंध और पंजाब में वैष्णव धर्म के प्रचार में ब्रजभाषा का उपयोग किया गया है। 

ब्रजभाषा में साहित्य की मौजूदगी 

दिलचस्प है कि ब्रजभाषा की साहित्य में उपस्थिति को किसी भी तरह नकारा नहीं जा सकता है। खासतौर पर आदिकाल से लेकर वर्तमान काल तक ब्रजभाषा ने काव्य के साथ अपना नाता बनाए रखा है। साथ ही साहित्य के हर पड़ाव पर अपनी कीर्ति को भी स्थापित किया हुआ है। यही वजह है कि हिंदी साहित्य के आदिकाल के साहित्य में भी ब्रजभाषा के बीज मिलते रहते हैं। इसके साथ ही ब्रजभाषा का मध्यकाल खास तौर पर संस्कृत साहित्य की विवेचनाओं पर आधारित रहा है। इसी कारण कालिदास के काव्य ग्रंथों में भी ब्रजभाषा के होने के निशान मिलते हैं। मध्यकाल में कृष्ण भक्ति के साथ ब्रजभाषा ने उत्तर भारत के काव्य पर अपनी पकड़ जमा कर रख ली। इसके बाद एक के एक करते हुए गुजरात में साहित्यकार नरसी मेहता, महाराष्ट्र में संत तुकाराम और बंगाल में चंडीदास ने भी ब्रजभाषा में कई काव्यों की रचना की। जिस तरह से ब्रजभाषा ने अपने पैर पसारे हैं, इसे देखकर लगता है कि ब्रज क्षेत्र से अधिक ब्रजभाषा का विस्तार हुआ है। यह जान लें कि असम, गुजरात, पंजाब, उत्तराखंड के सात पश्चिम और उत्तर प्रदेश में ब्रज भाषा न सिर्फ साहित्य की भाषा रही है, बल्कि वहां के शासन की भी भाषा बनी। 

ब्रजभाषा का विकास 

ब्रजभाषा ने खास तौर पर अवधी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, बुन्देली, राजस्थानी और खड़ी बोली के क्षेत्रों में रचे गए साहित्य में ब्रजभाषा ने खुद को बनाए रखने का प्रगतिशील कार्य किया है। हिंदी प्रांत के साहित्य में ब्रजभाषा का योगदान सतत बना रहा है। ब्रजभाषा ने धार्मिक काव्य साहित्य में अपना श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया है। खासतौर पर मथुरा में कृष्ण के वर्णन में ब्रजभाषा का सबसे अधिक उपयोग हुआ है। यह भी एक वजह मानी जाती है कि मथुरा और उसके आस-पास के क्षेत्र को ब्रजमंडल के नाम से पुकारा गया है। ब्रजभाषा का साहित्यिक रूप विशाल और बेशकीमती रहा है। बदलते वक्त के साथ ब्रजभाषा में लिखने और पढ़ने का चलन पहले के मुकाबले कम हो गया है। इसके बावजूद आकाशवाणी मथुरा और आकाशवाणी दिल्ली से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम में ब्रज भाषा की कई सारी अच्छी रचनाएं सुनने को मिलती हैं।

ब्रजक्षेत्र की बोली

ब्रजभाषा आमतौर पर देवनारपी लिपी में लिखी जाती है। साथ ही इसकी शब्दावली में संस्कृत भाषा से का सबसे अधिक उपयोग किया जाता रहा है। ब्रज भाषा मूल तौर पर ब्रजक्षेत्र की बोली है। साहित्य में इसका इस्तेमाल कई सारे रचनाकारों के जरिए करने के बाद ब्रजभाषा पूरी तरह से साहित्य की भाषा बन गयी । उल्लेखनीय है कि हिंदी फिल्मों और गानों में भी ब्रजभाषा का प्रयोग होता रहा है। शुद्ध रूप से ब्रजभाषा मथुरा,अलीगढ़, आगरा और भरतपुर के साथ हिंदी शहरों में आज भी अपनी पकड़ को जमाए रखा है। ब्रजभाषा में ‘ड’, ‘ड’ के जगह पर ‘र’ ध्वनि का इस्तेमाल किया जाता है। साथ ही ‘ह’ शब्द की जगह ब्रजभाषा में उच्चारण के लिए साहुकार को साउकार और बारह को बारा लिखा जाता है। ज्ञात हो कि ब्रज भाषा ने साहित्य में अपने विशेष स्थान को हमेशा के लिए अपनी मजबूती योग्यता बनाई है।











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