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होम / एन्गेज / साहित्य / किताब-घर

साहित्य की हर विधा में सर्वश्रेष्ठ हैं असग़र वजाहत

टीम Her Circle |  सितंबर 26, 2024

कहानीकार असग़र वजाहत, साठ के दशक के महत्वपूर्ण कहानीकार होने के साथ-साथ एक बेमिसाल नाटककार भी हैं। आइए जानते हैं कलम के जादूगर असग़र वजाहत के बारे में विस्तार से।

प्रारंभिक शिक्षा और उनका सफ़र  

कहानी, नाटकों, उपन्यासों, यात्रा वृत्तांतों और फिल्मों के साथ कला के हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करनेवाले असग़र वजाहत का साहित्य में रचनात्मक योगदान रहा है। 5 जुलाई 1946 को फ़तेहपुर, उत्तर प्रदेश में जन्में असग़र वजाहत ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से ही एमए के साथ पीएचडी की और 1971 में दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया के हिंदी विभाग में अध्यापन कार्य करने लगे। लगभग 40 वर्षों तक अध्यापन कार्य में रत रहे असग़र वजाहत 2011 में अपने काम से निवृत्त हुए। गौरतलब है कि यूरोप और अमेरिका के कई यूनिवर्सिटीज़ में अपना व्याख्यान दे चुके असग़र वजाहत, बुडापेस्ट, हंगरी के ओत्वोश लॉरैंड यूनिवर्सिटी में भी 5 वर्ष अध्यापन कार्य कर चुके हैं।

अपने नाटकों से मंचों पर छाए रहे 

लेखन के माध्यम से अपने लिए हर बार एक नया प्रतिमान रचनेवाले, असग़र वजाहत ने कहानी के बाद गद्य और गद्य के बाद जिस विधा में कदम रखा, वहाँ अपना सर्वश्रेष्ठ दिया। अनेक कहानी संग्रहों के साथ उपन्यास, नाटक और कई रचनाएँ रचनेवाले असग़र वजाहत की पहली रचना 1964 के आस-पास प्रकाशित हुई थी और पहला कहानी संग्रह आपातकाल के दौरान 1976 में प्रकाशित हुआ था, जो संयुक्त रूप से पंकज बिष्ट के साथ था। इसके अलावा इनका पहला ‘नाटक फिरंगी लौट आए’, 1857 की क्रान्ति पर आधारित था, जिसे आपातकाल के दौरान ‘फरमान’ नामक टेलीफिल्म के जरिए दर्शाया गया था। गौरतलब है कि टेलीविजन के अलावा इनके नाटकों का मंचन और प्रदर्शन, हबीब तनवीर, एम के रैना, दिनेश ठाकुर, राजेंद्र गुप्ता, वामन केंद्रे, शहीद किरमानी और टॉम ऑल्टर जैसे दिग्गज नाट्य निर्देशकों ने पूरे देश में किया है।

मील का पत्थर है ‘जिस लाहौर नहीं देख्या’

असग़र वजाहत ने अपनी कलम से एक से बढ़कर एक रचनाएं लिखीं, किंतु अपने नाटक ‘जिस लाहौर नहीं देख्या, वो जम्याई नई’ से उन्होंने देश ही नहीं विदेशों में भी लोकप्रियता पाई। मशहूर नाट्य निर्देशक हबीब तनवीर ने इस नाटक का मंचन पहली बार 27 सितंबर 1990 में किया था। इस नाटक का मंचन होते ही ये नाटक इतना अधिक चर्चा में आ गया कि इसके कई भाषाओं में अनुवाद होने लगे, और कराची, दुबई, वाशिंगटन डीसी, सिडनी के साथ लाहौर में इसका मंचन शुरू हो गया। हबीब तनवीर के बाद इस नाटक को ख़ालिद अहमद, उमेश अग्निहोत्री, दिनेश ठाकुर और कुमुद मिरानी जैसे दिग्गज निर्देशकों ने अपने-अपने तरीके से निर्देशित किया। 

बहुमुखी प्रतिभा के धनी 

अध्यापक, लेखक, नाटककार होने के साथ-साथ वे एक बहुत अच्छे चित्रकार भी थे, जिनके एकल चित्रों की प्रदर्शनियाँ बुडापेस्ट, हंगरी में कई बार लग चुकी हैं। यदि इनकी रचनाओं की बात करें, तो इनकी कहानियों के अनुवाद भारतीय भाषाओं के साथ विदेशी भाषाओं जैसे अंग्रेज़ी, इटालियन, रूसी, फ्रेंच, ईरानी, उज्बेक, हंगेरियन और पोलिश में भी हो चुके हैं। साहित्य जगत के अलावा कई वृत्तचित्रों, धारावाहिकों और फिल्मों के लिए स्क्रीनप्ले राइटिंग के साथ इन्होने अखबारों और पत्रिकाओं के लिए भी लिखा है। गौरतलब है कि वर्ष 2007 में अतिथि संपादक के तौर पर असग़र वजाहत ने ‘बीबीसी’ वेब पत्रिका के साथ हिंदी पत्रिका ‘हंस’ के ‘भारतीय  मुसलमान: वर्तमान और भविष्य’ विशेषांक और वर्तमान साहित्य के ‘प्रवासी साहित्य’ विशेषांक का संपादन भी किया था। 

प्रकाशित पुस्तकें और पुरस्कार 

असग़र वजाहत की चर्चित कहानी संग्रह में ‘अँधेरे से’, ‘दिल्ली पहुँचना है’, ‘स्वीमिंग पूल’, ‘सब कहाँ कुछ’, ‘मैं हिन्दू हूँ’, ‘मुश्किल काम’, ‘डेमोक्रेशिया’, ‘पिचासी कहानियाँ’ और ‘भीड़तंत्र’. इसके अलावा चर्चित नाटकों में ‘फिरंगी लौट आए’, ‘इन्ना की आवाज़’, ‘वीरगति’, ‘समिधा’, ‘जिस लाहौर नहीं देख्या ओ जम्याइ नई’, ‘अकी’, ‘गोडसे@गांधी.कॉम’, ‘पाकिटमार रंगमंडल’, ‘महाबली’ और ‘सबसे सस्ता गोश्त’ शामिल है। कहानियों और नाटकों के अलावा असग़र वजाहत ने उपन्यास, उपन्यासिका और यात्रा वृत्तांत भी लिखे हैं। इनमें ‘सात आसमान’, ‘पहर-दोपहर’, ‘कैसी आग लगाई’, ‘बरखा रचाई’, ‘धरा अंकुराई’, ‘मन-माटी’, ‘चलते तो अच्छा था’, ‘पाकिस्तान का मतलब क्या’, ‘दो कदम पीछे से’ और ‘रास्ते की तलाश में’ शामिल है। असग़र वजाहत की कृतियों के लिए मिले सम्मान में वर्ष 2009 में श्रेष्ठ नाटककार सम्मान, वर्ष 2012 में आचार्य निरंजननाथ समान, वर्ष 2014 में संगीत नाटक अकादमी सम्मान, वर्ष 2016 में हिंदी अकादमी का सर्वोच्च शलाका सम्मान और वर्ष 2021 में मिला व्यास सम्मान उल्लेखनीय है। 

चर्चित कृति ‘‘शाह आलम कैम्प की रूहें’’

शाह आलम कैम्प में दिन तो किसी न किसी तरह गुज़र जाते हैं लेकिन रातें क़यामत की होती है। ऐसी नफ़्स़ा नफ़्स़ी का अलम होता है कि अल्ला बचाये। इतनी आवाज़े होती हैं कि कानपड़ी आवाज़ नहीं सुनाई देती, चीख-पुकार, शोर-गुल, रोना, चिल्लाना, आहें सिसकियां. . .

रात के वक्त़ रूहें अपने बाल-बच्चों से मिलने आती हैं। रूहें अपने यतीम बच्चों के सिरों पर हाथ फेरती हैं, उनकी सूनी आंखों में अपनी सूनी आंखें डालकर कुछ कहती हैं। बच्चों को सीने से लगा लेती हैं। ज़िंदा जलाये जाने से पहले जो उनकी जिगरदोज़ चीख़ों निकली थी वे पृष्ठभूमि में गूंजती रहती हैं। सारा कैम्प जब सो जाता है तो बच्चे जागते हैं, उन्हें इंतिजार रहता है अपनी मां को देखने का. . .अब्बा के साथ खाना खाने का। कैसे हो सिराज, 'अम्मां की रूह ने सिराज के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।'

'तुम कैसी हों अम्मां?'

मां खुश नज़र आ रही थी बोली सिराज. . .अब. . . मैं रूह हूं . . .अब मुझे कोई जला नहीं सकता।' 'अम्मां. . .क्या मैं भी तुम्हारी तरह हो सकता हूं?'

शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद एक औरत की घबराई बौखलाई रूह पहुंची जो अपने बच्चे को तलाश कर रही थी। उसका बच्चा न उस दुनिया में था न वह कैम्प में था। बच्चे की मां का कलेजा फटा जाता था। दूसरी औरतों की रूहें भी इस औरत के साथ बच्चे को तलाश करने लगी। उन सबने मिलकर कैम्प छान मारा. . .मोहल्ले गयीं. . .घर धूं-धूं करके जल रहे थे। चूंकि वे रूहें थीं इसलिए जलते हुए मकानों के अंदर घुस गयीं. . .कोना-कोना छान मारा लेकिन बच्चा न मिला।

आख़िर सभी औरतों की रूहें दंगाइयों के पास गयी। वे कल के लिए पेट्रौल बम बना रहे थे। बंदूकें साफ कर रहे थे। हथियार चमका रहे थे।

बच्चे की मां ने उनसे अपने बच्चे के बारे में पूछा तो वे हंसने लगे और बोले, 'अरे पगली औरत, जब दस-दस बीस-बीस लोगों को एक साथ जलाया जाता है तो एक बच्चे का हिसाब कौन रखता है? पड़ा होगा किसी राख के ढेर में।'

मां ने कहा, 'नहीं, नहीं मैंने हर जगह देख लिया है. . .कहीं नहीं मिला।'

तब किसी दंगाई ने कहा, 'अरे ये उस बच्चे की मां तो नहीं है जिसे हम त्रिशूल पर टांग आये हैं।'

शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। रूहें अपने बच्चों के लिए स्वर्ग से खाना लाती है।, पानी लाती हैं, दवाएं लाती हैं और बच्चों को देती हैं। यही वजह है कि शाह कैम्प में न तो कोई बच्चा नंगा भूखा रहता है और न बीमार। यही वजह है कि शाह आलम कैम्प बहुत मशहूर हो गया है। दूर-दूर मुल्कों में उसका नाम है।

दिल्ली से एक बड़े नेता जब शाह आलम कैम्प के दौरे पर गये तो बहुत खुश हो गये और बोले, 'ये तो बहुत बढ़िया जगह है. . .यहां तो देश के सभी मुसलमान बच्चों को पहुंचा देना चाहिए।'

शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। रात भर बच्चों के साथ रहती हैं, उन्हें निहारती हैं. . .उनके भविष्य के बारे में सोचती हैं। उनसे बातचीत करती हैं।

सिराज अब तुम घर चले जाओ, 'मां की रूह ने सिराज से कहा।'

'घर?' सिराज सहम गया। उसके चेहरे पर मौत की परछाइयां नाचने लगीं।

'हां, यहां कब तक रहोगे? मैं रोज़ रात में तुम्हारे पास आया करूंगी।'

'नहीं मैं घर नहीं जाउंगा. . .कभी नहीं. . .कभी,' धुआं, आग, चीख़ों, शोर।

'अम्मां मैं तुम्हारे और अब्बू के साथ रहूंगा'

'तुम हमारे साथ कैसे रह सकते हो सिक्कू. . .'

'भाईजान और आपा भी तो रहते हैं न तुम्हारे साथ।'

'उन्हें भी तो हम लोगों के साथ जला दिया गया था न।'

'तब. . .तब तो मैं . . .घर चला जाऊंगा अम्मां।'

शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद एक बच्चे की रूह आती है. . .बच्चा रात में चमकता हुआ जुगनू जैसा लगता है. . .इधर-उधर उड़ता फिरता है. . .पूरे कैम्प में दौड़ा-दौड़ा फिरता है. . .उछलता-कूदता है. . .शरारतें करता है. . .तुतलाता नहीं. . .साफ-साफ बोलता है. . .मां के कपड़ों से लिपटा रहता है. . .बाप की उंगली पकड़े रहता है।

शाह आलम कैम्प के दूसरे बच्चे से अलग यह बच्चा बहुत खुश रहता है।

'तुम इतने खुश क्यों हो बच्चे?'

'तुम्हें नहीं मालूम. . .ये तो सब जानते हैं।'

'क्या?'

'यही कि मैं सुबूत हूं।'

'सुबूत? किसका सुबूत?'

'बहादुरी का सुबूत हूं।'

'किसकी बहादुरी का सुबूत हो?'

'उनकी जिन्होंने मेरी मां का पेट फाड़कर मुझे निकाला था और मेरे दो टुकड़े कर दिए थे।'

शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। एक लड़के के पास उसकी मां की रूह आयी। लड़का देखकर हैरान हो गया।

'मां तुम आज इतनी खुश क्यों हो?'

'सिराज मैं आज जन्नत में तुम्हारे दादा से मिली थी, उन्होंने मुझे अपने अब्बा से मिलवाया. . .उन्होंने अपने दादा. . .से . . .सकड़ दादा. . .तुम्हारे नगड़ दादा से मैं मिली।' मां की आवाज़ से खुशी फटी पड़ रही थी। 'सिराज तुम्हारे नगड़ दादा. . .हिंदू थे. . .हिंदू. . .समझे? सिराज ये बात सबको बता देना. . .समझे?'

शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। एक बहन की रूह आयी। रूह अपने भाई को तलाश कर रही थी। तलाश करते-करते रूह को उसका भाई सीढ़ियों पर बैठा दिखाई दे गया। बहन की रूह खुश हो गयी वह झपट कर भाई के पास पहुंची और बोली, 'भइया, भाई ने सुनकर भी अनसुना कर दिया। वह पत्थर की मूर्ति की तरह बैठा रहा।'

बहन ने फिर कहा, 'सुनो भइया!'

भाई ने फिर नहीं सुना, न बहन की तरफ देखा।

'तुम मेरी बात क्यों नहीं सुन रहे भइया!', बहन ने ज़ोर से कहा और भाई का चेहरा आग की तरह सुर्ख हो गया। उसकी आंखें उबलने लगीं। वह झपटकर उठा और बहन को बुरी तरह पीटने लगा। लोग जमा हो गये। किसी ने लड़की से पूछा कि उसने ऐसा क्या कह दिया था कि भाई उसे पीटने लगा. . .

बहन ने कहा, 'नहीं सलीमा नहीं, तुमने इतनी बड़ी गल़ती क्यों की।' बुज़ुर्ग फट-फटकर रोने लगा और भाई अपना सिर दीवार पर पटकने लगा।

(8)

शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। एक दिन दूसरी रूहों के साथ एक बूढ़े की रूह भी शाह आलम कैम्प में आ गयी। बूढ़ा नंगे बदन था। उंची धोती बांधे था, पैरों में चप्पल थी और हाथ में एक बांस का डण्डा था, धोती में उसने कहीं घड़ी खोंसी हुई थी।

रूहों ने बूढ़े से पूछा 'क्या तुम्हारा भी कोई रिश्तेदार कैम्प में है?'

बूढ़े ने कहा, 'नहीं और हां।'

रूहों के बूढ़े को पागल रूह समझकर छोड़ दिया और वह कैम्प का चक्कर लगाने लगा।

किसी ने बूढ़े से पूछा, 'बाबा तुम किसे तलाश कर रहे हो?'

बूढ़े ने कहा, 'ऐसे लोगों को जो मेरी हत्या कर सके।'

'क्यों?'

'मुझे आज से पचास साल पहले गोली मार कर मार डाला गया था। अब मैं चाहता हूं कि दंगाई मुझे ज़िंदा जला कर मार डालें।'

'तुम ये क्यों करना चाहते हो बाबा?'

'सिर्फ ये बताने के लिए कि न उनके गोली मार कर मारने से मैं मरा था और न उनके ज़िंदा जला देने से मरूंगा।'

शाह आलम कैम्प में एक रूह से किसी नेता ने पूछा

'तुम्हारे मां-बाप हैं?'

'मार दिया सबको।'

'भाई बहन?'

'नहीं हैं'

'कोई है'

'नहीं'

'यहां आराम से हो?'

'हो हैं।'

'खाना-वाना मिलता है?'

'हां मिलता है।'

'कपड़े-वपड़े हैं?'

'हां हैं।'

'कुछ चाहिए तो नहीं,'

'कुछ नहीं।'

'कुछ नहीं।'

'कुछ नहीं।'

नेता जी खुश हो गये। सोचा लड़का समझदार है। मुसलमानों जैसा नहीं है।

शाह आलम कैम्प में आधी रात के बाद रूहें आती हैं। एक दिन रूहों के साथ शैतान की रूह भी चली आई। इधर-उधर देखकर शैतान बड़ा शरमाया और झेंपा। लोगों से आंखें नहीं मिला पर रहा था। कन्नी काटता था। रास्ता बदल लेता था। गर्दन झुकाए तेज़ी से उधर मुड़ जाता था जिधर लोग नहीं होते थे। आखिरकार लोगों ने उसे पकड़ ही लिया। वह वास्तव में लज्जित होकर बोला, 'अब ये जो कुछ हुआ है. . .इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है. . .अल्लाह क़सम मेरा हाथ नहीं है।'

लोगों ने कहा, 'हां. . .हां हम जानते हैं। आप ऐसा कर ही नहीं सकते। आपका भी आख़िर एक स्टैण्डर्ड है।'

शैतान ठण्डी सांस लेकर बोला, 'चलो दिल से एक बोझ उतर गया. . .आप लोग सच्चाई जानते हैं।'

लोगों ने कहा, 'कुछ दिन पहले अल्लाह मियां भी आये थे और यही कह रहे थे।'

 

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