आधुनिक मराठी लेखिका काशीबाई कानिटकर ने लेखनी की दुनिया में अपना नाम उन दिनों स्थापित किया, जब लड़कियां खुद को घरेलू जीवन में बंद रखना पसंद करती थीं। उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत निबंध लिखने से की थी। काशीबाई ने अपनी लेखनी के जरिए सवाल खड़ना शुरू किया। आइए जानते हैं विस्तार से।
काशीबाई का प्रारंभिक जीवन

काशीबाई कानिटकर का जन्म 20 जनवरी 1861 में हुआ। महाराष्ट्र के सातारा जिले के एक छोटे से गांव अष्टे में उनका जन्म हुआ। ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म हुआ। उस समय महिलाओं के लिए शिक्षा और स्वंय को व्यक्त करने के लिए रास्ते काफी सीमित थे। यह महिलाओं के लिए ऐसा दौर था, जब लड़कियों को केवल सामान्य घरेलू जीवन तक सीमित रखने की खुद सामाजिक मान्यता थी। हालांकि किसी वजह से उन्हें स्कूल नहीं भेजा गया। इसके बाद भी उन्होंने अपने ज्ञान को बढ़ाया ही है। अपने परिवार नें रहकर भाई-बहनों से उन्होंने गणित सीखने और पिता की बाहरी और घरेलू काम में सहायता कर उन्होंने खुद को अक्षर ज्ञान दिया। सीखने की कला की ललक को जारी रखा और खुद को शिक्षित किया।
शादी के बाद बदला काशीबाई का जीवन

उस दौरान शादी जल्द हो जाती थी। ठीक ऐसा ही काशीबाई के साथ हुआ। केवल 9 साल की उम्र में गोविंद वासुदेव कानिटकार से उनकी शादी हुई। उल्लेखनीय है कि काशीबाई के पति गोविंद वासुदेव से हुआ। गोविंद की दिलचस्पी हमेशा से साहित्य में रही। काशीबाई एक प्रगतिशील सोच वाले व्यक्ति माने जाते थे। उनका विचार सुधारवादी रहा है। काशीबाई को भी उन्होंने इसकी तरफ आगे बढ़ाया। शादी के बाद काशीबाई के पति ने उन्हें सीखने और समझने के लिए काफी प्रोत्साहित किया। उन्होंने काशीबाई को पढ़ने सीखने और समझने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने काशीबाई को मराठी, संस्कृत, अंग्रेजी और विज्ञान की पुस्तकें पढ़ने को दीं, जिससे उनका ज्ञान बढ़ा। उनके सीखने का जज्बा और पति के साथ ने उनकी शिक्षा यात्रा की नींव रखी।
काशीबाई की लेखन यात्रा की शुरुआत

काशीबाई की लेखन यात्रा का आगाज प्रार्थना सभा से हुआ। उन्होंने महिलाओं के लिए निबंध लेखन के दौर को भी शुरू किया। इस लेखन की शुरुआत उन्होंने पृथ्वी की आकर्षण शक्ति और ग्रहण पर निबंध लिखकर किया। इसके बाद उन्होेंने पहले की महिलाएं और आज की महिलाएं, पर अपना अगला निबंध लिखा। उनका लिखा हुआ यह दोनों ही निबंध सुबोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ। अपने इन लेखनों में उन्होंने निजी आवाज और आत्मविश्वास को लेकर अपनी भावनाएं जाहिर की। उनके जीवन का यह ऐसा दौर था, जब बाकी महिलाएं सिर्फ सुनने की भूमिका में थीं, उस वक्त उन्होंने बोलने और सवाल पूछने के महत्व को समझा।
काशीबाई का लिखा हुआ लेखन और साहित्य में उनका योगदान

रंगराव- साल 1903 में प्रकाशित हुई। मराठी साहित्य में पहली प्रमुख महिला कादंबरीकार के तौर पर उन्हें मान्यता मिली। इसके बाद साल 1928 में प्रकाशित पालखीचा गोंडा महिला के आत्मनिर्भरता की यात्रा और सामाजिक बदलावों को संवेदनशील तरीके से दर्शाया गया है। उनके प्रमुख कथासंग्रह के बारे में बात की जाए, तो शेवट तर गोड झाला, चांदण्यातील गप्पा, शिळोप्याच्या गोष्टी ने उनकी लेखनी को मराठी साहित्य में खास जगह दी। इसके अलावा उन्होंने भारत की पहली पश्चिमी चिकित्सा की डॉक्टर पर आधारित चरित्र लेखन भी लिखा। यह उनका प्रमुख चरित्र लेखन माना जाता है। अनुवाद और अन्य लेखन की बात की जाए, तो इसमें भी उनका खास योगदान रहा है। कई सारी लोकप्रिय पत्रिकाओं में मनोरंजन, नवयुग, विविधज्ञानविस्तार आदि में प्रकाशित निबंध और छोटे लेख भी लिखे। इसे भी काफी पसंद किया गया। काशीबाई की लेखन की सबसे बड़ी खूबी यह रही है कि उन्होंने हमेशा से सरल भाषा को प्राथमिकता दी। उनके लेखन में हमेशा से स्पष्ट और संवाद की भाषा को पेश किया है। उनके लेखन में मानवीय स्वभाव, महिला की आंतरिक दुनिया, दुख और सुख की बातों के साथ, स्त्री आत्मनिर्भरता, समाज में महिला की बराबरी की बात को पेश किया है। उनकी खूबी यह रही है कि प्रभावी तरीके से उन्होंने अपने लेखन में महिला को खास जगह दी है।
महिलाओं के लिए किया काम
अपने लेखन के साथ उन्होंने लगातार महिलाओं के लिए कई सारे कार्य भी किए हैं। साल 1909 के दौरान काशीबाई वसंत व्याख्यानमाला की पहली महिला अध्यक्ष भी बनीं। साल 1906 के दौरान पुणे ग्रंथकार सम्मेलन की वह एकलौती महिला लेखक का सम्मान मिला। इसके साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और महिला परिषद में भी उनका सक्रिय योगदान रहा। वह उन आठ महिला सदस्यों में एक थीं, जो कि कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में मौजूद थीं। लेखन के बाद उन्होंने अपनी पढ़ाई का काम भी जारी रखा। 1919 में उनका निधन हुआ और इसके बाद काशीबाई बनारस चली गईं और वहां बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में मराठी पढ़ाने लगीं। एक लंबे वक्त पढ़ाने और लेखन के बाद काशीबाई का निधन 30 जनवरी 1948 के दौरान हुआ। यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि उनकी लेखनी ने मराठी साहित्य में महिलाओं के लिए विद्रोह, आत्मनिर्भरता और आनंद की राह को आसान किया। उन्होंने एक अशिक्षित लड़की से लेकर मराठी साहित्य की प्रथम प्रमुख महिला लेखिका बनीं।
मराठी साहित्य की लोकप्रिय महिला लेखिकाओं के नाम
काशीबाई के साथ मराठी की अन्य लोकप्रिय महिला लेखिकाओं के बारे में बात की जाए, तो शांता शेलके का नाम मराठी की लोकप्रिय गीतकार के तौर पर स्थापित रहा है। इसके बाद नारीवादी लेखन और सामाजिक उपन्यास के जरिए मालतीबाई बेडेकर ने अपना नाम साहित्य में दर्ज कराया। अपनी लेखनी के जरिए आधुनिक महिला के दृष्टिकोण को गौरी देशपांडे ने पेश किया। सुमति देशमुख ने लघुकथा लेखन में योगदान दिया। प्रज्ञा पवार ने दलित और महिला लेखन विषयों के जरिए साहित्य की दुनिया में अपना नाम स्थापित किया। उपन्यास, कहानियां और बाल साहित्य में नलिनी पेंडसे का नाम लोकप्रिय रहा। नीला साठे ने ग्रामीण जीवन पर आधारित लेखन को प्राथमिकता दी।