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जौन एलिया की यादगार रचनाएं

शिखा शर्मा |  दिसंबर 23, 2022

सैयद हुसैन सिब्त-ए-असगर नकवी, जिन्हें आमतौर पर जौन एलिया के नाम से जाना जाता है। वे एक भारत-पाकिस्तानी कवि थे। सबसे प्रमुख आधुनिक उर्दू कवियों में से एक, जौन ने कम्युनिस्ट होने के नाते, भारत के विभाजन का विरोध किया। हालांकि, वह अंततः 1957 में पाकिस्तान चले गए और कराची में रहने का फैसला किया। कहते हैं कि जौन भाषा के मामले में बहुत खास थे। उन्हें नए-नए विषयों पर लिखना बहुत पसंद था। यह बात भी सच है कि वह जीवन भर एक आदर्श की तलाश में रहे। उन्हें अंत तक यही लगता रहा कि उन्होंने अपनी प्रतिभा को बर्बाद किया है। उन्होंने 8 साल की उम्र में कविता लिखना शुरू किया, लेकिन 60 साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला संग्रह ‘शायद’ प्रकाशित किया। जौन को ओरिजिनल शायर कहा जाता था, क्योंकि वह जो कुछ लिखते थे, सुनाते थे वह बिल्कुल सीधे-सपाट होता था फिर भी कमाल होता था। इश्क़ पर तो उन्होंने ऐसी-ऐसी रचनाएं की हैं कि आज भी उन्हें पढ़कर दिल वाह-वाह कह उठता है। देखिये उनकी चुनिंदा रचनाएं -

बे-क़रारी सी बे-क़रारी है

बे-क़रारी सी बे-क़रारी है

वस्ल है और फ़िराक़ तारी है

जो गुज़ारी न जा सकी हम से

हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है

निघरे क्या हुए कि लोगों पर

अपना साया भी अब तो भारी है

बिन तुम्हारे कभी नहीं आई

क्या मिरी नींद भी तुम्हारी है

आप में कैसे आऊँ मैं तुझ बिन

साँस जो चल रही है आरी है

उस से कहियो कि दिल की गलियों में

रात दिन तेरी इंतिज़ारी है

हिज्र हो या विसाल हो कुछ हो

हम हैं और उस की यादगारी है

इक महक सम्त-ए-दिल से आई थी

मैं ये समझा तिरी सवारी है

हादसों का हिसाब है अपना

वर्ना हर आन सब की बारी है

ख़ुश रहे तू कि ज़िंदगी अपनी

उम्र भर की उमीद-वारी है

 

कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे

कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे

जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे

शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं

मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे

वो जो न आने वाला है ना उस से मुझ को मतलब था

आने वालों से क्या मतलब आते हैं आते होंगे

उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा

यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे

यारो कुछ तो ज़िक्र करो तुम उस की क़यामत बाँहों का

वो जो सिमटते होंगे उन में वो तो मर जाते होंगे

मेरा साँस उखड़ते ही सब बैन करेंगे रोएँगे

या'नी मेरे बा'द भी या'नी साँस लिए जाते होंगे

 

नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम

नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम

बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम

ख़मोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी

कोई हंगामा बरपा क्यूँ करें हम

ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं

वफ़ा-दारी का दावा क्यूँ करें हम

वफ़ा इख़्लास क़ुर्बानी मोहब्बत

अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यूँ करें हम

सुना दें इस्मत-ए-मरियम का क़िस्सा

पर अब इस बाब को वा क्यों करें हम

ज़ुलेख़ा-ए-अज़ीज़ाँ बात ये है

भला घाटे का सौदा क्यों करें हम

हमारी ही तमन्ना क्यूँ करो तुम

तुम्हारी ही तमन्ना क्यूँ करें हम

उठा कर क्यों न फेंकें सारी चीज़ें

फ़क़त कमरों में टहला क्यों करें हम

जो इक नस्ल फ़रोमाया को पहुँचे

वो सरमाया इकट्ठा क्यों करें हम

नहीं दुनिया को जब पर्वा हमारी

तो फिर दुनिया की पर्वा क्यूँ करें हम

चबा लें क्यों न ख़ुद ही अपना ढाँचा

तुम्हें रातिब मुहय्या क्यों करें हम

पड़ी हैं दो इंसानों की लाशें

ज़मीं का बोझ हल्का क्यों करें हम

 

उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या

उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या

दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या

मेरी हर बात बे-असर ही रही

नुक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या

मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं

यही होता है ख़ानदान में क्या

अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं

हम ग़रीबों की आन-बान में क्या

ख़ुद को जाना जुदा ज़माने से

आ गया था मिरे गुमान में क्या

शाम ही से दुकान-ए-दीद है बंद

नहीं नुक़सान तक दुकान में क्या

ऐ मिरे सुब्ह-ओ-शाम-ए-दिल की शफ़क़

तू नहाती है अब भी बान में क्या

बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में

आबले पड़ गए ज़बान में क्या

ख़ामुशी कह रही है कान में क्या

आ रहा है मिरे गुमान में क्या

दिल कि आते हैं जिस को ध्यान बहुत

ख़ुद भी आता है अपने ध्यान में क्या

वो मिले तो ये पूछना है मुझे

अब भी हूँ मैं तिरी अमान में क्या

यूँ जो तकता है आसमान को तू

कोई रहता है आसमान में क्या

ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता

एक ही शख़्स था जहान में क्या

 

ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं

ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं

शुक्रिया मश्वरत का चलते हैं

हो रहा हूँ मैं किस तरह बरबाद

देखने वाले हाथ मलते हैं

है वो जान अब हर एक महफ़िल की

हम भी अब घर से कम निकलते हैं

क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में

जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं

है उसे दूर का सफ़र दर-पेश

हम सँभाले नहीं सँभलते हैं

तुम बनो रंग तुम बनो खुशबू

हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं

मैं उसी तरह तो बहलता हूँ

और सब जिस तरह बहलते हैं

है अजब फ़ैसले का सहरा भी
चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं

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