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होम / एन्गेज / साहित्य / किताब-घर

साहित्य रविवार में जानें: हिंदी साहित्य में स्त्री पात्रों की मजबूत स्थिति

टीम Her Circle |  दिसंबर 17, 2023

हिंदी साहित्य में महिला पात्रों ने हमेशा से ही अपना स्थान ऊंचा बना कर रखा है। आप यह समझ सकती हैं कि हर दूसरा उपन्यास स्त्री विमर्श से जुड़ा रहा है यहां तक कि कविता और कहानियों में भी स्त्री पात्रों ने अपनी सादगी, खूबसूरती, न्याय, अन्याय और जीवन के हर सुख-दुख की व्याख्या बखूबी करती आयी हैं। महिला साहित्यकारों से अधिक पुरुष साहित्यकारों ने स्त्री पात्र पर अनगिनत साहित्य लिखे हैं। उल्लेखनीय है कि हिंदी साहित्य में नारी जीवन की अनेक समस्याओं से रूबरू होने का अवसर मिला है। कई स्त्री पात्रों के साथ उनकी यात्रा को तय करने का रास्ता उनसे मिली सीख को अपने जीवन में उतारने का जरिया भी हिंदी साहित्य के जरिए मिला है। आइए जानते हैं विस्तार से।

स्त्री पात्र और नारी सशक्तिकरण

मुंशी प्रेमचंद के अलावा कई ऐसे पुरुष साहित्यकार रहे हैं, जिन्होंने स्त्री पात्रों के जरिए समाज का आईना दिखाया है, लेकिन वहीं इस स्त्री से जुड़े गंभीर विषयों पर 1960 के दशक के करीब हिंदी साहित्य गंभीर होता हुआ दिखाई दिया, जब महिला साहित्यकार कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, शिवानी और उषा प्रियंवदा के साथ कई महिला लेखकों ने स्त्री के जीवन की हर दशा और हर स्थिति को अपने साहित्य के जरिए खुल कर बयान किया। उस पर अनगिनत चर्चाएं की। इसके बाद से हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श एक ज्वंलत मुद्दा बनता चला गया। इससे पहले हिंदी साहित्य का पन्ना पलट कर इतिहास में स्त्री पात्रों को देखा जाए, तो 1882 के दौरान ताराबाई शिंदे ने मराठी में एक किताब ‘स्त्री पुरुष तुलना’ लिखी और पुरुष समाज के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। इसके साथ ही उन्होंने स्त्री जीवन के यर्थाथ को भी अपने साहित्य में शामिल किया। इसका हिंदी अनुवाद भी हुआ और साथ ही हिंदी साहित्य के लेखकों ने भी स्त्री विमर्श की तरफ अपनी सोच को लिखावट के तौर पर तब्दील करने की शुरुआत की।

महादेवी वर्मा ने तोड़ी हिंदी साहित्य की लंबी चुप्पी 

साल 1882 के दौरान नारी चेतना पर एक किताब ‘सीमंतनी’ उपदेश आयी। इस किताब में स्त्री की आजादी पर अपना पक्ष रखा गया था। साल 1984 में धर्मवीर भारती ने इस किताब का संपादन किया और इस किताब की लेखिका को अज्ञात हिंदू औरत का नाम दिया गया। ज्ञात हो कि इस किताब का संपादन बड़े की आक्रमक शैली में किया गया है, जहां पर स्त्री जीवन के यर्थाथ के साथ कई सारे ज्वलंत समस्याओं पर आवाज उठाई गई है, हालांकि साल 1882 से लेकर 1942 तक हिंदी साहित्य में स्त्री पात्र पर अधिक साहित्य नहीं लिखे गए। साल 1942 में महादेवी वर्मा ने इसकी जिम्मेदारी उठायी और उनकी महिलाओं पर कई सारे पुस्तकें लगातार आयीं। इस पुस्तक का नाम महादेवी वर्मा ने शृंखला की कड़ियां देखीं, जहां पर उन्होंने स्त्री विमर्श पर चर्चा की। इस पुस्तक में महिलाओं की समानता, न्याय और अस्तित्व की तलाश के साथ बंधनों से मुक्ति करने की कवायद महादेवी वर्मा ने की है। 

नारी लेखिकाओं का योगदान और हिंदी साहित्य 

हिंदी साहित्य नें स्त्री पात्र हमेशा से ही विशेष स्थान पर रहे हैं और महिला साहित्यकारों ने उन्हें खास स्थान भी दिया है। यह माना गया है कि ममता कालिया, कृष्णा अग्निहोत्री, मणिक मोहनी, इंदू जैन, नमिता सिंह और मुक्ता रमणिका गुप्ता के साथ कई सारी लेखिकाओं ने स्त्री के जीवन की सभी अवस्थाओं के साथ समस्याओं को बारीकी के साथ गहराई से प्रस्तुत किया है। इसके बाद अगर हिंदी साहित्य में नारी लेखिकाओं ने अपना वर्चस्व दिखाया है, तो उसमें नामों की लंबी फेहरिस्त शामिल है। अमृता प्रीतम की ‘रसीदी टिकट’, कृष्णा सोबती की ‘मित्रों मरजानी’, मन्नू भण्डारी की ‘आपका बंटी’, चित्रा मुद्ल की ‘आबां एवं एक जमीन अपनी’, ममता कालिया की ‘बेघर’, मृदुला गर्ग की ‘कठ गुलाब’, मैत्रेयी पुष्पा की ‘चाक एवं अल्मा कबूतरी’, प्रभा खेतान की ‘छिन्नमस्ता’, पद्मा सचदेव की ‘अब न बनेगी देहरी’, राजीसेठ की ‘तत्सम’, शशि प्रभा शास्त्री की ‘सीढ़ियां’, उषा प्रियंवदा की ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ जैसी अनगिनत कहानी और उपन्यास में नारी के जीवन के संघर्ष, हर्ष, त्याग, समर्पण और हिम्मत के साथ कई पड़ाव को देखा जा सकता है।

लोकप्रिय कहानियों में स्त्री पात्र

धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ में सुधा के त्याग और प्रेम को केंद्र में रखा गया है। यशपाल ने दिव्या और अपने अन्य उपन्यासों में स्त्री के प्रति यह सोच उजागर करने की कोशिश की है कि वो भी एक इंसान है। कुछ ऐसे उपन्यास के किरदार हैं, जो कि याद रह जाते हैं, इसमें नाम याद किया जाए, तो राजेंद्र यादव की ‘जहां लक्ष्मी कैंद है’ की लक्ष्मी, सुरेंद्र वर्मा की ‘मुझे चांद चाहिए’ की वर्षा, निर्मल वर्मा के ‘परिंदे’ की लतिका और विष्णु प्रभाकर के ‘अर्धनारिश्वर’ की सुमिता के साथ भीष्म साहनी के नाटक लेखन ‘माधवी’ की मुख्य पात्र माधवी ने हिंदी साहित्य में स्त्री की छवि को प्रकाशमय कर दिया है। इसके बाद भी लगातार भिन्न किरदारों के साथ साहित्य में स्त्री पात्रों का सिलसिला जारी रहा है। मन्नू भंडारी की ‘आपका बंटी’ में तलाकशुदा शकुन हो या फिर ‘पचपन खम्भे लाल दीवारें’ की सुषमा का जिक्र, जो कि एक महिला की स्वतंत्रता के सवाल को उजागर करती है। इसके साथ नासिरा जी का उपन्यास ‘ठीकरे की मंगनी’ औरतों नहीं टूटती हैं कि कहानी बयान करती है। ‘कुइंया जान’ उपन्यास में पानी की समस्या और औरतों की स्थिति पर केंद्रीत है। राजी सेठ का ‘तत्सम’, गीतांजलि श्री की ‘माई’ के साथ प्रभा खेतान की ‘पीली आंधी’ के साथ मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास ‘चाक’, मधु कांकरिया का ‘सलाम आखिरी’ और ‘सेज’ पर संस्कृत में भी महिलाओं की समस्याओं को उजागर करते हुए उनकी स्थिति को बखूबी बयान किया है। 

जानिए कौन से है महिलाओं की नजरों से लिखे गए साहित्य

हिंदी साहित्य में महिलाओं पर लिखे गए साहित्य को उंगलियों पर गिना मुमकिन नहीं है, फिर भी हम यह बताने की कोशिश कर रहे हैं, हिंदी साहित्य में महिलाओं की नजर से लिए गए चुनिंदा और लोकप्रिय साहित्य कौन से हैं। वाजिदा तबस्सुम की ‘तहखाना’, महाश्वेता देवी की ‘हजारा चौरासी की मां’, मुदुला गर्ग की ‘कठगुलाब’, प्रभा खेतान की ‘छिन्न मस्ता’, ममता कालिया की ‘बेघर’, मैत्रेयी पुष्पा की ‘चाक’, प्रतिभा राय की ‘द्रौपदी’, अलका सरावगी की ‘कलिकथा वाया बाइपास’, गीतांजलि श्री की ‘रेत समाधि’, नासिरा शर्मा की ‘पारिजात’, तस्लीमा नसरीन की ‘लज्जा’ के साथ कई ऐसे यादगार साहित्य और महिला किरदार हैं, जिन्होंने महिलाओं को साहित्य में ऊपरी पायदान पर लाकर खड़ा कर दिया है। 

नए दौर के लेखकों से गुलजार रहा है हिंदी साहित्य और महिलाएं 

नए दौर के लेखकों की बात की जाए, तो हिंदी साहित्य में महिलाओं ने कई सारी रचनाएं लिखी हैं। जहां पर स्त्री पात्र को नए तरीके से पेश किया है। शर्मिला बोहरा जालान का पहला उपन्यास ‘उन्नीसवीं बारिश’ में स्त्री मन की व्याख्या है। प्रत्यक्षा का ‘पारा-पारा भी’ स्त्री मन को चित्रित करता है, जो प्रेम की तलाश में स्वतंत्रता की खोज करती है। नीला प्रसाद का अंत से शुरू महिला की दृष्टि से लिखा उल्लेखनीय उपन्यास है। रश्मि भारद्वाज का ‘वह सन बयालीस’ भी काफी चर्चा में रहा है। 

उपन्यास से अलावा कहानियों में स्त्री पात्र

कहानियों की दुनिया में भी स्त्री पात्रों ने अपनी छाप बखूबी छोड़ी है। रश्मि शर्मा का लिखा हुआ कहानी संग्रह ‘बंद कोठरी का दरवाजा’, लेखिका प्रज्ञा की लिखा हुआ कहानी संग्रह ‘मालूशाही मेरा छलिया बुरांश’, रीतादास राम का कहानी संग्रह ‘समय जो रुकता नहीं’, डॉ सुनीता का कहानी संग्रह ‘सियोल से सरयू’ के साथ सविता पाठक ने अपने कहानी संग्रह ‘हिस्टीरिया’ में भी महिलाओं की स्थितियों को पेश किया है।

 बीते कई दशकों से लोकप्रिय साहित्य में स्त्री पात्र

पिछले दो से तीन दशकों में हिंदी साहित्य में महिला लेखिकाओं ने महिलाओं की नजरों से स्त्री पात्र लिखे हैं। स्त्री दृष्टि से लिखे गए साहित्य में नजर डाली जाए, तो महाश्वेता देवी का लिखा हुआ साहित्य ‘हजार चौरासी की मां’, वाजिदा तबस्सुम की ‘तहखाना’, मृदुला गर्ग का लोकप्रिय साहित्य ‘कठगुलाब’, प्रभा खेतान की ‘छित्रमस्ता’, ममता कालिया की ‘बेघर’, मैत्रेयी पुष्पा की ‘चाक’, प्रतिभा राय की ‘द्रौपदी’, अलका सरावगी की ‘कलिकथा वाया बाइपास’ के साथ हजारों और लाखों की संख्या में साहित्य मौजूद है, जहां पर स्त्री पात्र मजबूती के साथ खड़ी होती हुई दिखाई देती हैं।

 

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