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होम / एन्गेज / साहित्य / किताब-घर

भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं

शिखा शर्मा |  दिसंबर 16, 2022

भवानी प्रसाद मिश्र हिंदी साहित्य के प्रमुख कवि माने जाते हैं। उनकी पुस्तक ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए उन्हें 1972 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। भवानी प्रसाद मिश्रा विचारों और कर्मों में गांधीवादी थे।  आम लोगों से उनका जुड़ाव था कि प्यार से लोग उन्हें भवानी भाई कहकर संबोधित किया करते थे। भवानी प्रसाद मिश्र उन गिने-चुने कवियों में थे, जो कविता को ही अपना धर्म मानते थे और आम जनों की बात उनकी भाषा में ही रखते थे। उनकी यही आम सी भाषा, बड़ी-बड़ी बातें कह देती थीं, आप भी पढ़ें।

वाणी की दीनता

वाणी की दीनता

अपनी मैं चीन्हता !

कहने में अर्थ नहीं

कहना पर व्यर्थ नहीं

मिलती है कहने में

एक तल्लीनता !

आस पास भूलता हूँ

जग भर में झूलता हूँ

सिन्धु के किनारे जैसे

कंकर शिशु बीनता !

कंकर निराले नीले

लाल सतरंगी पीले

शिशु की सजावट अपनी

शिशु की प्रवीनता !

भीतर की आहट भर

सजती है सजावट पर

नित्य नया कंकर क्रम

क्रम की नवीनता !

कंकर को चुनने में

वाणी को बुनने में

कोई महत्व नहीं

कोई नहीं हीनता !

केवल स्वभाव है

चुनने का चाव है

जीने की क्षमता है

मरने की क्षीणता !

 

मैं असभ्य हूं क्योंकि खुले नंगे पांवों चलता हूं

मैं असभ्य हूं क्योंकि खुले नंगे पांवों चलता हूं

मैं असभ्य हूं क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूं

मैं असभ्य हूं क्योंकि चीरकर धरती धान उगाता हूं

मैं असभ्य हूं क्योंकि ढोल पर बहुत जोर से गाता हूं

आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर

आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर

आप सभ्य हैं क्योंकि धान से भरी आपकी कोठी

आप सभ्य हैं क्योंकि जोर से पढ़ पाते हैं पोथी

आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े स्वयं बने हैं

आप सभ्य हैं क्योंकि जबड़े खून सने हैं

आप बड़े चिंतित हैं मेरे पिछड़ेपन के मारे

आप सोचते हैं कि सीखता यह भी ढंग हमारे

मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने

धोती-कुरता बहुत जोर से लिपटाए हूं याने !

 

जीभ की जरूरत नहीं है

जीभ की जरूरत नहीं है

क्योंकि

कहकर या बोलकर

मन की बातें जाहिर करने की

सूरत नहीं है

हम

बोलेंगे नहीं अब

घूमेंगे-भर खुले में

लोग आँखें देखेंगे हमारी

आँखें हमारी बोलेंगी

बेचैनी घोलेंगी

हमारी आँखें

वातावरण में

जैसे प्रकृति घोलती है

प्रतिक्षण जीवन

करोड़ों बरस के आग्रही मरण में

और सुगबुगाना पड़ता है उसे

संग से शरारे

छूटने लगते हैं

पहाड़ की छाती से

फूटने लगते हैं झरने !

 

आराम से भाई जिंदगी

आराम से भाई जिंदगी

जरा आराम से

तेजी तुम्हारे प्यार की बर्दाशत नहीं होती अब

इतना कसकर किया आलिंगन

जरा ज्यादा है जर्जर इस शरीर को

आराम से भाई जिंदगी

जरा आराम से

तुम्हारे साथ-साथ दौड़ता नहीं फिर सकता अब मैं

ऊँची-नीची घाटियों पहाड़ियों तो क्या

महल-अटारियों पर भी

न रात-भर नौका विहार न खुलकर बात-भर हँसना

बतिया सकता हूँ हौले-हल्के बिल्कुल ही पास बैठकर

और तुम चाहो तो बहला सकती हो मुझे

जब तक अँधेरा है तब तक सब्ज बाग दिखलाकर

जो हो जाएँगे राख छूकर सवेरे की किरन

सुबह हुए जाना है मुझे

आराम से भाई जिंदगी

जरा आराम से !

 

तोड़ रहे हैं सुबह की ठंडी हवा को

तोड़ रहे हैं सुबह की ठंडी हवा को

फूट रही सूरज की किरनें

और नन्हें-नन्हें पंछियों के गीत

मजदूरों की काम पर निकली टोलियों को

किरनों से भी ज्यादा सहारा गीतों का है शायद

नहीं तो, कैसे निकलते वे
इतनी ठंडी हवा में!

 

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