आत्मकथा आम तौर पर वही लोग लिखते हैं, जिन्हें जीवन में ऐसी उपलब्धियां मिली होती हैं, जो दूसरों के लिए प्रेरणादायी हों। ऐसे में इनका व्यक्तिगत कम और सामाजिक महत्व अधिक होता है। फिलहाल आइए जानते हैं हिंदी साहित्य में आत्मकथाओं की सामाजिक भूमिका।
सामाजिक चेतना का केंद्रबिंदु
एक आत्मकथा की समीक्षा करते वक्त जाने-माने साहित्यकार विष्णु प्रभाकर ने लिखा था, ‘’हर जगह तराजू अपने पक्ष में झुकी हुई है, जो आम तौर पर आत्मकथा में होती है। क्यों उससे बचने के प्रयत्न का एक रूप यह नहीं है कि आत्मकथा में मात्र ‘मैं’ ही न रहें, बल्कि ‘सब’ रहें यानि एक व्यक्ति की कहानी होकर भी वो पूरे समाज, देश और युग की कहानी बने। हालांकि उसमें एक खतरा भी है कि अगर ‘मैं’ के निर्माण में युग की गाथा का कोई योगदान नहीं है, तो आत्मकथा मात्र इतिहास बनकर रह जाएगी। इसमें दो राय नहीं कि विष्णु प्रभाकर द्वारा आत्मकथा के संदर्भ में लिखी इस बात से आत्मकथा की सत्यता और स्पष्टता प्रकट होती है। चूंकि आत्मकथाकार स्वयं समाज में रहते हुए एक सामाजिक जीवन व्यतीत करता है, तो उसे सामाजिक चेतना का केंद्रबिंदु होना ही चाहिए। हालांकि आत्मकथा में असंदिग्धता के बावजूद साहित्य का सामाजिक मूल्यों के साथ घनिष्ठ संबंध होता है, ऐसे में साहित्य की प्रत्येक विधा की तरह आत्मकथा में भी उसका लक्ष्य सामाजिकता होनी ही चाहिए।
आत्मदर्शन की बजाय जगप्रदर्शन हो उद्देश्य
कृष्ण चंदर लिखते हैं, “हर तस्वीर, हर लेख या हर ज़िंदगी इस काबिल नहीं होती कि अमर कहलाए, लेकिन हाँ, हर ज़िंदगी अपनी जगह पर इतनी ज़रूरी और ख़ास ज़रूर होती है कि किसी इतिहास, किसी तस्वीर या किसी लेख में विशेष न होने के बावजूद वो किसी दिल, किसी ख्याल, किसी भावना, किसी कल्पना या किसी एक क्षण में अपनी छाप छोड़ जाए।” इसी कड़ी में रामदरश मिश्र अपनी आत्मकथा की विशिष्टता का उल्लेख करते हुए लिखते हैं, “मैं एक सामान्य व्यक्ति हूँ. मेरे जीवन में ऐसा कुछ नहीं है, हो पाठकों को महान, असामान्य, और बहुत मूल्यवान लगे। इसलिए मात्र अपनी कहानी कहना दंभ ही होता, लेकिन मैंने जिस परिवेश की कहानी कही है और परिवेश के साथ व्यक्ति के जिन संबंधों की कथा कही है, वे निश्चित ही मूल्यवान हैं।” इसके अलावा डॉक्टर देवराज उपाध्याय लिखते हैं, “जब आत्मदर्शन करने चलता हूँ, तब जगप्रदर्शन होने लगता है, अर्थात एक सर्वप्रथम अनुभूति या स्मृति को खोजने लगता हूँ, तो एकाधिक स्मृतियाँ सामने आ जाती हैं।”
कालखंडों के अनुसार बदलती रही हैं आत्मकथाएं
किसी भी मनुष्य को उसकी चेतना, विचार, भावनाओं, अहंकार और स्वाभिमान के साथ समग्र रूप से पहचानने का खूबसूरत माध्यम है आत्मकथा, बशर्ते लिखनेवाले ने उसे पूरी प्रामाणिकता और ईमानदारी से लिखा हो। हालांकि ये आत्मकथा साहित्य जीवन के किसी भी पक्ष को हमारे समक्ष लाए या न लाए, किंतु सामाजिक पक्ष को वो अवश्य दर्शाता है। हालांकि आत्मकथाओं के मद्देनज़र जब हम सामाजिक संदर्भों का मुआयना करते हैं तो पाते हैं कि आज़ादी से पहले और बाद में लिखे गए आत्मकथाओं में काफी अंतर है। उदाहरण के तौर पर आज़ादी से पहले के समाज में कई विसंगतियां होने के बावजूद कई जीवन मूल्य भी थे, जो जन समुदाय को आगे बढ़ने का हौंसला देते थे। हालांकि आज़ादी के बाद कारखानों और आर्थिक विकास के साथ भौतिक लालसाओं ने सामाजिक दृष्टिकोण और मूल्यों को ही बदलकर रख दिया। हालांकि कुछ ऐसे विषय भी हैं, जिनमें कोई बदलाव नहीं आया जैसे अंधश्रद्धा, दहेज, बाल-विवाह इत्यादि। ऐसे में हिंदी की कुछ आत्मकथाएं हैं, जिन्होंने दोनों कालखंडों का समान रूप से प्रतिनिधित्व किया।
भाषाई बंधनों को तोड़, बनाई अपनी पैठ
हिंदी साहित्य में आत्मकथाओं के सामाजिक महत्व को समझने से पहले हमें यह भी समझना होगा कि जो आत्मकथाएं किसी अन्य भाषा से हिंदी में अनुवादित हुईं, वे हमारी सामाजिकता तथा उसके मूल्यों को किस प्रकार देखती हैं। हालांकि दिलचस्प बात यह है कि कुछ महापुरुषों की आत्मकथाएं ऐसी भी हैं जो किसी और भाषा से हिंदी में अनुदित हुईं, किंतु उन्होंने उस समाज की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक चेतना को काफी प्रेरित किया। इन आत्मकथाओं में महात्मा गांधी, पण्डित जवाहरलाल नेहरू, शंकरराव खरात, हंसा वाड़कर, टॉलस्टॉय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, नयनतारा सहगल, इंदिरा गांधी, दुर्गा खोटे, अमृता प्रीतम, कमलादास की आत्मकथाएं शामिल हैं। इन आत्मकथाओं में आत्मकथाकारों ने अपने व्यक्तिगत जीवन की झलक इस प्रकार दिखाई है कि उनके जीवन के घटनाक्रम, पूरे देश के घटनाक्रम बन जाते हैं, जिनसे हम न चाहते हुए भी जुड़ जाते हैं। सिर्फ यही नहीं, उनके इन घटनाक्रमों में सामाजिक, राजनैतिक और वैश्विक घटनाक्रमों के ऐसे कई संदर्भ भी मिलते हैं, जो इतिहास बन जाते हैं और आत्मकथाकार सामाजिक मूल्यों का प्रतिनिधित्व करनेवाले मिसाल बन जाते हैं।
हिंदी में रची आत्मकथाएं
हिंदी साहित्य में हिंदी में लिखे गए आत्मकथाओं की हम बात करें तो इनमें सेठ गोविंददास की ‘आत्मनिरीक्षण’, हरिवंशराय बच्चन की ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’ और ‘बसेरे से दूर, राजेंद्र प्रसाद की ‘आत्मकथा’, यशपाल की ‘सिंहावलोकन’, पाण्डेय बेचैन शर्मा उग्र की ‘अपनी खबर’, रामप्रसाद बिस्मिल की ‘बिस्मिल की आत्मकथा’, संतराम की ‘मेरे जीवन के अनुभव’, आचार्य चतुरसेन शास्त्री की ‘मेरी आत्मकहानी’, राहुल सांकृत्यायन की ‘मेरी जीवन यात्रा’, वियोगी हरि की ‘मेरा जीवन प्रवाह’, श्री गणेश प्रसाद वर्णी की ‘मेरी जीवन गाथा’, जानकी देवी बजाज की ‘मेरी जीवन यात्रा’, मोरारजी देसाईं की ‘मेरा जीवन वृत्तांत’, देवेंद्र सत्यार्थी की ‘चाँद सूरज से वीरन’, भगवानदास की ‘मेरा साहित्यिक जीवन’, रामदरश मिश्र की ‘जहाँ मैं खड़ा हूँ’ और ‘रोशनी की पगडंडियाँ’, रामविलास शर्मा की ‘घर की बात’, कुसुम अंसल की ‘जो कहा नहीं गया’, सद्गुरुशरण अवस्थी की ‘मार्ग के गहरे चिन्ह’, अमृतलाल नागर की ‘टुकड़े-टुकड़े दास्तान’ और खुशवंत सिंह की ‘सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत’ शामिल हैं।
आत्मथाओं पर सामाजिक प्रभाव
जब आत्मकथाकार अपनी बात पूरी बेबाकी और निरपेक्ष भाव से कहते हैं, तो हमें सामयिक घटनाओं के साथ उस समाज की भी सही जानकारी प्राप्त हो जाती है, किंतु कई बार कुछ आत्मकथाकार सामाजिक घटनाओं का वर्णन इतनी सावधानी और सतर्कता बरतते हुए लिखते हैं कि उनका सही मूल्यांकन नहीं हो पाता। ऐसे में आत्मकथा साहित्य का सही विश्लेषण करने के लिए ज़रूरी है कि वे सटीक जानकारियों और पूरी ईमानदारी से लिखे गए हों। हालांकि राजनीति से जुड़े महापुरुषों की आत्मकथाएं जहां, राजनीति और देशकाल की घटनाओं को समेटे होती है, वहीं साहित्यकारों की आत्मकथाएं हमें तत्कालीन समाज की साहित्यिक परिस्थितियां बताती हैं। साथ ही धार्मिक महापुरुषों की आत्मकथाओं से उस क्षेत्र की मान्यताओं का सटीक ब्यौरा मिलता है। साहित्यिक आत्मकथाकारों में आचार्य चतुरसेन और विष्णु प्रभाकर ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्की आत्मकथाएं साहित्य का इतिहास बताती हैं, वहीं घुमक्कड़ी स्वभाव के राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा से हमें अलग-अलग क्षेत्रों की सामाजिक स्थितियां पता चलती हैं। इसके अलावा भवानी दयाल सन्यासी की ‘प्रवासी की आत्मकथा’ से हमें स्वराज्य की संघर्ष कालीन धार्मिक तथा सामाजिक परिस्थितियों का ब्यौरा मिलता है।
आत्मकथाओं का मुख्य उद्देश्य हो प्रेरणा
अपनी आत्मकथाओं के माध्यम से सामाजिक स्थितियों का सटीक ब्यौरा पेश करते आत्मकथाकार कई बार सही दिशा बोध भी देते हैं। उदाहरण के तौर पर सहज हिन्दुस्तानी भाषा में लिखी गई आबिद अली की आत्मकथा ‘मज़दूर से मिनिस्टर तक’ में उन्होंने एक ऐसे लेखक की संघर्ष चेतना को मिसाल बनाया है, जो पिता की मृत्यु पश्चात मज़दूरी करके जीवन यापन करता है, किंतु गांधीजी के आह्वाहन पर नौकरी को तिलांजलि देकर स्वतंत्रता संघर्ष में कूद पड़ता है। स्वतंत्रता संग्राम में अपनी मजबूत भागीदारी के साथ ही वो आज़ादी के बाद राजनीति के गलियारों में अपनी पैठ बनाकर केंद्रीय मंत्रीमंडल में भी अपनी जगह बनाता है और जनसेवा का अपना कर्तव्य पूरा करता है। उनकी इस आत्मकथा के माध्यम से जहाँ मूल्यों की दृष्टि से इसमें दो-दो हाथ करने की प्रेरणा मिलती है, वहीं हिंदू-मुस्लिम एकता का रचनात्मक संदेश भी मिलता है। इसी तरह हरिवंशराय बच्चन ने अपनी आत्मकथाओं के तीनों खंडों के माध्यम से पारिवारिकता के साथ सामाजिकता के महत्व को दर्शाया है। फिलहाल साहित्य संबंधी गहरी संवेदनाओं से जुड़े उनके जीवन मूल्य उनके पाठकों के लिए बेहद मूल्यवान बन चुके हैं।
समाज निर्माण में ज़रूरी हैं राह दिखाती आत्मकथाएं
आत्मकथाओं की खासियत यही रही है कि कथाकार अपने लेखन से भले ही समाज को कुछ न दे पाया हो, किंतु अपनी गलतियों से समाज को सुधरने की दिशा ज़रूर दे सकता है। एक स्वतंत्र और ईमानदार समाज के निर्माण के लिए यह बेहद ज़रूरी है। किसी व्यक्ति या समाज को सही दिशा देने, उसे बदलने या सुधरने के लिए आत्मकथाएं बेहद कारगर साबित हो सकती हैं। यही वजह है कि जो लोग सामाजिक व्यवस्थाओं के कारण अपना निर्णय स्वयं नहीं ले पाते और ज़िंदगी से जूझते रहते हैं, उनके लिए आत्मकथाएं सार्थक सिद्ध होती हैं। उदाहरण के तौर पर मराठी के सम्मानित लेखक शंकरराव खरात, जिन्होंने दलित समाज से होने के कारण कई दुःख भोगे, अपनी आत्मकथा ‘तराल-अंतराल’ के माध्यम से अपने समाज की नग्नता से लोगों को अवगत कराते हुए अपनी तरह के कई लोगों को प्रेरित किया। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा भी है कि आज तक मेरी जीवन यात्रा भले ही कष्ट-कंटकों से गुजरी हो, किंतु अब अंधकार को भेदकर प्रकाश की किरणें साफ़ दिखाई देने लगी हैं।