बिहार की पहली महिला उर्दू साहित्यकार शकीला अख्तर ने उर्दू साहित्य को हमेशा से नई दिशा दी है। यहां तक कि बिहार रहकर उन्होंने अपने साहित्य के सफर को तेजी से आगे बढ़ाया है। उन्होंने अपनी इस्लाम में अपनी पारंपरिक शिक्षा शुरू की। इसके बाद काफी समय बाद उनका वैवाहिक जीवन आगे बढ़ा। जहां पर उनकी शादी उर्दू के साहित्यकार और विद्धान अख्तर ओरेनवी से हुई और शादी के बाद पटना उन्होंने साहित्य के प्रति अपना प्रेम जारी रखा। वक्त के साथ आगे बढ़ते हुए साहित्यिक महफिलों की वह केंद्र बन गईं। आइए जानते हैं विस्तार से।
शकीला अख्तर का साहित्य योगदान

शकीला अख्तर का साहित्यिक सफर लगभग 1940 में शुरू हुआ। उनका पहला कहानी संग्रह दरपन रहा है। उनके इस कहानी संग्रह में लगभग 14 कथाएं शामिल थीं। उनकी प्रमुख कहानियों में आंख मिचोली, डाइन, आग और पत्थर, तिनके का सहारा, लहू के मोल और आखिरी सलाम शामिल है। उनकी कहानियों में प्रमुख रूप से बिहार और स्थानीय परिवेश की झलक मिलती है, जैसे डाइन श्रृंखला में सोन नदी क्षेत्र की बोली के साथ अभिव्यक्ति की कहानी शामिल है। उन्होंने भारत में महिला कथा-लेखन की पहल की है। उल्लेखनीय है कि उनकी कहानियां ग्रामीण और शहरी दोनों जीवन में सामाजिक, नैतिक और राजनीतिक मामलों को भी सामने लाती हैं। इसके साथ उर्दू कथा साहित्य की तकनीक और विषय विस्तार में भी काफी बढ़ोतरी हुई। उनकी प्रमुख कृतियों में एक नाम पुकार का भी शामिल है। यह एक तरह से 6 कहानियों का संग्रह है। जिसमें ग्रामीण और शहरी जीवन और सामाजिक विमर्श भी शामिल है। इसके बाद आंख मिचोली में पांच कहानियों का संकलन किया गया है, जो समाज की कई सारी छवि को दिखाता है।
शकीला अख्तर ने किया उर्दू उपन्यास का उदय

उनके उपन्यास में महिला दृष्टिकोण को नई दिशा मिली। उन्होंने उर्दू उपन्यास को समृद्ध बनाया है। उनके लेखन से नई पीढ़ियों में रचनात्मक लेखन की प्रेरणा मिली है। उन्होंने अपना लेखन सिर्फ कहानियों तक सीमित नहीं रखा है, बल्कि उन्होंने कई सारे उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं। उन्होंने अपने लेखन के जरिए बिहार की पहली महिला उर्दू साहित्यकार थीं। यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि उन्होंने उर्दू उपन्यास की दुनिया को समृद्ध करने में एक अहम भूमिका निभाई। उनकी लेखनी में हमेशा बिहार और भारत की कई महिला लेखिकाओं को प्रेरित किया है, जिनमें प्रो. कमर जहां, एजाज शाहीन,सादका कमर, अस्मत आरा भी शामिल हैं। यह भी माना गया है कि शकीला अख्तर उर्दू साहित्य में केवल एक लेखिका नहीं, बल्कि एक लीडर थीं। उनके योगदान के चलते उर्दू उपन्यास और कथा दोनों ही समृद्ध और संवेदनशील बने।
उर्दू साहित्य में शकीला अख्तर की अहमियत

यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि शकीला अख्तर ने उर्दू साहित्य में महिला की आत्मा, सोच और संघर्ष को एक नई आवाज दी है। उन्होंने पारंपरिक पुरुष-प्रधान साहित्यिक प्रवृत्तियों को तोड़कर महिलाओं की समस्याओं, उनके सपनों और उनके समाज में स्थान को अपनी रचनाओं के केंद्र में रखा। उल्लेखनीय है कि उनका लेखन साहित्यिक आंदोलन का स्वरूप ले सका, जिसमें महिला चेतना और सामाजिक बदलाव की बातें प्रमुख रहीं। शकीला अख्तर सिर्फ एक लेखक नहीं थीं, वे उर्दू साहित्य में महिला सशक्तिकरण की प्रतीक थीं। उन्होंने जिस समय लेखन किया, वह एक चुनौतीपूर्ण समय था, लेकिन उन्होंने न सिर्फ खुद के लिए एक साहित्यिक पहचान बनाई, बल्कि उर्दू साहित्य को नई दिशा और संवेदनशीलता दी। यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि उर्दू साहित्य में नई थीम, नई भाषा और नए दृष्टिकोण को जोड़ा है। आज भी उनकी रचनाएं समकालीन सामाजिक मामलों पर अपना नजरिया पेश करती है।
शकीला अख्तर की लिखी हुई लोकप्रिय कहानियों पर विस्तार से

शकीला की कहानी आंख मिचौली एक लोकप्रिय कहानी है। शकीला अख्तर अपने पात्रों को इस कदर जीवंत बनाती है कि पाठक उन्हें महसूस कर सकता है। उनकी कहानियां खासतौर पर महिलाओं की भावनात्मक उथल-पुथल, उनकी सामाजिक चाहत को दिखाती है। कई सवालों में उन्होंने सामाजिक ताने-बाने को भी दिखाया है। उनकी अगली लिखी हुई कहानी आग और पत्थर में संघर्ष और समर्पण दिखाया है। आग और पत्थर दो विपरीत प्रतीक, संघर्ष को दिखाते हैं। इसकी कहानियां मानसिक और भावनात्मक संघर्षों की कहानियां हैं, जो पात्रों की जटिलताओं को उजागर करती है। दूसरी तरफ उनकी इस कहानी में बिहार-झारखंड क्षेत्र की सामाजिक मान्यताओं और दबाव के पहलुओं का सजीव चित्रण मिलता है, जो पाठकों को अंदरूनी तौर पर प्रभावित करता है। उनकी लिखी हुई अन्य कहानी दान और दूसरे अफसाने भी लोक विश्वास के ईद-गिर्द बुनी गई कहानी है। इस कहानी में शकीला ने अपनी खास और सरल लेखन शैली से महिला के जीवन की आकांक्षा, डर और सांस्कृतिक मान्यताओं को दिखाया है।
बिहार की अन्य लोकप्रिय महिला साहित्यकार के बारे में विस्तार से

उर्दू में भारत की पहली महिला उपन्यासकार राशिद-उन्निसा को माना जाता है। उन्होंने अपने उपन्यास लेखन के साथ-साथ 1906 में बिहार में पहली लड़कियों के स्कूल की स्थापना की। इसके बाद नाम सामने आता है,अनीस फातिमा का। अनीसा फातिमा हमेशा से उर्दू भाषा की आर्थिक और शैक्षिक तरक्की में सक्रिय भूमिका निभाई। साथ ही बिहार में शिक्षा और उर्दू पुस्तकालयों की स्थापना भी की। सज्जिदा जैदी बिहार की उर्दू अकादमी द्वारा सम्मानित कवयित्री रह चुकी हैं। उन्होंने जीवन-प्रवाह और आतिश-ए-सय्याल जैसी काव्य की रचना की। इसके बाद नाम आता है, बिहार की उर्दू कवयित्री कमला प्रसाद का। उन्होंने जश्न-ए-बहार के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय मुशायरा और काव्य की प्रवृत्ति को भी काफी बढ़ावा दिया।