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होम / एन्गेज / साहित्य / किताब-घर

परमीला

रश्मि रविजा |  अगस्त 22, 2022

विशाल अपने लैपटॉप पर नज़रें गड़ाए एक नए प्रोजेक्ट में उलझा हुआ था। तभी मोबाइल बज उठा।  बिना नंबर देखे ही उठा कर ‘हेलो’ बोला।  उधर से किसी महिला की ज़ोरदार आवाज़ आई ,"हेलोss हेलोss " विशाल ने फ़ोन कान से थोड़ी दूर कर लिया। उसे लगा, रॉन्ग नम्बर है। कट करने ही जा रहा था कि फिर आवाज़ आई,"हेलो आप बिसाल बोल रहे हैं…  बिसाल…  विशाल शर्मा?" अब ये तो कोई उसके घर के तरफ़ की ही हो सकती थीं, पर आवाज़ पहचानी-सी नहीं लग रही थी। 

 

  "अरे हम परमीला …पहचाने हमको?' विशाल ने दिमाग़ पर बहुत ज़ोर डाला, पर बिल्कुल याद नहीं आ रहा था, तभी आगे बोलीं वे," याद है, तुम मोतीगंज में सातवीं में पढ़ते थे, हमारे घर के बगल में रहते थे।  चचा का फ़ोन नंबर मिला तो तुम्हारा नंबर भी ले लिए।  ख़ूब बड़े अफ़सर बन गए हो, अच्छा लगा सुन कर।  सादी कर लिए? बच्चा लोग कैसा है? सबको मेरा आशीर्वाद देना।  चलो तुम ऑफ़िस में बिज़ी होगे।  हमको तो तुम्हारा नंबर मिला तो इंतज़ारे नहीं हुआ।  ये मेरा नंबर है, सेव कर लेना।  फुर्सत से फ़ोन करना कभी, अपनी वाइफ़ से भी बात करवाना… चलो, बाय।  "

जैसे अचानक फ़ोन आया था, वैसे ही बंद भी हो गया।  विशाल कुछ देर तक फ़ोन को घूरता रहा।  उसके बाद काम में मन ही नहीं लगा। बार-बार जी उचट जाता।  स्क्रीन पर फ़ैक्ट्स और फ़िगर्स के पीछे से लाल रिबन वाला, एक गोल चेहरा झांकने लगता। आख़िर उसने एक कॉफ़ी मंगवाई और कप लेकर खिड़की के पास चला आया।  खिड़की से नीचे नज़र आती सड़क पर तेज़ी से गाड़ियां आ जा रही थीं।  दूर सड़क के पार वाला बाउंड्रीवॉल, गुलाबी बोगनवेलिया से ढंका हुआ था।  ऐसे ही तो बचपन के गुलाबी दिन थे वो और उसका मन भी उन गाड़ियों संग तेज़ी से भाग  निकला… मोतीगंज में विशाल के पापा ट्रांसफर होकर गए थे। प्रमिला और उसका घर पास पास था। सिर्फ़ एक दीवार थी बीच में।  सामने का बरामदा, ऊपर जाने वाली सीढ़ी और छत सब साझी थी। प्रमिला पूरे मोहल्ले की बिल्ली थी, जब तक सबके घर एक बार न घूम ले उसका खाना हज़म नहीं होता था। सबको उसके आने-जाने की इतनी आदत भी पड़ गई थी कि जिस घर में शाम तक न गई हो, लोग चिंतित हो आस-पास से उसका हाल चाल पूछने लगते थे कि प्रमिला ठीक तो है।  जिस घर में प्रमिला की पसंद की चीज़ बनती, एक कटोरी अलग से उसके लिए रख दी जाती। विशाल के घर में तो उसका डेरा ही जमा रहता। अपने घर में तो वो टिकती ही नहीं। 

प्रमिला अपने घर के किसी काम में हाथ नहीं बटाती।  चाची छत पर से कपड़े लाने को कहतीं और वो विशाल के यहां  आकर बैठ जाती। चाची जब गुस्से में उसे ढूंढते हुए आतीं तो वो किचन में छुप जाती।  विशाल किचन की तरफ़ इशारा कर देता, चाची किचन की तरफ़ बढ़तीं उसके पहले ही प्रमिला तीर की तरह निकलती और बाहर भाग जाती। 

‘तू आ, आज घर में, आज तेरी टांगे न तोड़ दीं तो कहना,’ चाची बड़बड़ाती हुई छत से कपड़े लाने चली जातीं। " पर प्रमिला लौटकर अपने घर में नहीं विशाल के घर में पहले आती और फिर जी भरकर उससे लड़ती कि उसने चाची को क्यों बताया कि वो किचन में छुपी है। विशाल भी अकड़ता, 'मैं झूठ नहीं बोलता "

  ‘तो राजा हरिश्चंदर रख लो न अपना नाम…’ ऐसे मुंह चिढ़ा कर वो कहती कि विशाल ग़ुस्से में उसकी तरफ़ झपटता।  प्रमिला भागती और उसकी लहराती लम्बी चोटी, विशाल के हाथ में आ जाती।  वो चीखती, ‘चाची ss ' और मम्मी आकर विशाल को डांटने लगतीं, 'छोड़ो उसकी चोटी… तमीज़ नहीं है ज़रा भी… एक लड़की के साथ ऐसा बिहेव करते हैं?’ विशाल ग़ुस्से से भर जाता, ‘लड़की होने के बड़े फ़ायदे हैं,अपनी मां का कहना न मानो, उनसे छुप कर बाहर भाग जाओ।  लोगो को झूठ बोलना सिखाओ और सब करके साफ़ बच जाओ, क्योंकि लड़की हो। ' वो गुस्से में भर चल देता।  पर प्रमिला दूसरे दिन ही सब भूलभाल कर धमक जाती, ‘चल खेलने चलें?’

‘हमको नहीं खेलना तेरे साथ,’ विशाल उसकी कल की बदमाशी भूला नहीं होता। 

‘काहे? हार जाता है इसलिए…’ प्रमिला उसकी हंसी उड़ाती हुई बोलती। 

‘कब हारे हैं रे तुझसे?’ वो लाल आंखें दिखाता

 ‘तो चल न…’ प्रमिला, उसका हाथ खींचती हुई ले जाती। विशाल हाथ झटक कर आगे बढ़ जाता। शाम को मोहल्ले के सब लड़के मिल कर पिट्टू, डेगा-पानी, लंगड़ी, आइस-पाइस खेलते। लड़कियां रस्सी कूदतीं या इक्ख्ट-दुक्ख्ट खेलतीं।  पर प्रमिला को तो कूद-फांद पसंद थी।  वो लडकों के संग सारे खेल खेलती।  विशाल पिट्टू में प्रमिला पर ज़ोर से बॉल का निशाना लगाता कि प्रमिला को ख़ूब चोट लगे, पर वो बहुत तेज़ थी, हर बार बच जाती और उसे अंगूठा दिखाती।  कभी कभी विशाल छुपकर कंचे भी खेलता।  मम्मी-पापा की तरफ़ से कंचे खेलने की सख़्त मनाही थी।  मम्मी कहतीं, 'कंचे गली के लड़के खेलते हैं। ’ उसे समझ नहीं आता, ये गली के लड़के कौन होते हैं।  वे लोग भी तो सड़क के किनारे ही खेलते थे।  पर तब आज के बच्चों की तरह, फट से माता-पिता से सवाल करने का रिवाज़ नहीं था। उनकी जितनी बातें समझ में आईं, समझो वरना सर के ऊपर से गुज़र जाने दो।  प्रमिला उसे कंचे खेलते देख लेती तो फिर ब्लैकमेल करती कि मैथ्स का ये सवाल बना दो वरना चाची को बता दूंगी।  खीझते हुए भी उसे उसका होमवर्क करना ही पड़ता। 

विशाल ने कॉफ़ी का एक लम्बा घूंट भरा।  क्या दिन थे वे भी, सिर्फ़ पढ़ना-लिखना, खेलना-कूदना।  पढ़ाई का भी कोई बोझ नहीं।  ना परीक्षा का कोई ख़ौफ़, ना परसेंटेज की कोई होड़। 

आए दिन कोई न कोई त्यौहार पड़ता और सारा मोहल्ला ही वो त्यौहार मिलकर मनाया करता था।  होली, दिवाली, दशहरा ,सरस्वती पूजा सब ख़ूब धूमधाम से मनाते।   दशहरे का मेला सारे बच्चे मिलकर देखने जाते।  एक बार प्रमिला ने पचास पैसे की एक पीतल की अंगूठी ख़रीदी थी।  शरारती तो थी ही पता नहीं कैसे दांत से दबा कर उंगली पर चिपका ली थी। उंगली सूज कर मोटी हो गई थी और उसका रो रो कर बुरा हाल।  विशाल ने चिढ़ाया था, 'अब तो उंगली काटनी पड़ेगी। ' प्रमिला का रोना और बढ़ गया।  दोनों की मांएं परशान हो गई थीं।  पिता ऑफ़िस गए हुए थे, फ़ोन तो था नहीं जो उन्हें बुलाया जा सके। उस छोटे से क़स्बे में औरतें बाज़ार नहीं जातीं थीं। और तब ये ज़िम्मेवारी विशाल को सौंपी गई थी। वो मोहल्ले के बच्चों की फ़ौज के साथ बड़ी ज़िम्मेवारी से सुनार के यहां से उसकी अंगूठी कटवा कर ले आया था।  प्रमिला ने भरी आंखों से, रुंधी आवाज़ में पहली बार उसे 'थैंक्यू 'कहा था।  मन तो हुआ फिर से चिढ़ाने लगे, पर उसकी रोनी सूरत देख दया आ गई थी। दो दिन प्रमिला ने उसका एहसान मान लड़ाई नहीं की, पर तीसरे दिन ही सब भूलभाल…'चाची देखिए, बिसाल पढ़ाई का किताब नहीं कॉमिक्स पढ़ रहा है" और उसकी ग़ुस्से से लाल आंखें देख अंगूठा दिखा भाग गई थी।  उसे सचमुच अफ़सोस हो गया था, बेकार ही ले गया था सुनार के पास।  हो जाने देता उसकी उंगली हाथी के पांव जैसी। 

  पर दिवाली के समय प्रमिला सारी दुश्मनी भूल जाती। विशाल और प्रमिला का सामने वाले घर के गगन और मिथिलेश से पटाखे छोड़ने का कॉम्पिटिशन होता। अपने सारे बचाए पैसे उसे दे देती कि वो पटाखे ले आए। किसी भी बच्चे को बहुत ज़्यादा पैसे तो मिलते नहीं थे तो कॉम्पिटिशन होता कि किसने सबसे अंत में पटाखे छोड़े।  प्रमिला घर-घर की बिल्ली तो वो थी ही।  चुपके से उनके घर में जाकर देख आती कि उन्होंने कौन से पटाखे और कितने पटाखे ख़रीदे हैं और फिर दोनों उसी हिसाब से पटाखे छोड़ते। बहुत देर तक मिथिलेश और गगन के घर के सामने से पटाखों की आवाज़ नहीं आती तो विशाल अंतिम रॉकेट छोड़ने के लिए उद्यत होता पर प्रमिला कहती, 'नहीं, रुको अभी उनका एक अनार बचा हुआ है, हम गिने हैं।  उन लोगों ने अभी तक पांच ही अनार जलाया है, जबकि छः लाए थे।  और फिर उनके अनार जलाते ही, विशाल विजयघोष सा अंतिम राकेट छोड़ देता।  किसकी छत पर दिए देर तक जले, इसका भी कॉम्पिटिशन होता।  छत तो साझा थी, दोनों देर रात तक जागकर दिए में तेल डाला करते।  एक भूली सी मुस्कराहट विशाल के चहरे पर आई। आज तो रंग-बिरंगे बिजली के बल्ब और झालरें लगा दो, वे दूसरे दिन तक जलते रहेंगे।  बस एक स्विच ऑन ऑफ़ करना ही तो होता है। 

  खिड़की छोड़कर विशाल ने वापस काम में मन लगाने की कोशिश की, पर मोतीगंज की गालियां ही ज़ेहन में घूमती रहीं।  आजकल न्यू ईयर पार्टी का बड़ा शोर होता है।  इकतीस दिसंबर को देर रात तक पार्टी करते हैं लोग और फिर नए साल की सुबह देर तक सोए रहते हैं।  नए साल का सूरज तो कोई देखता ही नहीं।  और एक उनका बचपन था।  सुबह सुबह नहा धोकर वे लोग मंदिर जाते और फिर जलेबी-पूरी का नाश्ता करते और फिर सारे बच्चे मिलकर छत पर पिकनिक मनाते।  आलू गोभी मटर की खिचड़ी बनती।  खिचड़ी का वैसा स्वाद फिर कभी नहीं आया । 

 पिकनिक ख़त्म होते ही सरस्वती पूजा की तैयारियां शुरू हो जातीं।  सीढ़ी के ऊपर थोड़ी सी ख़ाली जगह थी, वहीं सरस्वती माता की मूर्ति बिठाई जाती।  हर घर से वे लोग चंदा इकठ्ठा करते।  और फिर उन पैसों से साधारण सा प्रसाद लाते।  थोड़ी सी बूंदी, बताशे और फल।  सजावट के लिए मम्मी लोग उदारतापूर्वक साड़ियां दे देतीं।  लडकियां साड़ियों से सजावट करतीं।  लड़के रस्सी टांगकर रंगीन कागज़ों की झंडियां लगाते।  प्रसाद काटना, प्रसाद बांटना हर काम वे लोग मिलकर करते। 

पर  मोतीगंज छोड़ने से पहले अंतिम सरस्वती पूजा में बड़ा हंगामा हुआ था।  महल्ले में एक नई लड़की आई थी।  बहुत सज संवर कर रहती।  अपने पिता के अफ़सर होने का उसे बड़ा घमंड था।  ख़ूब क़ीमती फ्रॉक और मैचिंग हेयर बैंड लगा कर शाम को आती।  ख़ुद भी नहीं खेलती और लड़कियों को भी नहीं खेलने देती।  उन्हें बिठा कर लंबी लंबी डींगे हांका करती।  लड़कों पर उसका रौब नहीं चलता इसलिए उनसे चिढ़ी रहती।  अब तक सरस्वती पूजा में सबलोग एक बराबर चन्दा दिया करते थे।  इस नई लड़की ने ज़्यादा पैसे दिए।  अपनी मां की ढेर सारी क़ीमती साड़ियां लाई और विसर्जन के लिए अपने पिता से कहकर एक जीप अरेंज कर दी थी। 

प्रमिला को छोड़कर बाक़ी सारी लड़कियां उसकी मुरीद हो गई थीं।  लड़कों ने मूर्ति लाने का, सजावट का सारा काम तो किया पर दूसरे दिन लड़कियों ने उन्हें ग़ैरों की तरह एक एक प्रसाद का दोना देकर चलता कर दिया। 

इस तरह मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिए जाने पर लड़के कड़वा घूंट पीकर रह गए।  विसर्जन के लिए भी जीप में बैठकर सिर्फ़ लड़कियां ही गईं।  लड़कों को बिलकुल ही नहीं पूछा। 

पर लड़के भी ताक में थे, जैसे ही लड़कियां विसर्जन के लिए गई, वे बचा हुआ सारा प्रसाद चुरा लाए।  कुछ ख़ुद खाया और बाक़र रास्ते पर आने-जाने वालों में बांट दिया। लड़कियों को आगबबूला तो होना ही था।  ख़ूब चीखीं-चिल्लाईं।  घर वालों से भी इस हरकत के लिए बहुत डांट पड़ी।  पर किसी को बुरा नहीं लगा।  सब सर नीचा किए मंद मंद मुस्काते रहे।  सामूहिक रूप से डांट खाने का मज़ा ही कुछ और होता है। 

विशाल के मुंह से एक ठंडी सांस निकल गई।  आज अपने मोबाइल और लैपटॉप में घुसे गेम खेलते बच्चे क्या जानें ये मिलजुल कर खेलना, शैतानियां करना और डांट खाना। 

  प्रमिला, उसके घर में इतना ज़्यादा रहने लगी थी कि अनजान लोग उसे मम्मी पापा की बेटी ही समझते।  बस फ़र्क़ ये था कि विशाल और उसका छोटा भाई आकाश पापा से बहुत डरते थे, जबकि प्रमिला बिलकुल नहीं झिझकती।  बड़े आराम से कह देती ,'चचा इस शर्ट में आप बहुत स्मार्ट लग रहे हैं। ' पापा के सामने भी गाना गाती रहती।  उसे और आकाश को पापा से कोई फ़रमाइश करनी हो तो वे लोग प्रमिला को आगे कर देते। और वो बड़े अधिकार से कह देती ,’चाचा हमलोगों को दशहरा का मेला देखने जाना है। ’ या ‘गगन ने इतनी सुंदर एटलस की साइकिल ली है आप विशाल के लिए भी ला दीजिए ना। ’

फिर विशालल के पापा का ट्रांसफर हो गया और वे लोग नए शहर में आ गए।  प्रमिला की याद धीरे-धीरे धूमिल होती गयी। वो अपने कॉलेज, करियर, फ़ैमिली में प्रमिला को बिलकुल भूल गया था।  आज उसके फ़ोन कॉल ने विशाल का पूरा बचपन लौटा दिया। 

रात में मां का फ़ोन आया ," प्रमिला का फ़ोन आया था कि उसने तुमसे बात की है।  बहुत ख़ुश लग रही थी। "

 "हां मां, बिलकुल वैसी ही है अभी भी।  चिल्ला-चिल्ला कर बोलती है और अपना नाम अब भी परमीला बताती है, प्रमिला नहीं… " विशाल हंस पड़ा था। 

  "नहीं बेटा, वो तुमसे बातें करने की ख़ुशी में बोल रही होग ।  दुःख का पहाड़ टूटा है उस पर।  उसके बच्चे छोटे थे तभी पति की मृत्यु हो गई।  पर प्रमिला ने सबकुछ अच्छे से संभाल लिया । टीचर है एक स्कूल में।  हमारे बगल वाले घर में प्रमिला के दूर के रिश्तेदार आए हैं।  उनसे ही नंबर लेकर पापा ने प्रमिला से बात की।  वो तुम सबलोग का हालचाल पूछ रही थी। तुम्हारा नंबर लिया। तुमसे बात करने के बाद भी मुझे फ़ोन करके बताया, पर बोल रही थी तुम ऑफ़िस में थे तो ज़्यादा बात नहीं हुई।  समय निकाल कर बात कर लेना बेटा, बहुत ख़ुश होगी वो। 

 "हां मम्मी, ज़रूर।  किसी सन्डे सैटरडे को करूंगा…  " यह सब सुनकर उदास हो गया वह। विधाता ने किसके भविष्य की टोकरी में क्या सहेज कर रखा है, किसी को पता नहीं होता। उछलती-कूदती, शरारती प्रमिला के इतने ज़िम्मवार रूप की कल्पना भी नहीं कर पा रहा था।  कैसे उसने संभाला होगा सबकुछ। या शायद इतनी एक्टिव, मिलनसार, हंसमुख होने के कारण ही उसने सब अच्छे से संभाल लिया, वरना कोई सरल, सहमी, सीधी-सी लड़की होती तो बिखर ही जाती।  पहली फ़ुर्सत में ही प्रमिला को कॉल करेगा  और फिर ढेर सारी बातें करेगा। उसने सोच तो लिया था, पर छुट्टी के दिन कुछ आराम में, कुछ परिवार के साथ समय बिताने, कुछ बाहर जाने, कुछ मेहमानों की खातिर-तवज्जो में याद ही नहीं पड़ा और कई महीने गुज़र गए।  वो फ़ोन करना भूल ही गया। 

 पर आज टीवी पर बिल्कुल प्रमिला जैसी गोल चेहरे वाली, कमर तक दो चोटी लटकाए एक लड़की को कूदते-फांदते, शरारतें करते देखा तो प्रमिला की बेतरह याद हो आई।  बिना एक पल गंवाए उसने प्रमिला को फ़ोन मिला दिया।  पर उसने फ़ोन नहीं उठाया। बाद में प्रमिला ने कॉल बैक किया तो वो बाथरूम में था।  उसने फिर से फ़ोन किया पर पूरे रिंग के बाद फ़ोन नहीं उठा।  फिर उसे जैसे ज़िद ही हो आई।  पांच-पांच मिनट पर उसने कई बार फ़ोन मिलाया, पर प्रमिला ने फ़ोन नहीं उठाया।  और जब काफ़ी देर बाद प्रमिला ने कॉल बैक किया तो वो ग़ुस्से में फट पड़ा ,"कहां थीं? कब से फ़ोन कर रहा हूं… फ़ोन नहीं उठाया जाता?"

     "शांति, शांति… अरे बाबा ग़ुस्सा वैसा ही है, तुम्हारा…" प्रमिला के ये कहने पर ध्यान आया कि वह पूरे बीस साल बाद उस से बात कर रहा है।  प्रमिला ने कहा,"मंदिर में थी न इसलिए फ़ोन नहीं उठा पाई।  सिद्धिविनायक आई हुई हूं न। ‘’

 "अरे तुम मुंबई में…  मेरे शहर में हो…  कब आईं एक फ़ोन भी नहीं किया। "

"वो  चेकअप के लिए आई थी…   पर आज ही रात की वापसी है। "

"चेकअप…   कैसा, किसका  चेकअप?”

“अरे मुझे ही पांच साल पहले ब्रेस्ट कैंसर हो गया था। ऑपरेशन हो गया है, अब ठीक  हूं।  पर छह महीने में चेकअप के लिए आना पड़ता है।  सुबह ही आई, हॉस्पिटल गई और अब रात की वापसी है।  इसलिए फ़ोन नहीं कर पाई,अगली बार पक्का बताऊंगी। "

 विशाल  दुःख से भर उठा।  विधाता ने दो बच्चे सौंप कर पति छीन लिया, इतने से भी संतोष ना हुआ तो कैंसर की सौगात भी दे डाली।  कोई अगर बर्दाश्त करने में सक्षम है तो उसे दुःख पर दुःख दिए जाओ।  किसी की ज़िंदादिली की ऐसी कठिन परीक्षा भी ली जाती है। 

अपराधबोध भी सताने लगा।  प्रमिला ने इतने उत्साह से फ़ोन किया था पर उसने पलट कर एक बार भी फ़ोन नहीं किया।  प्रमिला ने सोचा होगा उसे बातचीत करने में कोई रुचि नहीं है। 

पर अब ज़रा भी समय नही गंवाना है।  विशाल ने कहा, "ठीक है रात की ट्रेन है न।  मैं अभी आता हूं तुम्हें लेने।  तुम मन्दिर के बाहर ही रुको।  रात को स्टेशन छोड़ दूंगा।  चिंता मत करो। ’’

मंदिर पहुंच वो इधर-उधर देख रहा था।  इतने चेहरों की भीड़ में उस चेहरे को ढूंढ़े भी कैसे जिसकी अब उसे पहचान भी नहीं।  तभी दाहिनी तरफ़ से एक आवाज़ आई," परसांssत… " मुड़ कर देखा।  अरे तो ये है प्रमिला। वक़्त की मार से प्रमिला का गोरा रंग कुम्हला गया था।  कमर तक लटकती काली चोटियों की जगह अब कंधे तक कच्चे-पक्के बाल एक क्लिप में बंधे थे। पतली छरहरी देह थोड़ी फैल गई थी। 

उसे अपनी तरफ़ देखता पा कर प्रमिला पास आ गई, बोली, "हम तो तुम्हें पहचान ही नहीं पाते, पर तुम अब बिलकुल वैसे ही दिखते हो, तब जैसे चचा दिखते थे। पर चचा तुमसे पतले थे। " और फिर हंस कर बोली, "कितना मोटा गए हो "

 चश्मे के पीछे से झांकती प्रमिला की आंखों की चमक और शरारती हंसी वैसी ही थी।  प्रमिला के हाथ से उसका बैग लेते हुए विशाल ने भी हंस कर कहा ,"और तुम नहीं मोटाई? एकदम बुढ़िया लगने लगी हो। ”

 

"बुढ़िया कहेगा, मुझे?" प्रमिला ने उसे ज़ोर की कोहनी मारी और दोनों के बीच के वर्ष छलांग लगा, कहीं बिला गए।  दोनों स्कूली बच्चे से ठठा कर हंस पड़े।

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