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होम / एन्गेज / संस्कृति / इवेन्ट्स

भारतीय धरोहर के कैनवास पर पांच पेंटिंग्स ने फैलाया इंद्रधनुषी रंग

प्राची |  जून 20, 2024

बचपन में आपने स्कूल में चित्रकला का नाम जरूर सुना होगा। चित्रकला यानी कि ड्राइंग करना। लेकिन उस वक्त के बाद क्या आपने यह कभी सोचा कि चित्रकला शब्द आया कहां से है। आपको जानकर हैरानी होगी कि चित्रकला का नाता भारतीय हेरिटेज कला से है। भारत में चित्रकला का इतिहास कई दशकों पुराना है। पाषाण काल में मानव ने गुफा चित्रण करना शुरू कर दिया था और तभी से गुफाओं पर की गई कला को चित्रकला का नाम दिया गया। चित्रकला की तरह भारतीय संस्कृति की दहलीज पर कई सारी ऐसी कलाएं रही हैं, जो कि भारतीय धरोहर का हिस्सा कई दशकों से हैं। आइए जानते हैं विस्तार से।

मधुबनी पेंटिंग

मधुबनी पेंटिंग को मिथिला की ऐतिहासिक कला के तौर पर भी जाना जाता है। यह एक तरह की कला है, जिसकी उत्पत्ति बिहार के मधुबनी जिले में हुई थी। ज्ञात हो कि मधुबनी पेंटिंग आधुनिक कला का हिस्सा नहीं है। जानकारों का मानना है कि मधुबनी कला सतयुग से चली आ रही है। आप यह मान सकती हैं कि 1,728, 000 साल से मधुबनी पेंटिंग कला के इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाती आ रही है। साल 1934 में मधुबनी कला का इजात हुआ। उल्लेखनीय है कि इस पेंटिंग को महिलाओं द्वारा बनाया जाता है। महिलाएं इस पेंटिंग में पर्यावरण और पेड़- पौधों के साथ पशुओं के साथ महिलाओं की छवि को भी शामिल करती हैं। देखा जाए, तो अधिकतर बार महिलाओं, पेड़ों और प्रकृति को मधुबनी पेंटिंग का प्रमुख हिस्सा बनाया जाता है। 

वारली पेंटिंग

जान लें कि वार्ली पेंटिंग 2500 साल पुरानी परंपरा का हिस्सा है। महाराष्ट्र के ठाणे और नासिक क्षेत्रों से जुड़े लोग वार्ली पेंटिंग की संस्कृति से जुड़े होते हैं। वार्ली पेंटिंग में खासतौर पर खेती, नृत्य, शिकार और प्रार्थना के चित्रों को प्रदर्शित किया जाता है। देखा जाए तो, परंपरागत तौर पर महिलाएं फसल या फिर शादी के उत्सव को चिन्हित करने के लिए घरों की मिट्टी की दीवारों पर चावल के पेस्ट के साथ डिजाइन बनाती है, जिसके लिए पेड़ों की टहनियों का उपयोग किया जाता रहा है। इस वजह से दीवारों पर चावल के सफेद रंगों की वार्ली पेंटिंग साफ उभर कर दिखती है। इस कला की लोकप्रियता इतनी अधिक है कि वारली पेंटिंग से बनने वाली साड़ियां भी आकर्षण का केंद्र बन चुकी हैं। 

कलमकारी पेंटिंग

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में कलमकारी पेंटिंग की उत्पत्ति करीब सौ साल पहले हुई। सबसे पहले इसका उपयोग धर्म से जुड़ा। जहां पर रामायण और भागवत जैसे धार्मिक ग्रंथों में कुछ अंश को दिखाने के लिए कलमकारी पेंटिंग का इस्तेमाल किया जाता था। इसके बाद इस लोक कला को हस्तकला का एक प्रकार बना दिया गया। जिस में हाथ से सूती कपड़े पर रंगीन ब्लॉक से छाप बनाई जाती है। कई जगहों पर कलम का उपयोग करके भी कपड़ों पर कलमकारी बनाई जाती है। कपड़ों पर आकृतियों को उभारने के लिए बांस की कलम से चित्र की रूपरेखा खींच दी जाती है। जहां पर रंग भरना होता है, वहां पर फिटकरी का घोल लगा दिया जाता है। दिलचस्प है कि कलमकारी से चित्रित कपड़ों के परिधान से पर्दे, बिस्तर और दुपट्टे से लेकर लैंपशेड भी बनाया जा सकता है। 

फड़ चित्रकारी

राजस्थान के मेवाड़ राज्य में 700 साल पूर्व फड़ चित्रकारी का जन्म हुआ। जहां पर कपड़ों पर लोक कथाओं का चित्रण किया जाता था। फड़ चित्रण में लोक नाट्य, गायन और वादन के साथ चित्रकला का संयुक्त संगम देखने को मिलता है। कई जगहों पर देवी और देवताओं के जीवन का चित्रण भी फड़ चित्रकारी के जरिए किया जाता था। पेंटिंग की इस शैली को पारंपरिक तौर पर कपड़े या कैनवास के लंबे टुकड़े पर किया जाता है। परंपरागत तौर पर फड़ों को वनस्पति के रंगों से रंगा जाता है। यह माना जाता है कि फड़ की कला किसी को भी अपनी तरफ आकर्षित कर देती है, क्योंकि फड़ की कला में कहानियां, कविता और वीर गाथाएं होती है। 

लघु चित्रकला शैली

कला के दुनिया में लघु चित्रकला शैली 16 वीं शताब्दी में मुगलों के साथ भारत में आई और इसे भारतीय कला के इतिहास में मील का पत्थर के तौर पर पहचाना जाता है। लघु चित्रकारी पेंटिंग को कागज आधारित वासली पर प्राकृतिक पत्थर के रंगों का उपयोग करके बनाई गई है। जान लें कि पूरे भारत में लघु चित्रकला शैली कांगड़ा, राजस्थान, मालवा, पहाड़ी और मुगल जैसे लघु चित्रकला के खास स्कूलों में विकसित हुई है। इस कला की खूबी यह है कि कई साल पहले विकसित होने के बाद ऐसा मालूम होता है कि यह एक आधुनिक कला है। इस कला की खूबी यह है कि जटिल और नाजुक ब्रश वर्क से इस कला का निर्माण किया जाता है। साथ ही इसे छोटे आकार में बनाया जाता है, इसलिए इसे लघु चित्रकला कहते हैं।

 

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