सावन का महीना यानी कि प्रकृति की सुंदरता को और भी अच्छे से समझने के साथ उसे परखने का भी माह होता है। सावन का महीना एक तरह से उत्सव होता है, महिलाओं, किसानों और खेती से जुड़ी परंपरा का। इस दौरान पूरे भारत में कई स्थानों पर मेले और उत्सव का आयोजन किया जाता है। उपवास और धार्मिक अनुष्ठानों के साथ सावन के महीने का आगमन और समापन होता है। इस महीने में गांवों से लेकर शहरों तक खास चहल-पहल देखी जाती है। आइए जानते हैं विस्तार से।
जानें क्या है सावन का सांस्कृतिक महत्व

सावन में सावन का पर्व शुरू होता है, जहां शिवलिंग पर जल और बेलपत्र चढ़ाकर पूजा की जाती है। इस महीने कई जगहों पर सावन के झूले लगाए जाते हैं। साथ ही महिलाएं झूला झूलते हुए सावन के गीत गाती हैं, जहां कजरी, झूला और मल्हार जैसे लोकप्रिय लोकगीत गाए जाते हैं। देखा जाए, तो सावन का महीना हरियाली लेकर आता है। ऐसे में सावन प्रकृति की सुंदरता का व्याख्या करने वाला भी महीना माना गया है। सावन का महीना महिलाओं के जीवन में विशेष माना गया है। वे इस दौरान शृंगार करती हैं, हरी चूड़ियां पहनती हैं। मेहंदी लगाती हैं। साथ ही हरियाली तीज का पर्व भी मनाती हैं। झूले और सावन के गीत गाती हुई नारी सशक्तिकरण और सांस्कृतिक सहभागिता का नायाब उदाहरण पेश करती हैं।
सावन का कावड़ मेला और उसकी संस्कृति

सावन का कावऱ़ मेला काफी लोकप्रिय है। कावड़ में गंगा जल लेकर श्रद्धालु धार्मिक जगहों पर जाते हैं। यह एक तरह से भक्तों का मेला कहलाता है। कावड़ यात्रा में लोग कई किलोमीटर चलकर गंगा नदी तक जाते हैं और जल लेकर वापस मंदिर पहुंचते हैं। यह यात्रा कई बार पैदल ही होती है, जो उनके भक्ति और तपस्या का प्रतीक होती है। कावड़ मेला न केवल धार्मिक आयोजन है, बल्कि यह सामाजिक समरसता और मेल-जोल का भी अवसर होता है। यहां विभिन्न जाति, भाषा और समुदाय के लोग एक साथ आते हैं। मेले में अनेक दुकानदार भी होते हैं और स्थानीय सामान की भी बिक्री होती है। इससे वहां के लोगों को आर्थिक मदद मिलती है।
श्रावणी मेला का भारत की सांस्कृतिक महत्व

श्रावणी मेला का भारत की सांस्कृतिक महत्व गहरा और व्यापक बताया जाता है। झारखंड में यह मेला काफी लोकप्रिय है। इस मेले को एक तरह से भक्ति और श्रद्धा का प्रतीक माना जाता है। ज्ञात हो कि मेले में विभिन्न जाति, भाषा और क्षेत्र के लोगों को एक साथ लाने का काम होता है। यह सामाजिक समरसता और भाईचारे का भी प्रतीक माना गया है। जहां सभी लोग भेदभाव भूलकर एक ही उद्देश्य के लिए जुड़ते हैं। यह भी माना गया है कि श्रावणी मेला भारतीय सांस्कृतिक परंपराओं, रीति-रिवाजों और लोक कलाओं का संरक्षण करती है। यहां पर कई सारे परंपरागत गीत,भजन, कीर्तन और नृत्य देखने को मिलता है, जो कि भारतीय संस्कृति धरोहर को आगे बढ़ाता है। दूसरी तरफ इस मेले का भी आर्थिक महत्व है, जहां स्थानीय व्यापार और हस्तशिल्प को बढ़ावा मिलता है। कई सारे श्रद्धालुओं के आने से स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है। कुल मिलाकर देखा जाए, तो यह मेला न केवल धार्मिक उत्सव है, बल्कि भारतीय जीवन के विभिन्न पहलुओं को जोड़ने वाला एक बड़ा सांस्कृतिक समारोह भी है।
हरियाली तीज मेला और उससे जुड़ी भारत की संस्कृति

राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में हरियाली तीज के अवसर पर मेलों का आयोजन होता है। धार्मिक कार्यों के साथ यह मेला मेहंदी, झूला, गीत-संगीत, सजने-संवरने और पारंपरिक लोक संस्कृति से जुड़ा उत्सव है। यह भी माना गया है कि हरियाली तीज का मेला महिलाओं के लिए विशेष रूप से सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से बेहद प्रमुख है। यह भी माना गया है कि हरियाली तीज महिलाओं के लिए सौंदर्य, श्रृंगार और आत्म अभिव्यक्ति का पर्व है। महिलाएं श्रृंगार करती हैं और झूले झूलती हैं। इस मेले में लोक गीत और नृत्य की परंपरा होती है।हरियाली तीज का संबंध सावन और वर्षा ऋतु से है, जब धरती हरी-भरी हो जाती है। यह उत्सव प्रकृति से जुड़ाव और पर्यावरण की पूजा का भी प्रतीक है। हरियाली तीज मेला गांवों और शहरों में महिलाओं के मिलने-जुलने, एक दूसरे से जुड़ने के साथ उल्लासपूर्वक समय बिताने का माध्यम होता है। कुल मिलाकर देखा जाए, तो हरियाली तीज मेला भारतीय संस्कृति की नारी-संवेदनाओं, प्रकृति प्रेम, पारिवारिक मूल्यों और लोक परंपराओं का अनोखा उत्सव भी है।
सावन मेला और उसका सांस्कृतिक महत्व

वाराणसी, उज्जैन, पटना जैसे शहरों में सावन के दौरान बड़े मेले का आयोजन होता है। भक्ति के साथ सावन का मेला शक्ति का भी कहलाता है। सावन मेलों में लोक गीत, नृत्य, नाटक और भजन कीर्तन करते हैं। यह मेला क्षेत्रीय लोककला को संरक्षण और मंच भी प्रदान करता है। उल्लेखनीय है कि वर्षा ऋतु की शुरुआत में खेत, जंगल और बाग-बगीचे हरे-भरे हो जाते हैं। मेले में झूले, मेहंदी और फूलों की सजावट की जाती है। इसे एक तरह से प्रकृति के प्रेम का प्रतीक भी माना गया है। महिलाएं सावन में हरे वस्त्र पहनती हैं, मेहंदी लगाती हैं, सोलह शृंगार करती हैं। गांव-शहर के लोग साथ मिलकर उत्सव मनाते हैं जिससे सांस्कृतिक एकता और समरसता का संदेश देता है। मेले में हस्तशिल्प, लोक संगीत उपकरण, खाद्य वस्तुएं और खिलौने बिकते हैं, जो कि स्थानीय अर्थव्यवस्था और कलाकारों को भी प्रोत्साहन देता है। सावन के मेले को लेकर कहा जाता है कि इस तरह के मेले न केवल धार्मिक आयोजन होते हैं, बल्कि एक पर्व है, जो कि हर आयु, वर्ग और क्षेत्र के लोगों को जोड़ता है।
सावन में लोकनृत्य और लोकगीत की संस्कृति कितनी पुरानी
दिलचस्प है कि सावन में लोकनृत्य और लोकगीत की संस्कृति भारत की सबसे प्राचीन सांस्कृतिक परंपराओं में से एक है। यह परंपरा हजारों सालों से चली आ रही है। आज भी भारत के ग्रामीण और शहरी दोनों समाजों में जीवित है। इतिहास में भी इसकी पुष्टि की गई है। ऋग्वेद,और अन्य वेदों में वर्षा, ऋतु और प्रकृति से संबंधित रचनाएं और गीत मिलते हैं। उल्लेखनीय है कि भारत की कृषि प्रधान संस्कृति में भी बारिश का खास महत्व मिलता है। जब सावन में बारिश होती है, और खेत हरियाली से भरते हैं, तब किसान खासकर महिलाएं खुशी से गीत गाती थीं। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में बरसात के दौरान कजरी गाई जाती हैं। राजस्थान, हरियाणा और ब्रज में झूला गीत गाए जाते हैं। सोहर, गारी और सावन मल्हार भी सावन के दौरान गाए जाते रहे हैं।