img
हेल्प
settings about us
  • follow us
  • follow us
write to us:
Hercircle.in@ril.com
terms of use | privacy policy � 2021 herCircle

  • होम
  • कनेक्ट
  • एक्स्क्लूसिव
  • एन्गेज
  • ग्रो
  • गोल्स
  • हेल्प

search

search
all
communities
people
articles
videos
experts
courses
masterclasses
DIY
Job
notifications
img
Priority notifications
view more notifications
ArticleImage
प्रेरणा

सावित्री बाई फुले- पहली महिला शिक्षिका

सुमन शर्मा |  सितंबर 15, 2023

किसी भी देश की बुनियाद उसके युवाओं की शिक्षा पर टिकी होती है.दक्षिण अफ्रीका के भूतपूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय नेल्सन मंडेला ने कहा है, “शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है, जिसका उपयोग आप दुनिया को बदलने के लिए कर सकते हैं।” जी हाँ, यह सही है कि आप शिक्षित होकर दुनिया बदल सकते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक दौर था, जब शिक्षा पर सिर्फ पुरुषों का ही अधिकार था? स्त्रियों का पढ़ना अच्छा नहीं माना जाता था.उस दौर से लेकर, अब तक के इस दौर में  जबकि स्त्रियाँ पढ़ती ही नहीं पढ़ाती भी हैं और हर क्षेत्र में पुरुषों से कम नहीं है, यहाँ तक का सफर महिलाओं के लिए इतना आसान नहीं था.इस सफर को आसान बनाने में एक महान स्त्री का हाथ था, जिन्हें दुनिया सावित्रीबाई फुले के नाम से जानती हैं और जो पहली महिला शिक्षिका हैं.

शुरू से था पढ़ाई के प्रति लगाव 

महाराष्ट्र की पृष्ठभूमि में पली बढ़ीं  सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 में महाराष्ट्र के सातारा गाँव में हुआ.उनके पिता खंडोजी नेवसे पाटिल और माँ का नाम लक्ष्मी था.यह वह दौर था, जब समाज में बाल विवाह का चलन था, ज़ाहिर है उनका विवाह भी कम उम्र यानी महज़ नौ साल की उम्र में 1840 में 12 वर्षीय ज्योतिराव फुले के साथ हो गया, जो स्वयं एक विचारक, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता थे.उनकी गिनती महाराष्ट्र के सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रमुख आंदोलनकारियों में होती है.उन्होंने किसानों की समस्या के लिए भी काफी काम किया और आगे चलकर वह ज्योति बा के नाम से जाने गए।

पति की मदद से किये कई सामाजिक कार्य 

जीवनसाथी का सहयोग मिले, तो महिला क्या नहीं कर सकती, इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं ज्योतिराव, जिनके सहयोग से सावित्री बाई शादी के बाद पढ़ाई कर पाईं और तीसरी व चौथी की परीक्षा पास की.उस दौर में जब लड़कियों को सिर्फ चूल्हा-चौके के काम के लायक माना जाता था और दहलीज़ के बाहर पैर निकालने की इजाज़त नहीं थी, सावित्री बाई ने पूना में 1848 में लड़कियों के लिए पहला स्वदेशी स्कूल खोला.ज्योतिराव और सावित्रीबाई के द्वारा उठाए गए इस कदम के लिए परिवार और समाज के लोगों ने उनका जमकर विरोध किया और सामाजिक बहिष्कार कर दिया.ऐसे में उनके दोस्त ने अपने घर के परिसर में फुले दंपति को स्कूल खोलने के लिए जगह दी और इस तरह सावित्रीबाई स्कूल की पहली महिला शिक्षिका बनी.ज्योतिराव और सावित्री बाई ने दलितों व अछूत लोगों के लिए भी स्कूल खोला.

विरोध के बावजूद नहीं हारी हिम्मत 

ब्रिटिश सरकार ने सावित्री बाई और ज्योतिराव को शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए सम्मानित किया और सावित्रीबाई को सर्वश्रेष्ठ शिक्षक का नाम दिया गया. उनके लिए यह सफर आसान नहीं था.कहते हैं कि जब वो स्कूल जाती थीं, तो कन्या शिक्षा के विरोधी उन पर गंदगी व पत्थर फेंकते थे, लेकिन इससे उनका हौसला कमजोर नहीं हुआ और हिम्मत रखते हुए अपने कदम बढ़ाती गईं व आगे चलकर उन्होंने 18 स्कूल खोले.उन्होंने शिक्षा के महत्व पर माता-पिता के बीच जागरूकता पैदा करने के लिए समय-समय पर अभिभावक-शिक्षक बैठकें आयोजित कीं, ताकि वे अपने बच्चों को नियमित रूप से स्कूल भेजें. सावित्री बाई मराठी की पहली कवयित्री बनीं.

कुरीतियों के खिलाफ उठाई आवाज़ 

सावित्री बाई ने समाज की कुरीतियों, जैसे- बाल विवाह, सती प्रथा, विधवाओं के बाल मुंडवाने के मौजूदा परंपरा, छुआछूत आदि के खिलाफ अपने पति के साथ मिलकर इन कुरीतियों का विरोध किया और समाज सेवा के लिए कई यादगार काम किए.उन्होंने बाल विधवाओं को शिक्षित और सशक्त बनाने का प्रयास किया और उनके पुनः विवाह पर जोर दिया.उन्होंने महिलाओं के बीच अपने अधिकार, गरिमा और अन्य सामाजिक मुद्दों के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए महिला सेवा मंडल बनाया.

बचाई एक विधवा गर्भवती की जान 

ज्योतिराव और सावित्रीबाई ने वर्ष 1863 में बालहत्या प्रतिबंधक गृह खोला, जहां गर्भवती विधवाएं और बलात्कार पीड़ित औरतें अपने बच्चों को सुरक्षित रख उनका भविष्य सुधार सकती थीं.ज्योतिराव और सावित्रीबाई ने एक बार काशीबाई नामक एक ब्राह्मण विधवा को आत्महत्या के पाप से बचाया और उनसे वचन लिया कि वो बच्चे के जन्म के बाद उन्हें अपना नाम देंगे.इस तरह 1874 में फुले दंपति ने अपनी जुबान रखते हुए उस ब्राह्मण विधवा से उसका बच्चा गोद लिया और समाज के सामने मानवता की एक मिसाल पेश की.उनके यह पुत्र यशवंतराव बड़े होकर डॉक्टर बने.

अंतिम समय तक की समाज सेवा 

अपने पति ज्योतिराव के गुजरने के बाद उन्होनें उनका अंतिम संस्कार किया, उस दौर में ऐसा कदम उठाना अपने आप में एक बहुत बड़े बात थी.10 मार्च 1897 को सावित्री बाई का प्लेग के कारण देहांत हो गया.उन दिनों प्लेग एक महामारी के रूप में उभर कर आया.उन्होंने इस बीमारी से पीड़ितों की काफी सेवा की और इसी दौरान उन्हें भी प्लेग हो गया और उन्होंने अपना जीवन त्याग दिया.

उनकी उपलब्धियों को देखते हुए 1983 में पुणे सिटी कॉरपोरेशन द्वारा उनके सम्मान में एक स्मारक बनाया गया था. इंडिया पोस्ट ने 10 मार्च 1998 को उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया था. 2015 में पुणे विश्वविद्यालय का नाम बदलकर उनके नाम पर सावित्री बाई फुले पुणे विश्वविद्यालय कर दिया गया था.

शेयर करें
img
लिंक कॉपी किया!
edit
reply
होम
हेल्प
वीडियोज़
कनेक्ट
गोल्स
  • © herCircle

  • फॉलो अस
  • कनेक्ट
  • एन्गेज
  • ग्रो
  • गोल्स
  • हेल्प
  • हमें जानिए
  • सेटिंग्स
  • इस्तेमाल करने की शर्तें
  • प्राइवेसी पॉलिसी
  • कनेक्ट:
  • email हमें लिखें
    Hercircle.in@ril.com

  • वीमेंस कलेक्टिव

  • © 2020 her circle