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प्रेरणा

मिलिए प्रतिक्षा प्रमोद तोंडवलकर से, जिन्होंने अपने पढ़ने की धुन से पूरा किया स्वीपर से असिस्टेंट जेनरल मैनेजर बनने का सफर

अनुप्रिया वर्मा |  फ़रवरी 26, 2024

बचपन में जब हाथों में वड़ा पाव आये या फिर सब्जियां खरीदने वाले अखबार हो, जो भी पढ़ने वाली चीजें मिल जातीं, उसे सिरे से एक-एक शब्द पढ़ जाया करती थी, कपड़े धोते हुए, बर्तन मांजते हुए भी किताब के पन्ने पढ़ने के लिए खुले ही होते थे। दरअसल, बेहद कम उम्र से ही इस बात को उन्होंने समझ लिया था कि जिस तरह बर्तनों की चमक उसे अच्छे से घिसने से ही आती है, वैसे ही खुद का भविष्य मांजना हैं, तो सिवाय पढ़ाई के और कोई विकल्प नहीं हैं। इसके बावजूद कि जिंदगी में कई कठिन परिस्थितियां आयीं, उन्होंने कभी कोई शिकायती लहजा नहीं रखा किसी से भी और अपने लक्ष्य पर नजर रखी, नतीजन वह कभी जिस बैंक में स्वीपर की नौकरी करती थीं, उसी बैंक में आज असिस्टेंट जेनरल मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं। जी हम बात कर रहे हैं, मुंबई में रहने वाली प्रतिक्षा प्रमोद तोंडवलकर की, जो उन तमाम महिलाओं के लिए प्रेरणा हैं, जो कई बार आर्थिक और कई परेशानियों की वजह से अपने सपने पीछे छोड़ देती हैं। की सफलता की कहानी दर्शाती है कि आप अगर दृढ़ निश्चय करते हैं और तय कर लें, तो कुछ भी नामुमकिन नहीं। आइए,तो इस दिवाली, सलाम करते हैं प्रतिक्षा जैसी मिसाल को, जिन्होंने अपने संघर्ष को सेलिब्रेट किया है, शिकायती बन कर नहीं, बल्कि कठिन रास्तों पर चल कर मंजिल को हासिल किया है।

बर्तन धोते हुए भी पढ़ाई ही आता था नजर 

प्रतिक्षा प्रमोद तोंडवलकर फिलवक्त मुंबई के स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के एक ब्रांच में असिस्टेंट जेनरल मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं। किसी दौर में वह इसी बैंक में स्वीपर की नौकरी करती थीं। प्रतिक्षा सबसे पहले अपने बचपन की गलियों में लेकर जाती हैं और बताती हैं कि उनका जन्म पुणे के एक संयुक्त परिवार में हुआ था। वह कहती हैं, हमलोग बहुत अधिक संपन्न नहीं थे, मेरे पापा चप्पल जूता रिपेयर किया करते थे। लेकिन एक बात जरूर थी कि हमने दो वक्त की रोटी अच्छे से नसीब हो जाती थी। मैं मेरी मां के साथ मैं पापड़ देने घर-घर जाया करती थी। मैं कारखाने से आटा लाने-ले जाने का काम भी किया करती थी। मुझे याद है, रविवार के दिन मां बड़े बर्तन देती थी कि साफ करो, तब भी मैं कुछ न कुछ किताब में पढ़ती रहती थी। मां का इस पर बहुत ध्यान होता था कि मेरी पढ़ाई होती रहे। इसलिए शायद वह मेरा भी जुनून बना। 

जल्दी शादी हुई, फिर पढ़ाई से वास्ता टूटा

प्रतिक्षा बताती हैं कि वह अपने स्कूल में हमेशा से होशियार बच्चों में ही गिनी जाती थीं। लेकिन कम उम्र में उनके माता-पिता ने उनकी शादी कर देने का फैसला किया, तो उनकी पढ़ाई छूट गयी थी। वह बताती हैं कि मुझे आज भी याद है, मेरी अंग्रेजी की टीचर ने मेरे पेरेंट्स से यह बात बार-बार कही कि आपलोग क्यों एक अच्छी होनहार बच्ची की शादी कम उम्र में कर दे रहे हैं, अगर आप लोग इसका पालन-पोषण नहीं कर पा रहे हैं,तो मुझे दे दीजिए, मैं परवरिश करूंगी। लेकिन फिर कुछ नहीं हुआ, मेरी शादी हो गयी, पढ़ाई वहीं रह गयी। प्रतिक्षा आगे कहती हैं कि उस वक्त वैसा दौर नहीं था कि आप अपने पेरेंट्स से पूछें या सवाल करें कि ऐसा क्यों हो रहा है, मुझे तो यह भी याद नहीं कि मैंने मेरे पति का शादी से पहले चेहरा देखा था, मां ने सिर्फ इतना बताया था कि मैं घर में रंगोली बना रही थी, तो उन्होंने मुझे देखा और रिश्ता हुआ। बहरहाल, उसके बाद मैं उनके साथ पुणे से मुंबई आयी, लेकिन दुर्भाग्यवश कुछ सालों में मेरे पति की मृत्यु हो गयी। उस वक्त मेरा एक बेटा था, मुझे उसके भविष्य की चिंता काफी हुई, मुझे समझ नहीं आया कि क्या करूं, क्या नहीं। तो एक दिन मुझे एक बैंक से फोन आया कि आपका कुछ दो सौ ढाई सौ का चेक है, आकर लेकर जाओ। फिर यहां से नया सफर शुरू हुआ।

बैंक में काम शुरू किया, कलीग और बॉस का सहयोग मिला

प्रतिक्षा बताती हैं कि जब वह चेक लेने गई थीं, उसी दिन उन्होंने बैंक के लोगों से बातचीत की कि कुछ काम दीजिए, नहीं तो बच्चे का गुजारा कैसे होगा। फिर मुझे वहीं अच्छे लोग का साथ मिला और काम मिल गया। लेकिन मुझमें पढ़ाई का जज्बा रहा। मैं जब वहां के लोगों को देखती थी कि लोगों का रहने का क्या अंदाज हैं, तो मुझे लगा कि मैं मेरे बच्चे का भविष्य तभी दे पाऊंगी, जब कुछ पढूंगी और कोई विकल्प नहीं है। तो वहां के सभी लोग मुझे सपोर्ट करते थे। मेरी आदत थी मैं अखबार जिसमें सब्जी या पाव होता था, वह भी पढ़ लेती थी, इसी क्रम में मुझे पढ़ने को मिला कि दसवीं की परीक्षा के बारे में, मैं सायन गयी, वहां से फॉर्म लिया भरा, फिर लगा कि अब किताबें और कॉपी कहां से आएंगी, तो मुझे वहां जितने लोग काम करते थे, सबने किसी न किसी रूप में मदद की। मैंने 12 वीं पढ़ाई पूरी की। नाइट स्कूल में जाती थी क्लास के लिए । काम करके रात में जाती थी क्लास के लिए। फिर उस वक्त ये भी बात थी कि मैं अकेली महिला थी, अपनी आत्म-सुरक्षा भी मुझे करनी थी, तो मैंने कर्राटे भी सीखा, वहीं नाइट क्लास में। इसके बाद, मैंने ग्रेजुएशन करने का निर्णय लिया, क्योंकि उसके बिना आप क्लर्क वाली किसी परीक्षा में बैठ नहीं सकती थी। उस वक्त मैं मेरे छोटे बच्चे को लेकर और थोड़ी आय बढ़े, इसके लिए कुर्ला में जाया करती थी, वहां पर जूतों के डाई का काम होता था। बच्चे को बगल में रख कर करती थी। या फिर कभी जहां रहती थी, अपने पड़ोसी को कह कर जाती थी, बच्चे को देखना और इस तरह से ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद, मैंने बैंक के एग्जाम देने शुरू किये और फिर पहले अटेम्प्ट में ही मेरी बात बन गयी । मैं यह जरूर कहना चाहूंगी कि इसमें मुझे मेरा पूरा सहयोग मेरे बैंक के कर्मचारियों ने किया था।

और फिर मिला प्यार का सेकेंड चांस

प्रतिक्षा कहती हैं कि वह खुद को खुशनसीब मानती हैं कि उनके पहले पति के गुजरने के बाद, उन्होंने कभी हमसफर मिलेंगे, लेकिन उन्हें जीवनसाथी का साथ मिला, तो उन्होंने दोबारा जिंदगी शुरू की। प्रतिक्षा कहती हैं कि मुझे ऐसा लगता ही कि मेरे हमसफर का जन्म मुझे दोबारा जिंदगी देने के लिए हुआ था, उन्होंने मुझे दोबारा से खड़ा किया, उन्होंने मुझे कहा कि तू अपना काम कर, मैं बच्चों की जिम्मेदारी संभालूंगा। वह कहती हैं कि एक लेजर कंपनी में दोनों की मुलाकात हुई, जहां उनके पति ने उन्हें शादी के लिए प्रस्ताव दिया, फिर हमेशा उनको आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। प्रतिक्षा ने फिर उन्हें भी ग्रेजुएशन कराया और फिर वह भी पिउन से क्लर्क बने। अभी तीन साल पहले उनका देहांत हुआ। प्रतिक्षा लेकिन अपने पति की जिंदादिली को सलाम करती हैं और कहती हैं कि उन्होंने उनको दोबारा आत्म-विश्वास दिलाया, उनके लिए सबकुछ किया। आज उनके ही साथ ही वजह से प्रतीक्षा के तीन बच्चे कामयाब हैं, लेकिन जीवन के हर सुख-दुःख में  उनकी कमी उन्हें आज भी महसूस होती है। 

पद मिला, लोगों का नजरिया कैसे बदला

प्रतिक्षा कहती हैं कि मेरा जब पद हुआ या जब नहीं भी था, मैंने कभी किसी की परवाह नहीं की। मुझे लोग ताने या कुछ भी अकेली औरत समझ कर बोल देते थे, लेकिन मैं कमजोर नहीं थी, मैं पलट कर उनको जवाब दे देती थी, मैंने अपने ऑफिस में भी महिलाओं से ज्यादा दोस्ती रखी थी और यही वजह रही कि मैं फोकस्ड थी अपने काम को लेकर, फिर लोग क्या बोलते थे, मुझे फर्क नहीं पड़ता है। प्रतिक्षा कहती हैं कि मैं और मेरे बेटे ने एक पाव को आधा-आधा बांट कर भी खाया है, तब कोई हमें देखने नहीं आता था, तो मैं उन लोगों की परवाह ही क्यों और मुझे जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है, मैं भगवान की शुक्रगुजार हूं, जितना सोचा नहीं था, उससे  मिला। प्रतिक्षा कहती हैं कि मैंने आज भी अपनी जरूरत को कम रखा है, जब चीजें नहीं थीं, तब भी और आज भी। सो, मैं खुश रहती हूं। प्रतिक्षा कहती हैं कि जब वह अपने तीनों बच्चों को आज कामयाब देखती हैं, तो उन्हें लगता है कि उनका संघर्ष सफल रहा।

अपने घर की डोमेस्टिक हेल्प को प्रोत्साहित

प्रतिक्षा कहती हैं कि फिलहाल वह नौकरी कर रही हैं, तो अभी वह कुछ भी अलग काम नहीं कर सकती हैं, लेकिन वह अपने घर की डोमेस्टिक हेल्प को उनके बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रेरित करती रहती हैं, वह कहती हैं कि मुझसे जो बन पाता है, किताबें कॉपियां देती हूं, मेरे यहां जो खाना बनाती है, वह अच्छा गाती हैं, तो मैं उनको गाने के लिए प्रोत्साहित करती हूं और उनको कहती हूं कि इस हुनर को बरकरार रखिए।

रिटायरमेंट में घूमने की योजना

प्रतिक्षा कहती हैं कि उन्हें पानी और पहाड़ जैसी जगहों से बेहद प्यार हैं, तो रिटायरमेंट के बाद वह सिर्फ घूमेंगी, पहले भारत भ्रमण करूंगी, फिर विदेश भी घूमूंगी।

 

 

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